महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-188
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पञ्चदशदिवसयुद्धारम्भः।। 1 ।। सङ्कुलयुद्धम्। नकुलेन दुर्योधनपराजयः।। 2 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-188-1x |
ते तथैव महाराज दंशिता रणमूर्धनि। सन्ध्यागतं सहस्रांशुमादित्यमुपतस्थिरे।। | 5-188-1a 5-188-1b |
उदिते तु सहस्रांशौ तप्तकाञ्चनसप्रभे। प्रकाशितेषु लोकेषु पुनर्युद्धमवर्तत।। | 5-188-2a 5-188-2b |
द्वन्द्वानि तत्र यान्यासन्संसक्तानि पुरोदयात्। तान्येवाभ्युदिते सूर्ये समसज्जन्त भारत।। | 5-188-3a 5-188-3b |
रथैर्हया हयैर्नागाः पादातैश्चापि कुञ्जराः। हयैर्हयाः समाजग्मुः पादाताश्च पदातिभिः।। | 5-188-4a 5-188-4b |
रथा रथैरिभैर्नागास्तथैव भरतर्षभ। संसक्ताश्च वियुक्ताश्च योधाः सन्न्यपतन्रणे।। | 5-188-5a 5-188-5b |
ते रात्रौ कृतकर्माणः श्रान्ताः सूर्यस्य तेजसा। क्षुत्पिपासापरीताङ्गा विसंज्ञा बहवोऽभवन्।। | 5-188-6a 5-188-6b |
शङ्खबेरीमृदङ्गानां कुञ्जराणां च गर्जताम्। विष्फारितविकृष्टानां कार्मुकाणां च कूजताम्।। | 5-188-7a 5-188-7b |
शब्दः समभवद्राजन्दिविस्पृग्भरतर्षभ। द्रवतां च पदातीनां शस्त्राणां पततामपि।। | 5-188-8a 5-188-8b |
हयानां हेषतां चापि रथानां च निवर्तताम्। क्रोशतां गर्जतां चैव तदासीत्तुमुलं महत्।। | 5-188-9a 5-188-9b |
विवृद्धस्तुमुलः शब्दो द्यामगच्छन्महांस्तदा। नानायुधनिकृत्तानां चेष्टतामातुरः स्वनः।। | 5-188-10a 5-188-10b |
भूमावश्रूयत महांस्तदाऽऽसीत्कृपणं महत्। पततां पात्यमानानां पत्त्यश्वरथदन्तिनाम्।। | 5-188-11a 5-188-11b |
तेषु सर्वेष्वनीकेषु व्यतिषक्तेष्वनेकशः। स्वे स्वाञ्जघ्नुः परे स्वांश्च स्वान्परेषां परे परान्। | 5-188-12a 5-188-12b |
वीरबाहुविसृष्टाश्च योधेषु च गजेषु च। राशयः प्रत्यदृश्यन्त वाससां नेजनेष्विव।। | 5-188-13a 5-188-13b |
उद्यतप्रतिपिष्टानां खङ्गानां वीरबाहुभिः। स एव शब्दस्तद्रूपो वाससां निज्यतामिव।। | 5-188-14a 5-188-14b |
अर्धासिभिस्तथा खङ्गैस्तोमरैः सपरश्वथैः। निकृष्टयुद्धं संसक्तं महदासीत्सुदारुणम्।। | 5-188-15a 5-188-15b |
गजाश्वकायप्रभवां नरदेहप्रवाहिनीम्। शस्त्रमत्स्यसुसम्पूर्णां मांसशोणितकर्दमाम्।। | 5-188-16a 5-188-16b |
आर्तनादस्वनवतीं पताकाशस्त्रफेनिलाम्। नदीं प्रावर्तयन्वीराः परलोकौघगामिनीम्।। | 5-188-17a 5-188-17b |
शरशक्त्यर्दिता क्लान्ता रात्रिमूढात्पचेतसः। विष्टभ्य सर्वगात्राणि व्यतिष्ठन्गजवाजिनः।। | 5-188-18a 5-188-18b |
संशुष्कवदना वीराः शिरोभिश्चारुकुण्डलैः। युद्धोपकरणैश्चान्यैस्तत्रतत्र चकाशिरे।। | 5-188-19a 5-188-19b |
क्रव्यादसङ्घैराकीर्णं मृतैरर्धमृतैरपि। नासीद्रथपथस्तत्र सर्वमायोधनं प्रति।। | 5-188-20a 5-188-20b |
