महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-086
दिखावट
← द्रोणपर्व-085 | महाभारतम् सप्तमपर्व महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-086 वेदव्यासः |
द्रोणपर्व-087 → |
|
सञ्जयेन धृतराष्ट्रोपालम्भपूर्वकं युद्धकथनोपक्रमः।। 1 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-86-1x |
हन्त ते सम्प्रवक्ष्यामि सर्वं प्रत्यक्षदर्शिवान्। शुश्रूषस्व स्थिरो भूत्वा तव ह्यपनयो महान्।। | 5-86-1a 5-86-1b |
गतोदके सेतुबन्धो यादृक्तादृगयं तव। विलापो निष्फलो राजन्मा शुचो भरतर्षभ।। | 5-86-2a 5-86-2b |
अनतिक्रमणीयोऽयं कृतान्तस्याद्भुतो विधिः। मा शुचो भरतश्रेष्ठ दिष्टमेतत्पुरातनम्।। | 5-86-3a 5-86-3b |
यदि त्वं हि पुरा द्यूतात्कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम्। निवर्तयेथाः पुत्रांश्च न त्वां व्यसनमाव्रजेत्।। | 5-86-4a 5-86-4b |
युद्धकाले पुनः प्राप्ते तदैव भवता यदि। निवर्तिताः स्युः संरब्धा न त्वां व्यसनमाव्रजेत्।। | 5-86-5a 5-86-5b |
दुर्योधनं चाविधेयं बध्नीयास्त्वं पुरा यदि। अवेक्ष्य कौरवान्राजन्प्राप्स्यसे त्वं महद्यशः।। | 5-86-6a 5-86-6b |
तत्ते बुद्धिव्यतीचारमुपलप्स्यन्ति तज्जनाः। पाञ्चाला वृष्णयः सर्वे ये चान्येऽपि नराधिपाः।। | 5-86-7a 5-86-7b |
स कृत्वा पितृकर्म त्वं पुत्रं संस्थाप्य सत्पथे। वर्तेथा यदि धर्मेण न त्वां व्यसनमाव्रजेत्।। | 5-86-8a 5-86-8b |
त्वं तु प्राज्ञतमो लोके हित्वा धर्मं सनातनम्। दुर्योधनस्य कर्णस्य शकुनेश्चान्वगा मतम्।। | 5-86-9a 5-86-9b |
तत्ते विलपितं सर्वं मया राजन्निशामितम्। अर्थे निविशमानस्य विषमिश्रं यथा मधु।। | 5-86-10a 5-86-10b |
न तथा मन्यते कृष्णो न च राजा युधिष्ठिरः। न भीष्मो नैव च द्रोणो यथा त्वं मन्यसे नृप।। | 5-86-11a 5-86-11b |
व्यजानीत यदा तु त्वां लुब्धं धर्मप्रवादिनम्। तदाप्रभृति कृष्मस्त्वां न तथा बहुमन्यते।। | 5-86-12a 5-86-12b |
परुषाण्युच्यमानांश्च यथा पार्थानुपेक्षसे। तस्यानुबन्धः प्राप्तस्त्वां पुत्रामां राज्यकामुक।। | 5-86-13a 5-86-13b |
पितृपैतामहं राज्यमपावृत्तं त्वयाऽनघ। अथ पार्थैर्जितां कृत्स्नां पृथिवीं प्रत्यपद्यथाः।। | 5-86-14a 5-86-14b |
पाण्डुना निर्जितं राज्यं कौरवाणां यशस्तथा। एतच्चाप्यधिकं भूयः पाण्डवैर्धर्मचाखिभिः।। | 5-86-15a 5-86-15b |
तेषां तत्तादृशं कर्म त्वामासाद्य सुनिष्फलम्। यत्पित्र्याद्धंशिता राज्यात्त्वयेहामिषगृद्धिना।। | 5-86-16a 5-86-16b |
यत्पुनर्युद्धकाले त्वं पुत्रान्गर्हयसे नृप। बहुधा व्याहरन्दोषान्न तदद्योपपद्यते।। | 5-86-17a 5-86-17b |
न हि रक्षन्ति राजानो युध्यन्तो जीवितं रणे। चमूं विगाह्य पार्थानां युध्यन्ते क्षत्रियर्षभाः।। | 5-86-18a 5-86-18b |
यां तु कृष्णार्जुनौ सेनां यां सात्यकिवृकोदरौ। रक्षेरन्को नु तां युध्येच्चमूमन्यत्र कौरवात्।। | 5-86-19a 5-86-19b |
येषां योद्धा गुडाकेशो येषां मन्त्री जनार्दनः। येषां च सात्यकिर्योद्धा येषां योद्धा वृकोदरः।। | 5-86-20a 5-86-20b |
को हि तान्विषहेद्योद्धुं मर्त्यधर्मा धनुर्धरः। अन्यत्र कौरवेयेभ्यो ये वा तेषां पदानुगाः।। | 5-86-21a 5-86-21b |
यावत्तु शक्यते कर्तुमन्तरज्ञैर्जनाधिपैः। क्षत्रधर्मरतैः शूरैस्तावत्कुर्वन्ति कौरवाः।। | 5-86-22a 5-86-22b |
यथा तु पुरुषव्याघ्रैर्युद्धं परमसङ्कटम्। कुरूणां पाण्डवैः सार्धं तत्सर्वं शृणु तत्त्वतः।। | 5-86-23a 5-86-23b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि ष़डशीतितमोऽध्यायः।। 86 ।। |
5-86-17 ते तव बुद्धेर्व्यतिचारं वैषम्यमुपलप्स्यन्त्यनुभविष्यन्ति।। 5-86-13 अर्थे निविशमानानां यथा पार्थानुपेक्षसे इति क.ट. पाठः।। 5-86-22 अन्तरज्ञैरवसरवेदिभिः।। 5-86-86 षडशीतितमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-085 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-087 |