महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-106
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द्रोणयुधिष्ठिरयोर्युद्धम्।। 1 ।।
धृतराष्ट्र उवाच। | 5-106-1x |
अर्जुने सैन्धवं प्राप्ते भारद्वाजेन संवृताः। पाञ्चालाः कुरुभिः सार्धं किमकुर्वत स़ञ्जय।। | 5-106-1a 5-106-1b |
सञ्जय उवाच। | 5-106-2x |
अपराह्णे महाराज सङ्ग्रमे रोमहर्षणे। पाञ्चालानां कुरूणां च द्रोणद्यूतमवर्तत।। | 5-106-2a 5-106-2b |
पाञ्चाला हि जिघांसन्तो द्रोणं संहृष्टचेतसः। अभ्यमुञ्चन्त गर्जन्तः शरवर्षाणि मारिष।। | 5-106-3a 5-106-3b |
ततस्तुल तुमुलस्तेषां सङ्ग्रामोऽवर्तताद्भुतः। पाञ्चालानां कुरूणां च घोरो देवासुरोपमः।। | 5-106-4a 5-106-4b |
सर्वे द्रोणरथं प्राप्य पाञ्चालाः पाण्डवैः सह। तदनीकं बिभित्सन्तो महास्त्राणि व्यदर्शयन्।। | 5-106-5a 5-106-5b |
द्रोणस्य रथपर्यन्तं रथिनो रथमास्थिताः। कम्पयन्तोऽभ्यवर्तन्त वेगमास्थाय मध्यमम्।। | 5-106-6a 5-106-6b |
तमभ्ययाद्बृहत्क्षत्रः केकयानां महारथः। विमुञ्चन्निशितान्बाणान्महेन्द्राशनिसन्निभान्।। | 5-106-7a 5-106-7b |
तं तु प्रत्युद्ययौ शीघ्रं क्षेमधूर्तिर्महायशाः। विमुञ्चन्निशितान्बाणाञ्शतशोऽथ सहस्रशः।। | 5-106-8a 5-106-8b |
धृष्टकेतुश्च चेदीनामृषभोऽतिबलोदितः। त्वरितोऽभ्यद्रवद्द्रोणं महेन्द्रमिव शम्बरः।। | 5-106-9a 5-106-9b |
तमापतन्तं सहसा व्यादितास्यमिवान्तकम्। वीरधन्वा महेष्वासस्त्वरमाणः समभ्ययात्।। | 5-106-10a 5-106-10b |
युधिष्ठिरं महाराजं जिगीषुं समवस्थितम्। सहानीकं ततो द्रोणो न्यवारयत वीर्यवान्।। | 5-106-11a 5-106-11b |
नकुलं कुशलं युद्धे पराक्रन्तं पराक्रमी। अभ्यगच्छत्समायान्तं विकर्णस्ते सुतः प्रभो।। | 5-106-12a 5-106-12b |
सहदेवं तथाऽऽयान्तं दुर्मुखः शत्रुकर्शनः। शैररनेकसाहस्रैः समवाकिरदाशुगैः।। | 5-106-13a 5-106-13b |
सात्यकिं तु नरव्याघ्रं व्याघ्रदत्तस्त्ववारयत्। शरैः सुनिशितैस्तीक्ष्णैः कम्पयन्वै मुहुर्मुहुः।। | 5-106-14a 5-106-14b |
द्रौपदेयान्नरव्याघ्रान्मुञ्चतः सायकोत्तमान्। संरब्धान्रथिनः श्रेष्ठान्सौमदत्तिरवारयत्।। | 5-106-15a 5-106-15b |
भीमसेनं तदा क्रुद्धं भीमरूपो भयानकः। प्रत्यवारयदायान्तमार्श्यशृङ्गिर्महाबलः।। | 5-106-16a 5-106-16b |
तयोः समभवद्युद्धं नरराक्षसयोर्मृधे। यादृगेव पुरावृत्तं रामरावणयोर्नृप।। | 5-106-17a 5-106-17b |
ततो युधिष्ठिरो द्रोणं नवत्या नतपर्वणाम्। आजघ्ने भरतश्रेष्ठः सर्वमर्मसु भारत।। | 5-106-18a 5-106-18b |
तं द्रोणः पञ्चविंशत्या निजघान स्तनान्तरे। रोषितो भरतश्रेष्ठ कौन्तेयेन यशस्विना।। | 5-106-19a 5-106-19b |
अदृश्यं समरे चक्रे राजानं सायकोत्तमैः। साश्वसूतध्वजं द्रोणः पश्यतां सर्वधन्विनाम्।। | 5-106-20a 5-106-20b |
ताञ्शरान्द्रोणमुक्तांस्तु शरवर्षेण पाण्डवः। अवारयत धर्मात्मा दर्शयन्पाणिलाघवम्।। | 5-106-21a 5-106-21b |
ततो द्रोणो भृशं क्रुद्धो दर्मराजस्य संयुगे। चिच्छेद समरे धन्वी धनुस्तस्य महात्मनः।। | 5-106-22a 5-106-22b |
अथैनं छिन्नधन्वानं त्वरमाणो महारथः। शरैरनेकसाहस्रैः पूरयामास सर्वतः।। | 5-106-23a 5-106-23b |
अदृश्यं वीक्ष्य राजानं भारद्वाजस्य सायकैः। सर्वभूतान्यमन्यन्त हतमेव युधिष्ठिरम्।। | 5-106-24a 5-106-24b |
केचिच्चैनममन्यन्त तथैव विमुखीकृतम्। हृतो राजेति राजेन्द्र ब्राह्मणेन महात्मना।। | 5-106-25a 5-106-25b |
