महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-048
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द्रोणादिभिः षड्भिरभिमन्योर्विरथीकरणम्।। 1 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-48-1x |
स कर्णं कर्णिना कर्णे पुनर्विव्याध फाल्गुनिः। शरैः पञ्चाशता चैनमविध्यत्कोपयन्भृशम्।। | 5-48-1a 5-48-1b |
प्रतिविव्याध राधेयस्तावद्भिरथ तं पुनः। शरैराचितसर्वाङ्गो बह्वशोभत भारत।। | 5-48-2a 5-48-2b |
कर्णं चाप्यकरोत्क्रुद्धो रुधिरोत्पीडवाहिनम्। कर्णोऽपि विबभौ शूरः शरैश्छिन्नोऽसृगातप्लुः। `सन्धानुगतपर्यन्तः शरदीव दिवाकरः'।। | 5-48-3a 5-48-3b 5-48-3c |
तावुभौ शरचित्राङ्गौ रुधिरेण समुक्षितौ। बभूवतुर्महात्मानौ पुष्पिताविव किंशुकौ।। | 5-48-4a 5-48-4b |
अथ कर्णस्य सचिवान्षट् शूरांश्चित्रयोधिनः। साश्वसूतध्वजरथान्सौभद्रो निजघान ह।। | 5-48-5a 5-48-5b |
तथेतरान्महेष्वासान्दशभिर्दशभिः शरैः। प्रत्यविध्यदसम्भ्रान्तस्तदद्भुतमिवाभवत्।। | 5-48-6a 5-48-6b |
मागधस्य तथा पुत्रं हत्वा षड्भिरजिह्मगैः। साश्वं ससूतं तरुणमश्वकेतुमपातयत्।। | 5-48-7a 5-48-7b |
मार्तिकावतकं भोजं ततः कुञ्जरकेतनम्। क्षुरप्रेण समुन्मथ्य ननाद विसृजन्शरान्।। | 5-48-8a 5-48-8b |
तस्य दौःशासनिर्विद्ध्वा चतुर्भिश्चतुरो हयान्। सूतमेकेन विव्याध दशभिश्चार्जुनात्मजम्।। | 5-48-9a 5-48-9b |
ततो दौःशासनिं कार्ष्णिर्विद्ध्वा सप्तभिराशुगैः। संरम्भाद्रक्तनयनो वाक्यमुच्चैरथाब्रवीत्।। | 5-48-10a 5-48-10b |
पिता तवाहवं त्यक्त्वा गतः कापुरुषो यथा। दिष्ट्या त्वमपि जानीषे योद्धुं न त्वद्य मोक्ष्यसे।। | 5-48-11a 5-48-11b |
एतावदुक्त्वा वचनं कर्मारपरिमार्जितम्। नाराचं विससर्जास्मै तं द्रौणिस्त्रिभिराच्छिनत्।। | 5-48-12a 5-48-12b |
तस्यार्जुनिर्ध्वजं छित्त्वा शल्यं त्रिभिरताडयत्। तं शल्यो नवभिर्बाणैर्गार्ध्रपत्रैरताडयत्।। | 5-48-13a 5-48-13b |
हृद्यसम्भ्रान्तवद्राजंस्तदद्भुतमिवाभवत्। तस्यार्जुनिर्ध्वजं छित्त्वा हत्वोभौ पार्ष्णिसारथी।। | 5-48-14a 5-48-14b |
तं विव्याधायसैः षड्भिः सोपाक्रामद्रथान्तरम्। शत्रुञ्जयं चन्द्रकेतुं मेघवेगं सुवर्चसम्।। | 5-48-15a 5-48-15b |
सूर्यभासं च पञ्चैतान्हत्वा विव्याध सौबलम्। तं सौबलस्त्रिभिर्विद्ध्वा दुर्योधनमथाब्रवीत्।। | 5-48-16a 5-48-16b |
सर्व एनं विमथ्नीमः पुरैकैकं हिनस्ति नः। अथाब्रवीत्पुनर्द्रोणं कर्णो वैकर्तनो रणे।। | 5-48-17a 5-48-17b |
पुरा सर्वान्प्रमथ्नाति ब्रूह्यस्य वधम्माशु नः। ततो द्रोणो महेष्वासः सर्वांस्तान्प्रत्यभाषत।। | 5-48-18a 5-48-18b |
अस्ति वाऽस्यान्तरं किञ्चित्कुमारस्याथ पश्यत। अन्वस्य पितरं चाद्य चरतः सर्वतो दिशम्।। | 5-48-19a 5-48-19b |
शीघ्रतां नरसिंहस्य पाण्डवेयस्य पश्यत। धनुर्मण्डलमेवास्य रथमार्गेषु दृश्यते।। | 5-48-20a 5-48-20b |
संदधानस्य विशिखाञ्शीघ्रं चैव विमुञ्चतः। आरुजन्नपि मे प्राणान्मोहयन्नपि सायकैः।। | 5-48-21a 5-48-21b |
प्रहर्षयति मां भूयः सौभद्रः परवीरहा। अतिमानं दधात्येष सौभद्रो विचरन्रणे।। | 5-48-22a 5-48-22b |