मञ्जत्सु चक्रेषु रथान्सत्वमास्थाय वाजिनः। कथञ्चिदवहन्श्रान्ता वेपमानाः शरार्दिताः। कुलसत्वबलोपेता वाजिनो वारणोपमाः।। | 5-188-21a 5-188-21b 5-188-21c |
विह्वलं तूर्णमुद्धान्तं सभयं भारतातुरम्। बलमासीत्तदा सर्वमृते द्रोणार्जुनावुभौ।। | 5-188-22a 5-188-22b |
तावेवास्तां निलयनं तावार्तायनमेव च। तावेवान्ये समासाद्य जग्मुर्वैवस्वतक्षयम्।। | 5-188-23a 5-188-23b |
आविग्नमभवत्सर्वं कौरवाणां महद्बलम्। पाञ्चालानां च संसक्तं न प्राज्ञायत किञ्चन।। | 5-188-24a 5-188-24b |
अन्तकाक्रीडसदृशं भीरूणां भयवर्धनम्। पृथिव्यां राजवंश्यानामुत्थिते महति क्षये।। | 5-188-25a 5-188-25b |
न तत्र कर्णं द्रोणं वा नार्जुनं न युधिष्ठिरम्। न भीमसेनं न यमौ न पाञ्चाल्यं न सात्यकिम्।। | 5-188-26a 5-188-26b |
न च दुःशासनं द्रौणिं न दुर्योधनसौबलौ। न कृपं मद्रराजं च कृतवर्माणमेव च।। | 5-188-27a 5-188-27b |
न चान्यान्नैव चात्मानं न क्षितिं न दिशस्तथा। पश्याम राजन्संसक्तान्सैन्येन रजसा धृतान्।। | 5-188-28a 5-188-28b |
सम्भ्रान्ते तुमुले घोरे रजोमेघे समुत्थिते। त्रियामामिव संप्राप्ताममन्यन्त निशाचराः।। | 5-188-29a 5-188-29b |
न ज्ञायन्ते कौरवेया न पाञ्चाला न पाण्डवाः। न दिशो द्यौर्न चोर्वी च न समं विषमं तथा।। | 5-188-30a 5-188-30b |
हस्तसंस्पर्शमापन्नान्परानप्यथवा स्वकान्। न्यपातयंस्तदा युद्धे नराः स्म विजयैषिणः।। | 5-188-31a 5-188-31b |
उद्धूतत्वात्तु रजसः प्रसेकाच्छोणितस्य च। प्राशाम्यत रजो भौमं शीघ्रत्वादनिलस्य च।। | 5-188-32a 5-188-32b |
तत्र नागा हया योधा रथिनोऽथ पदातयः। पारिजातवनानीव व्यरोचन्रुधिरोक्षिताः।। | 5-188-33a 5-188-33b |
ततो दुर्योधनः कर्णो द्रोणो दुःशासनस्तथा। पाण्डवैः समसज्जन्त चतुर्भिश्चतुरो रथाः।। | 5-188-34a 5-188-34b |
दुर्योधनः सह भ्रात्रा यमाभ्यां समसज्जत। वृकोदरेण राधेयो भारद्वाजेन चार्जुनः।। | 5-188-35a 5-188-35b |
तद्धोरं महदाश्चर्यं युद्धं दैवासुरोपमम्। रथर्षभाणामुग्राणां सन्निपातममानुषम्।। | 5-188-36a 5-188-36b |
रथमार्गैर्विचित्रैस्तैर्विचित्ररथसङ्कुलम्। अपश्यन्रथिनो युद्धं विचित्रं चित्रयोधिनाम्।। | 5-188-37a 5-188-37b |
यतमानाः पराक्रान्ताः परस्परजिगीषवः। जीमूता इव घर्मान्ते शरवर्षैरवाकिरन्।। | 5-188-38a 5-188-38b |
ते रथान्सूर्यसङ्काशानास्थिताः पुरुषर्षभाः। अशोभन्त यथा मेघाः शारदाश्चलविद्युतः।। | 5-188-39a 5-188-39b |
योधास्ते तु महाराज क्रोधामर्षसमन्विताः। स्पर्धिनश्च महेष्वासाः कृतयत्ना धनुर्धराः। अभ्यगच्छंस्तथाऽन्योन्यं मत्ता गजवृषा इव।। | 5-188-40a 5-188-40b 5-188-40c |
न नूनं देहभेदोऽस्ति काले राजन्ननागते। यत्र सर्वे न युगपद्व्यशीर्यन्त महारथाः।। | 5-188-41a 5-188-41b |
बाहुभिश्चपरणैश्चिन्नैः शिरोभिश्च सकुण्डलैः। कार्मुकैर्विशिखैः प्रासैः खङ्गैः परशुपट्टसैः।। | 5-188-42a 5-188-42b |
नालीकैः क्षुद्रनाराचैर्नखरैः शक्तितोमरैः। अन्यैश्च विविधाकारैर्धौतैः प्रहरणोत्तमैः।। | 5-188-43a 5-188-43b |
