महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-199
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सात्यकिनिष्ठुरभाषणरुष्टेन धृष्टद्युम्नेन समर्मोद्धाटनं तद्गर्हणम्।। 1 ।। धृष्टद्युम्नजिघांसया गदामुद्यम्यापततः सात्यकेः कृष्णचोदितेन भीमेन निवारणम्।। 2 ।। सर्वेषां पुनर्युद्धोद्यमः।। 3 ।।
धृतराष्ट्र उवाच। | 5-199-1x |
साङ्गा वेदा यथान्यायं येनाधीता महात्मना। यस्मिन्साक्षाद्धनुर्वेदो हीनिषेवे प्रतिष्ठितः।। | 5-199-1a 5-199-1b |
यस्य प्रसादात्कुर्वन्ति कर्माणि पुरुषर्षभाः। अमानुषाणि सङ्ग्रामे देवैरसुकराणि च।। | 5-199-2a 5-199-2b |
तस्मिन्नाक्रुश्यति द्रोणे समक्षं पापकर्मणा। नीचं कर्म कृतं तेन क्षुद्रेण गुरुघातिना।। | 5-199-3a 5-199-3b |
नामर्षं तत्र कुर्वन्ति धिक्क्षात्रं धिगमर्षिताम्।। | 5-199-4a |
पार्थाः सर्वे च राजानः पृथिव्यां ये धनुर्धराः। श्रुत्वा किमाहुः पाञ्चाल्यं तन्ममाचक्ष्व सञ्जय।। | 5-199-5a 5-199-5b |
सञ्जय उवाच। | 5-199-6x |
श्रुत्वा द्रुपदपुत्रस्य ता वाचः क्रूरकर्मणः। तूष्णीं बभूवू राजानः सर्व एव विशाम्पते।। | 5-199-6a 5-199-6b |
अर्जुनस्तु कटाक्षेण जिह्मं विप्रेक्ष्य पार्षतम्। सबाष्पमतिनिःश्वस्य धिग्धिगित्येव चाब्रवीत्।। | 5-199-7a 5-199-7b |
युधिष्ठिरश्च भीमश्च यमौ कृष्णस्तथाऽपरे। आसन्सुव्रीडिता राजन्सात्यकिस्त्वब्रवीदिदम्।। | 5-199-8a 5-199-8b |
नेहास्ति पुरुषः कश्चिद्य इमं पापपूरुषम्। भाषमाणमकल्याणं शीघ्रं हन्यान्नराधमम्।। | 5-199-9a 5-199-9b |
एते त्वां पाण्डवाः सर्वे कुत्सयन्ति विवित्सया। कर्मणा तेन पापेन श्वपाकं ब्राह्मणा इव।। | 5-199-10a 5-199-10b |
एतत्कृत्वा महत्पापं निन्दितः सर्वसाधुभिः। न लज्जसे कथं वक्तुं समितिं प्राप्य शोभनाम्।। | 5-199-11a 5-199-11b |
कथं च शतधा जिह्वा न ते मूर्धा च दीर्यते। गुरुमाक्रोशतः क्षुद्र न चाधर्मेण पात्यसे।। | 5-199-12a 5-199-12b |
वाच्यस्त्वमसि पार्थैश्च सर्वैश्चान्धकवृष्णिभिः। यत्कर्म कलुषं कृत्वा श्लाघसे जनसंसदि।। | 5-199-13a 5-199-13b |
अकार्यं तादृशं कृत्वा पुनरेव गुरुं क्षिपन्। वध्यस्त्वं न त्वयार्थोऽस्ति मुहूर्तमपि जीवता।। | 5-199-14a 5-199-14b |
कस्त्वेतद्व्यवसेत्पायं त्वदन्यः पुरुषाधम। निगृह्य केशेषु वधं गुरोर्धर्मात्मनः सतः।। | 5-199-15a 5-199-15b |
सप्तावरे तथा पूर्वे बान्धवास्ते निमञ्जिताः। यशसा च परित्यक्तास्त्वां प्राप्य कुलपांसनम्।। | 5-199-16a 5-199-16b |