स कृच्छ्रं परमं प्राप्तो धर्मराजो युधिष्ठिरः। त्यक्त्वा तत्कार्मुकं छिन्नं भारद्वाजेन संयुगे। आददेऽन्यद्धनुर्दिव्यं भारघ्नं वेगवत्तरम्।। | 5-106-26a 5-106-26b 5-106-26c |
ततस्तान्सायकांस्तत्र दोणनुन्नान्सहस्रशः। चिच्छेद समरे वीरस्तदद्भुतमिवाभवत्।। | 5-106-27a 5-106-27b |
छित्त्वा तु ताञ्शरान्राजक्रोधसंरक्तलोचनः। शक्तं जग्राह समरे गिरीणामपि दारिणीम्। स्वर्णदण्डां महाघोरामष्टघण्टां भयावहाम्।। | 5-106-28a 5-106-28b 5-106-28c |
समुत्क्षिप्य च तां हृष्टो ननाद बलवद्बली। नादेन सर्वभूतानि त्रासयन्निव भारत।। | 5-106-29a 5-106-29b |
शक्तिं समुद्यतां दृष्ट्वा धर्मराजेन संयुगे। स्वस्ति द्रोणाय सहसा सर्वभूतान्यथाब्रुवन्।। | 5-106-30a 5-106-30b |
सा राजभुजनिर्मुक्ता निर्मुक्तोरगसन्निभा। प्रज्वालयन्ती गगनं दिशः सप्रदिशस्तथा। द्रोणान्तिकमनुप्राप्ता दीप्तास्या पन्नगी यथा।। | 5-106-31a 5-106-31b 5-106-31c |
तामापतन्तीं सहसा दृष्ट्वा द्रोणो विशाम्पते। प्रादुश्चक्रै ततो ब्राह्ममस्त्रमस्त्रविदां वरः।। | 5-106-32a 5-106-32b |
तदस्त्रं भस्मसात्कृत्वा तां शक्तिं घोरदर्शनाम्। जगाम स्यन्दनं तूर्णं पाण्डवस्य यशस्विनः।। | 5-106-33a 5-106-33b |
ततो युधिष्ठिरो राजा द्रोणास्त्रं तत्समुद्यतम्। अशामयन्महाप्राज्ञो ब्रह्मास्त्रेणैव मारिष।। | 5-106-34a 5-106-34b |
विद्व्वा तं च रणे द्रोणं पञ्चभिर्नतपर्वभिः। क्षुरप्रेण सुतीक्ष्णेन चिच्छेदास्य महद्धनुः।। | 5-106-35a 5-106-35b |
तदपास्य धनुश्छिन्नं द्रोणः क्षत्रियमर्दनः। गदां चिक्षेप सहसा धर्मपुत्राय मारिष।। | 5-106-36a 5-106-36b |
तामापतन्तीं सहसा गदां दृष्ट्वा युधिष्ठिरः। गदामेवाग्रहीत्क्रुद्धश्चिक्षेप च परन्तप।। | 5-106-37a 5-106-37b |
ते गदे सहसा मुक्ते समासाद्य परस्परम्। सङ्घर्षात्पावकं मुक्त्वा समेयातां महीतले।। | 5-106-38a 5-106-38b |
ततो द्रोणो भृशं क्रुद्धो धर्मराजस्य मारिष। चतुर्भिर्निशितैस्तीक्ष्णैर्हयाञ्जघ्ने शरोत्तमैः।। | 5-106-39a 5-106-39b |
चिच्छेदैकेन भल्लेन धनुश्चेन्द्रध्वजोपमम्। केतुमेकेन चिच्छेद पाण्डवं चार्दयत्त्रिभिः।। | 5-106-40a 5-106-40b |
हताश्वात्तुल रथात्तूर्णमवप्लुत्य युधिष्ठिरः। तस्थावूर्ध्वभुजो राजा व्यायुधो भरतर्षभ।। | 5-106-41a 5-106-41b |
विरथं तं समालोक्य व्यायुधं च विशेषतः। द्रोणो व्यमोहयच्छत्रून्सर्वसैन्यानि चाभिभो।। | 5-106-42a 5-106-42b |
मुञ्चंश्चेषुगणांस्तीक्ष्णाँल्लघुहस्तो दृढव्रतः। अभिदुद्राव राजानं सिंहो मृगमिवोल्बणः।। | 5-106-43a 5-106-43b |
तमभिद्रुतमालोक्य द्रोणेनामित्रघातिना। हाहेति सुमहाञ्शब्दः पाण्डूनां समजायत।। | 5-106-44a 5-106-44b |
हृतो राजा हृतो राजा भारद्वाजेन मारिष। इत्यांसीत्सुमहाञ्शब्दः पाण्डूसैन्यस्य सर्वतः।। | 5-106-45a 5-106-45b |
ततस्त्वरितमारुह्य सहदेवरथं नृपः। अपायाज्जवनैरश्वैः कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।। | 5-106-46a 5-106-46b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे षडधिकशततमोऽध्यायः।। 106 ।। |
5-106-2 द्रोणे युद्धमवर्तत क. ङ. पाठः। घोरं युद्धमवर्तत इति ट.पाठः।। 5-106-6 कम्पयन्तो भुवमिति शेषः।। 5-106-15 सौमदत्तिः शलः।। 5-106-25 इतो राजेति अमन्यन्तेत्यनुषङ्गः।। 5-106-106 ष़डधिकशततमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-105 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-107 |