विचित्रैर्विविधाकारैः शरीरावरणैरपि। विचित्रैश्च रथैर्भग्नैर्हतैश्च गजवाजिभिः।। | 5-188-44a 5-188-44b |
शून्यैश्चैव नगाकारैर्हतयोधध्वजै रथैः। अमनुष्यैर्हयैस्त्रस्तैः कृष्यमाणैस्ततस्ततः।। | 5-188-45a 5-188-45b |
वातायमानैरसकृद्धतवीरैरलंकृतैः। व्यजनैः कङ्कटैश्चैव ध्वजैश्च विनिपातितैः।। | 5-188-46a 5-188-46b |
छत्रैराभरणैर्वस्त्रैर्माल्यैश्च ससुगन्धिभिः। हारैः किरीटैर्मुकुटैरुष्णीषैः किङ्किणीगणैः।। | 5-188-47a 5-188-47b |
उरस्थैर्मणिभिर्निष्कैश्चूडामणिभिरेव च। आसीदायोधनं तत्र नभस्तारागणैरिव।। | 5-188-48a 5-188-48b |
ततो दुर्योधनस्यासीन्नकुलेन समागमः। अमर्षितेन क्रुद्धस्य क्रुद्धेनामर्षितस्य च।। | 5-188-49a 5-188-49b |
अपसव्यं चकाराथ माद्रीपुत्रस्तवात्मजम्। किरञ्छरशतैर्हृष्टस्तत्र नादो महानभूत्।। | 5-188-50a 5-188-50b |
अपसव्यं कृतं सङ्ख्ये भ्रातृव्येनात्यमर्षिणा। नामृष्यत तमप्याजौ प्रतिचक्रे परन्तपः। पुत्रस्तव महाराज राजा दुर्योधनो द्रुतम्।। | 5-188-51a 5-188-51b 5-188-51c |
ततः प्रतिचिकीर्षन्तमपसव्यं तु ते सुतम्। न्यवारयत तेजस्वी नकुलश्चित्रमार्गवित्।। | 5-188-52a 5-188-52b |
स सर्वतो निवार्यैनं शरजालेन पीडयन्। विमुखं नकुलश्चक्रे तत्सैन्याः समपूजयन्।। | 5-188-53a 5-188-53b |
तिष्ठतिष्ठेति नकुलो बभाषे तनयं तव। संस्मृत्य सर्वदुःखानि तव दुर्मन्त्रितं च तत्।। | 5-188-54a 5-188-54b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणवधपर्वणि चतुर्दशरात्रियुद्धे अष्टाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 188 ।। |
5-188-12 स्वे कौरवाः स्वान् स्वभृत्यान्परे पाण्डवाः स्वान् स्वभृत्यान्। स्वे इत्यनुवर्तते। परेषां पाण्डवानां स्वान् स्वे कौरवाः परेषां पाण्डवानां परान् कौरवान् परे पाण्डवा जघ्नुरित्यन्वयः। परेषामित्युभयत्र सम्बध्यते। स्वपरविभागो वक्तुः सञ्जयस्यानुरोधात्।। 5-188-13 निज्यन्ते प्रक्षाल्यन्ते वासांसि येषु ते प्रदेशा नेजनानि तेषु यथा वाससां राशयो भवन्त्येवमुद्यतानां प्रतिकूलं पिष्टानां च खङ्गानां राशयः प्रत्यदृश्यन्त। निज्यतां क्षालनैः उद्यम्योद्यम्य शिलायां स्फाल्यमानानाम्। स्लोकद्वयम्।। 5-188-14 निज्यन्ते प्रक्षाल्यन्ते वासांसि येषु ते प्रदेशा नेजनानि तेषु यथा वाससां राशयो भवन्त्येवमुद्यतानां प्रतिकूलं पिष्टानां च खङ्गानां राशयः प्रत्यदृश्यन्त। निज्यतां क्षालनैः उद्यम्योद्यम्य शिलायां स्फाल्यमानानाम्। स्लोकद्वयम्।। 5-188-15 अर्धासिभिरेकधारैः।। 5-188-23 निलयनमाश्रयः। आर्तायनं आर्तानां भयवारणं स्वीयानाम्। शत्रूणां तु तावेव मृत्युकरावित्यर्थः।। 5-188-34 चतुरश्चत्वारः।। 5-188-35 भ्रात्रा दुःशासनेन।। 5-188-188 अष्टाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।।
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