उक्तवांश्चापि यत्पार्थे भीष्मं प्रति नरर्षभ। तथान्तो विहितस्तेन स्वयमेव महात्मना।। | 5-199-17a 5-199-17b |
तस्यापि तव सोदर्यो निहन्ता पापकृत्तमः। नान्यः पाञ्चालपुत्रेभ्यो विद्यते भुवि पापकृत्।। | 5-199-18a 5-199-18b |
स चापि सृष्टः पित्रा ते भीष्मस्यान्तकरः किल। शिखण्डी रक्षितस्तेन स च मृत्युर्महात्मनः।। | 5-199-19a 5-199-19b |
पाञ्चालाश्चलिता धर्मात्क्षुद्रा मित्रगुरुद्रुहः। त्वां प्राप्य सहसोदर्यं धिक्कृतं सर्वसाधुभिः।। | 5-199-20a 5-199-20b |
पुनश्चेदीदृशीं वाचं मत्समीपे वदिष्यसि। शिरस्ते पोथयिष्यामि गदया वज्रकल्पया।। | 5-199-21a 5-199-21b |
त्वां च ब्रह्महणं दृष्ट्वा जनः सूर्यमवेक्षते। ब्रह्महत्या हि ते पापं प्रायश्चित्तार्थमात्मनः।। | 5-199-22a 5-199-22b |
पाञ्चालक सुदुर्वृत्त ममैव गुरुमग्रतः। गुरोर्गुरुं च भूयोऽपि क्षिपन्नैव हि लज्जसे।। | 5-199-23a 5-199-23b |
तिष्ठतिष्ठ सहस्वैकं गदापातमिमं मम। तव चापि सहिष्येऽहं गदापाताननेकशः।। | 5-199-24a 5-199-24b |
सात्वतेनैवमाक्षिप्तः पार्षतः परुषाक्षरम्। संरब्धं सात्यकिं प्राह सङ्क्रुद्धः प्रहसन्निव।। | 5-199-25a 5-199-25b |
धृष्टद्युम्न उवाच। | 5-199-26x |
श्रूयतेश्रूयते चेति क्षम्यते चेति माधव। सदाऽनार्योऽशुभः साधुं पुरुषं क्षेप्तुमिच्छति।। | 5-199-26a 5-199-26b |
क्षमा प्रशस्यते लोके न तु पापोऽर्हति क्षमाम्। क्षमावन्तं हि पापात्मा जितोऽयमिति मन्यते।। | 5-199-27a 5-199-27b |
स त्वं क्षुद्रसमाचारो नीचात्मा पापनिश्चयः। आकेशाग्रान्नखाग्राच्च वक्तव्यो वक्तुमिच्छसि।। | 5-199-28a 5-199-28b |
`वरं हि ते मृतिः पाप न च ते चित्तमीदृशम्। श्रोतुं वक्तव्यतामूलं नीचाचाराश्च मानवाः। परान्क्षिपन्ति दोषेण स्वेषु दोषेष्वदृष्टयः'।। | 5-199-29a 5-199-29b 5-199-29c |
यः स भूरिश्रवाश्छिन्नभुजः प्रायगतस्त्वया। वार्यमाणेन हि हतस्ततः पापतरं नु किम्।। | 5-199-30a 5-199-30b |
प्रेषमाणो मया द्रोणो दिव्येनास्त्रेण संयुगे। विसृष्टशस्त्रो निहतः किं तत्र कुर दुष्कृतम्।। | 5-199-31a 5-199-31b |
अयुध्यमानं यस्त्वाजौ तथा प्रायगतं मुनिम्। छिन्नबाहुं परैर्हन्यात्सात्यके स कथं वदेत्।। | 5-199-32a 5-199-32b |
निहत्य त्वां पदा भूमौ स विकर्षति वीर्यवान्। किं तदा न निहंस्येनं भूत्वा पुरुषसत्तमः।। | 5-199-33a 5-199-33b |