अन्तरं यस्य संरब्धा न पश्यन्ति महारथाः। अस्यतो लघुहस्तस्य दिशः सर्वा महेषुभिः। न विशेषं प्रपश्यामि रणे गाण्डीवधन्वनः।। | 5-48-23a 5-48-23b 5-48-23c |
सञ्जय उवाच। | 5-48-24x |
अथ कर्णः पुनर्द्रोणमाहार्जुनिशराहतः। स्थातव्यमिति तिष्ठामि पीड्यमानोऽभिमन्युना।। | 5-48-24a 5-48-24b |
तेजस्विनः कुमारस्य शराः परमदारुणाः। क्षिण्वन्ति हृदयं मेऽद्य घोराः पावकतेजसः।। | 5-48-25a 5-48-25b |
तमाचार्योऽब्रवीत्कर्णं शनकैः प्रहसन्निव। अभेद्यमस्य कवचं युवा चाशुपराक्रमः।। | 5-48-26a 5-48-26b |
उपदिष्टा मया चास्य पितुः कवचधारणा। तामेष निखिलां वेत्ति ध्रुवं परपुरञ्जयः।। | 5-48-27a 5-48-27b |
शक्यं त्वस्य धनुश्छेत्तुं ज्यां च बाणैः समाहितैः। अभीषूंश्च हयांश्चैव तथोभौ पार्ष्णिसारथी।। | 5-48-28a 5-48-28b |
एतत्कुरु महेष्वास राधेय यदि शक्यते। अथैनं विमुखीकृत्य पश्चात्प्रहरणं कुरु।। | 5-48-29a 5-48-29b |
सधनुष्को न शक्योऽयमपि जेतुं सुरासुरैः। विरथं विधनुष्कं च कुरुष्वैनं यदीच्छसि।। `पुनः स्थितेन केनापि दुःशको जेतुमार्जुनिः'।। | 5-48-30a 5-48-30b 5-48-30c |
सञ्जय उवाच। | 5-48-31x |
तदाचार्यवचः श्रुत्वा कर्णो वैकर्तनस्त्वरन्। अस्यतो लघुहस्तस्य पृष्ठतो धनुराच्छिनत्।। | 5-48-31a 5-48-31b |
अश्वानस्यावधीद्दोणो गौतमः पार्ष्णिसारथी। शेषास्तु च्छिन्नधन्वानं शरवर्षैरवाकिरन्।। | 5-48-32a 5-48-32b |
त्वरमाणास्त्वराकाले विरथं षण्महारथाः। शरवर्षैरकरुणा बालमेकमवाकिरन्।। | 5-48-33a 5-48-33b |
स च्छिन्नधन्वा विरथः स्वधर्ममनुपालयन्। खङ्गचर्मधरः श्रीमानुत्पपात विहायसा।। | 5-48-34a 5-48-34b |
मार्गैः सकौशिकाद्यैश्च लाघवेन बलेन च। आर्जुनिर्व्यचरद्य्वोम्नि भृशं वै पक्षिराडिव।। | 5-48-35a 5-48-35b |
मय्येव निपतत्येष सासिरित्यूर्ध्वदृष्टयः। विव्यधुस्तं महेष्वासं समरे छिद्रदर्सिनः।। | 5-48-36a 5-48-36b |
क्षुरप्रेण महातेजास्त्वरमाणः सपत्नजित्।। | 5-48-37a |
राधेयो निशितैर्बाणैर्व्यधमच्चर्म चोत्तमम्।। | 5-48-38a |
व्यसिचर्मेषुपूर्णाङ्गः सोऽन्तरिक्षात्पुनः क्षितिम्। आस्थितश्चक्रमुद्यम्य द्रोणं क्रुद्धोऽभ्यधावत।। | 5-48-39a 5-48-39b |
स चक्ररेणूकज्ज्वलशोभिताङ्गो बभावतीवोज्ज्वलचक्रपाणिः। रणेऽभिमन्युः क्षणमास रौद्रः स वासुदेवानुकृतिं प्रकुर्वन्।। | 5-48-40a 5-48-40b 5-48-40c 5-48-40d |
स्रुतरुधिरकृतैकरागवस्त्रो भ्रुकुटिपुटाकुलितोऽतिसिंहनादः। प्रभुरमितबलो रणेऽभिमन्यु-- र्नृपवरमध्यगतो भृशं व्यराजत्।। | 5-48-41a 5-48-41b 5-48-41c 5-48-41d |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि त्रयोदशदिवसयुद्धे अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः।। 48 ।। |
5-48-18 वधं वधोपायम्।। 5-48-19 अण्वप्यस्यान्तरं ह्यद्य इति झ.पाठः।। 5-48-35 कौशिकं सर्वतोभद्रम्।। 5-48-48 अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-047 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-049 |