महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-153
दिखावट
← द्रोणपर्व-152 | महाभारतम् सप्तमपर्व महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-153 वेदव्यासः |
द्रोणपर्व-154 → |
|
दुर्योधनेन कर्णंप्रति जयद्रथवधे द्रोणस्य पार्थपक्षपातादौदासीन्यस्य हेतुत्वेऽभिहिते कर्णेन तन्निराकरणपूर्वकं दैवस्यैव तत्र हेतुत्वकथनम्।। 1 ।। रात्रियुद्धारम्भः।। 2 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-153-1x |
ततो दुर्योधनो राजा द्रोणेनैवं प्रचोदितः। अमर्षवशमापन्नो युद्धायैव मनो दधे। अब्रवीच्च तदा कर्णं पुत्रो दुर्योधनस्तव।। | 5-153-1a 5-153-1b 5-153-1c |
पश्य कृष्णसहायेन पाण्डवेन किरीटिना। आचार्यविहितं व्यूहं भित्त्वा देवैः सुदुर्भिदम्।। | 5-153-2a 5-153-2b |
तव व्यायच्छमानस्य द्रोणस्य च महात्मनः। मिषतां योधमुख्यानां सैन्धवो विनिपातितः।। | 5-153-3a 5-153-3b |
पश्य राधेय पृथ्वीशाः पृथिव्यां प्रवरा युधि। पार्थेनैकेन निहताः सिंहेनेवेतरे मृगाः।। | 5-153-4a 5-153-4b |
मम व्यायच्छमानस्य समरे शत्रुसूदन। अल्पावशेषं सैन्यं मे कृतं शक्रात्मजेन ह।। | 5-153-5a 5-153-5b |
कथं वै युध्यमानस्य द्रोणस्य युधि फल्गुनः। भिन्द्यात्सुदुर्भिदं व्यूहं यतमानोऽपि संयुगे।। | 5-153-6a 5-153-6b |
प्रतिज्ञाया गतः पारं हत्वा सैन्धवमर्जुनः।। | 5-153-7a |
पश्य राधेय पृथ्वीशान्पृथिव्यां पातितान्बहून्। पार्थेन निहतान्सङ्ख्ये महेन्द्रोपमविक्रमान्।। | 5-153-8a 5-153-8b |
अनिच्छतः कथं वीर द्रोणस्य युधि पाण्डवः। भिन्द्यात्सुदुर्भिदं व्यृहं यतमानस्य शुप्मिणः।। | 5-153-9a 5-153-9b |
दयितः फल्गुनो नित्यमाचार्यस्य महात्मनः। ततोऽस्य दत्तवान्द्वारमयुद्धेनैव शत्रुहन्।। | 5-153-10a 5-153-10b |
अभयं सिन्धुराजाय दत्त्वा द्रोणः परन्तपः। प्रादात्किरीटिने द्वारं पश्यन्निर्गुणतां मयि।। | 5-153-11a 5-153-11b |
यद्यदास्यदनुज्ञां वै पूर्वमेव गृहान्प्रति। प्रम्थातुं सिन्धुराजस्य न भवेज्जीवितक्षयः।। | 5-153-12a 5-153-12b |
जयद्रथो जीवितार्थी गच्छमानो गृहान्प्रति। मयाऽनार्येण संरुद्धो द्रोणात्प्राप्याभयं रणे।। | 5-153-13a 5-153-13b |
`रक्षामि सैन्धवं युद्धे नैनं प्राप्स्यति फल्गुनः। मम सैन्यविनाशाय रुद्धो विप्रेण सैन्धवः।। | 5-153-14a 5-153-14b |
तस्य मे मन्दभाग्यस्य यतमानस्य संयुगे। हतानि सर्वसैन्यानि हतो राजा जयद्रथः।। | 5-153-15a 5-153-15b |
पश्य योधवरान्कर्ण शतशोऽथ सहस्रशः। पार्थनामाङ्कितैर्वाणैः सर्वे नीता यमक्षयम्।। | 5-153-16a 5-153-16b |
कथमेकरथेनाजौ बहूनां नः प्रपश्यताम्। विपन्नः सैन्धवो राजा योधाश्चैव सहस्रशः'।। | 5-153-17a 5-153-17b |
अद्य मे भ्रातरः क्षीणाश्चित्रसेनादयो रणे। भामसनं समासाद्य पश्यतां नोदुरात्मनाम्।। | 5-153-18a 5-153-18b |
कर्ण उवाच। | 5-153-19x |
आचार्यं मा विगर्हस्व शक्त्याऽसौ युध्यते द्विजः। यथाबलं यथोत्साहं त्यक्त्वा जीवितमात्मनः।। | 5-153-19a 5-153-19b |
यद्येनं समतिक्रम्य प्रविष्टः श्वेतवाहनः। नात्र सूक्ष्मोऽपि दोषःस्यादाचार्यस्य कथञ्चन।। | 5-153-20a 5-153-20b |
कृती दक्षो युवा शूरः कृतास्त्रो लघुविक्रमः। दिव्यास्त्रयुक्तमास्थाय रथं वानरलक्षणम्।। | 5-153-21a 5-153-21b |