त्वया पुनरनार्येण पूर्वं पार्थेन निर्जितः। यदा तदा हतः शूरः सौमदत्तिः प्रतापवान्।। | 5-199-34a 5-199-34b |
यत्रयत्र तु पाण्डूनां द्रोणो द्रावयते चमूम्। किरञ्छरसहस्राणि तत्रतत्र प्रयाम्यहम्।। | 5-199-35a 5-199-35b |
स त्वमेवंविधं कृत्वा कर्म चण्डालवत्स्वयम्। वक्तुमर्हसि वक्तव्यः कस्मात्त्वं परुषाण्यथ।। | 5-199-36a 5-199-36b |
कर्ता त्वं कर्मणो ह्यस्य नाहं वृष्णिकुलाधम। पापानां च त्वमावासः कर्मणां मा पुनर्वद।। | 5-199-37a 5-199-37b |
जोषमास्व न मां भूयो वक्तुमर्हस्यतः परम्। अधरोत्तरमेतद्वि यन्मां त्वं वक्तुमर्हसि।। | 5-199-38a 5-199-38b |
अथ वक्ष्यसि मां मौर्ख्याद्भूयः परुषमीदृशम्। गमयिष्यामि बाणैस्त्वां युधि वैवस्वतक्षयम्।। | 5-199-39a 5-199-39b |
न चैव मूर्ख धर्मेण केवलेनैव शक्यते। तेषामपि ह्यधर्मेण चेष्टितं शृणु यादृशम्।। | 5-199-40a 5-199-40b |
वञ्चितः पाण्डवः पूर्वमधर्मेण युधिष्ठिरः। द्रौपदी च परिक्लिष्टा तथाऽधर्मेण सात्यके।। | 5-199-41a 5-199-41b |
प्रव्राजिता वनं सर्वे पाण्डवाः सह कृष्णया। सर्वस्वमपकृष्टं च तथाऽधर्मेण बालिश।। | 5-199-42a 5-199-42b |
अधर्मेणापकृष्टश्च मद्रराजः परैरितः। अधर्मेण तथा बालः सौभद्रो विनिपातितः।। | 5-199-43a 5-199-43b |
इतोऽप्यधर्मेण हतो भीष्मः परपुरञ्जयः। भूरिश्रवा ह्यधर्मेण त्वया धर्मविदा हतः।। | 5-199-44a 5-199-44b |
एवं परैराचरितं पाण्डवेयैश्च संयुगे। रक्षमाणैर्जयं वीरैर्धर्मज्ञैरपि सात्वत।। | 5-199-45a 5-199-45b |
दुर्ज्ञेयः स परो धर्मस्तथाऽधर्मश्च दुर्विदः। युध्यस्व कौरवैः सार्धं मा गाः पितृनिवेशनम्।। | 5-199-46a 5-199-46b |
सञ्जय उवाच। | 5-199-47x |
एवमादीनि वाक्यानि क्रूराणि परुषाणि च। श्रावितः सात्यकिः श्रीमानाकम्पित इवाभवत्।। | 5-199-47a 5-199-47b |
तच्छ्रुत्वा क्रोधताम्राक्षः सात्यकिस्त्वाददे गदाम्। विनिः श्वस्य यथा सर्पः प्रणिधाय रथे धनुः।। | 5-199-48a 5-199-48b |
ततोऽभिपत्य पाञ्चाल्यं संरम्भेणेदमब्रवीत्। न त्वां वक्ष्यामि परुषं हनिष्ये त्वां वधक्षमम्।। | 5-199-49a 5-199-49b |
तमापतन्तं सहसा महाबलममर्षणम्। पाञ्चाल्यायाभिसङ्क्रुद्धमन्तकायान्तकोपमम्।। | 5-199-50a 5-199-50b |
चोदितो वासुदेवेन भीमसेनो महाबलः। अवप्लुत्य रथात्तूर्णं बाहुभ्यां समवारयत्।। | 5-199-51a 5-199-51b |
द्रवमाणं तथा क्रुद्धं सात्यकिं पाण्डवो बली। प्रस्पन्दमानमादाय जगाम बलिनं बलात्।। | 5-199-52a 5-199-52b |
स्थित्वा विष्टभ्य चरणौ भीमेन शिनिपुङ्गवः। निगृहीतः पदे षष्ठे बलेन बलिनां वरः।। | 5-199-53a 5-199-53b |
अवरुह्य रथात्तूर्णं ध्रियमाणं बलीयसा। उवाच श्लक्ष्णया वाचा सहदेवो विशाम्पते।। | 5-199-54a 5-199-54b |
अस्माकं पुरुषव्याघ्र मित्रमन्यन्न विद्यते। परमन्धकवृष्णिभ्यः पाञ्चलेभ्यश्च मारिष।। | 5-199-55a 5-199-55b |
तथैवान्धकवृष्णीनां तथैव च विशेषतः। कृष्णस्य च तथाऽस्मत्तो मित्रमन्यन्न विद्यते।। | 5-199-56a 5-199-56b |
पाञ्चालानां च वार्ष्णेय समुद्रान्तां विचिन्वताम्। नान्यदस्ति परं मित्रं यथा पाण्डववृष्णयः।। | 5-199-57a 5-199-57b |
स भवानीदृशं मित्रं मन्यते च यथा भवान्। भवन्तश्च यथाऽस्माकं भवतां च तथा वयम्।। | 5-199-58a 5-199-58b |
स एवं सर्वधर्मज्ञ मित्रधर्ममनुस्मरन्। नियच्छ मन्युं पाञ्चाल्यात्प्रशाम्य शिनिपुङ्गवा।। | 5-199-59a 5-199-59b |
पार्षतस्य क्षम त्वं वै क्षमतां पार्षतश्च ते। वयं क्षमयितारश्च किमन्यत्र शमाद्भवेत्।। | 5-199-60a 5-199-60b |
प्रशाम्यमाने शैनेये सहदेवेन मारिष। पाञ्चालराजस्य सुतः प्रहसन्निदमब्रवीत्।। | 5-199-61a 5-199-61b |
मुञ्चमुञ्च शिनेः पौत्रं भीम युद्धमदान्वितम्। आसादयतु मामेष धराधरमिवानिलः।। | 5-199-62a 5-199-62b |
यावदस्य शितैर्बाणैः संरम्भं विनयाम्यहम्। युद्धश्रुद्धां च कौन्तेय जीवितं चास्य संयुगे।। | 5-199-63a 5-199-63b |
किं नु शक्यं मया कर्तुं यत्कार्यमिदमुच्यताम्। सुमहत्पाण्डुपुत्राणामायान्त्येते हि कौरवाः।। | 5-199-64a 5-199-64b |
अथवा फल्गुनः सर्वान्वारयिष्यति संयुगे। अहमप्यस्य मूर्धानं पातयिष्यामि सायकैः।। | 5-199-65a 5-199-65b |
मन्यते च्छिन्नबाहुं मां भूरिश्रवसमाहवे। उत्सृजैनमहं चैनमेष वा मां हनिष्यति।। | 5-199-66a 5-199-66b |
शृण्वन्पाञ्चालवाक्यानि सात्यकिः सर्पवच्छ्वसन्। भीमबाह्वन्तरे सक्तो विस्फुरत्यनिशं बली।। | 5-199-67a 5-199-67b |
तौ वृषाविव नर्दन्तौ बलिनौ बाहुशालिनौ। त्वरया वासुदेवश्च धर्मराजश्च मारिष। यत्नेन महता वीरौ वारयामासतुस्ततः।। | 5-199-68a 5-199-68b 5-199-68c |
निवार्य परमेष्वासौ कोपसंरक्तलोचनौ। युयुत्सूनपरान्सङ्ख्ये प्रतीयुः क्षत्रियर्षभाः।। | 5-199-69a 5-199-69b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि नारायणास्त्रमोक्षपर्वणि पञ्चदशदिवसयुद्धे एकोनद्विशततमोऽध्यायः।। 199 ।। |
द्रोणपर्व-198 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-200 |