कृष्णेन च गृहीताश्वमभेद्यकचावृतः। गाण्डीवमजरं दिव्यं धनुरादाय वीर्यवान्।। | 5-153-22a 5-153-22b |
प्रवर्षन्निशितान्बाणान्बाहुद्रविणदर्पितः। यदर्जुनोऽभ्ययाद्द्रोणमुपपन्नं हि तस्य तत्।। | 5-153-23a 5-153-23b |
आचार्यः स्थविरो राजञ्शीघ्रयाने तथाऽक्षमः। बाहुव्यायामचेष्टायामशक्तस्तु नराधिप।। | 5-153-24a 5-153-24b |
तेनैवमभ्यतिक्रान्तः श्वेताश्वः कृष्णसारथिः। तस्य दोषं न पश्यामि द्रोणस्यानेन हेतुना।। | 5-153-25a 5-153-25b |
अजय्यान्पाण्डवान्मन्ये द्रोणोनास्त्रविदा मृधे। तथा ह्येनमतिक्रम्य प्रविष्टः श्वेतवाहनः।। | 5-153-26a 5-153-26b |
सततं चेष्टमानानां निकृत्या विक्रमेण च। दैवादिष्टोऽन्यथाभावो न मन्ये विद्यते क्वचित्।। | 5-153-27a 5-153-27b |
यतो नो युध्यमानानां परं शक्त्या सुयोधन। सैन्धवो निहतो युद्धे दैवमत्र परं स्मृतम्।। | 5-153-28a 5-153-28b |
परं यत्नं कुर्वतां च त्वया सार्धं रणाजिरे। हत्वाऽस्माकं पौरुषं वै दैवं पश्चात्करोति नः।। | 5-153-29a 5-153-29b |
दैवोपसृष्टपुरुषो यत्कर्म कुरुते क्वचित्। कृतं कृतं हि तत्तस्यट दैवेन विनिपात्यते।। | 5-153-30a 5-153-30b |
यत्कर्तव्यं मनुष्येण व्यवसायवता सदा। तत्कार्यमविशङ्केन सिद्धिर्दैवे प्रतिष्ठिता।। | 5-153-31a 5-153-31b |
निकृत्या वञ्चिताः पार्था विषयोगैश्च भारत। दग्धा जतुगृहे चापि द्यूतेन च पराजिताः।। | 5-153-32a 5-153-32b |
राजनीतिं समाश्रित्य प्रहिताश्चैव काननम्। यत्नेन च कृतं तत्तद्दैवेन विनिपातितम्।। | 5-153-33a 5-153-33b |
युध्यस्व यत्नमास्थय दैवं कृत्वा निरर्थकम्। यततस्तव तेषां च दैवं मार्गेण यास्यति।। | 5-153-34a 5-153-34b |
न तेषां मतिपूर्वं हि सुकृतं दृश्यते क्वचित्। दुष्कृतं तव वा वीर बुद्ध्या हीनं कुरूद्वह।। | 5-153-35a 5-153-35b |
दैवं प्रमाणं सर्वस्य सुकृतस्येतरस्य वा। अनन्यकर्म दैवं हि जागर्ति स्वपतामपि। `तेन युक्तो हि पुरुषः कार्याकार्ये नियुज्यते'।। | 5-153-36a 5-153-36b 5-153-36c |
बहूनि तव सैन्यानि योधाश्च बहवस्तव। न तथा पाण्डुपुत्राणामेवं युद्धमवर्तत।। | 5-153-37a 5-153-37b |
तैरल्पैर्बहवो यूयं क्षयं नीताः प्रहारिणः। शङ्के दैवस्य तत्कर्म पौरुषं येन नाशितम्।। | 5-153-38a 5-153-38b |
सञ्जय उवाच। | 5-153-39x |
एवं संभाषमाणानां बहु तत्तज्जनाधिप। पाण्डवानामनीकानि समदृश्यन्त संयुगे।। | 5-153-39a 5-153-39b |
ततः प्रववृते युद्धं व्यतिषक्तरथद्विपम्। तावकानां परैः सार्धं राजन्दुर्मन्त्रिते तव।। | 5-153-40a 5-153-40b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे त्रिपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।। 153 ।। |
5-153-12 यद्यदास्यत् दद्याच्चेदित्यर्थः। सिन्धुराजस्य नाभविध्यज्जनक्षय इति झ. पाठः।। 5-153-27 अन्यथाभावः पराजयो दैवादिष्टः। नतु द्रोणापराधज इति भावः।। दैवदृष्ट्याऽन्यथाभावो न मन्युर्विद्यते क्वचित् इति क. पाठः। दैवदिष्टान्यथाभावो न मन्युर्विद्यते क्वचित् इति ख.पाठः।। 5-153-30 दैवोपसृष्टो दुर्दैवप्रस्तः।। 5-153-35 तेषां जयहेतुः सुकृतं तव वा पराजयहेतुः दुष्कृतं नास्तीत्याह। न तेषामिति।। 5-153-153 त्रिषञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-152 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-154 |