महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-091
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अर्जुनस्य व्यूहमुखस्थेन द्रोणेन कञ्चित्कालं युद्ध्वा तमपहाय व्यूहप्रवेशः।। 1 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-91-1x |
दुःशसनबलं हत्वा सव्यसाची महारथः। सिन्धुराजं परीप्सन्वै द्रोणानीकमुपाद्रवत्।। | 5-91-1a 5-91-1b |
स तु द्रोणं समासाद्य व्यूहस्य प्रमुखे स्थितम्। कृताञ्जलिरिदं वाक्यं कृष्णस्यानुमतेऽब्रवीत्।। | 5-91-2a 5-91-2b |
शिवेन ध्याहि मां ब्रह्मन्स्वस्ति चैव वदस्व मे। भवत्प्रसादादिच्छामि प्रवेष्टं दुर्भिदां चमूम्।। | 5-91-3a 5-91-3b |
भवान्पितृसमो मह्यं धर्मराजसमोऽपि च। धौम्यकृष्णसमश्चैव सत्यमेतद्ब्रवीमि ते।। | 5-91-4a 5-91-4b |
अश्वत्थामा यथा तात रक्षणीयस्त्वयाऽनघ। तथाऽहमपि ते रक्ष्यः सदैव द्विजसत्तम।। | 5-91-5a 5-91-5b |
तव प्रसादादिच्छेयं सिन्धुराजानमाहवे। निहन्तुं द्विपदां श्रेष्ठ प्रतिज्ञां रक्ष मे प्रभो।। | 5-91-6a 5-91-6b |
सञ्जय उवाच। | 5-91-7x |
एवमुक्तस्तदाऽऽचार्यः प्रत्युवाच स्मयन्निव। मामजित्वा न बीभत्सो शक्यो जेतुं जयद्रथः।। | 5-91-7a 5-91-7b |
एतावदुक्त्वा तं द्रोणः शरव्रातैरवाकिरत्। सरथाश्वध्वजं तीक्ष्णैः प्रहसन्वै ससारथिम्।। | 5-91-8a 5-91-8b |
ततोऽर्जुनः शरव्रातान्द्रोणस्यावार्य सायकैः। द्रोणमभ्यर्दयद्बाणैर्घोररूपैर्हत्तरैः।। | 5-91-9a 5-91-9b |
विव्याध च रणे द्रोणमनुमान्य विशाम्पते। क्षत्रधर्मं समास्थाय नवभिः सायकैः पुनः।। | 5-91-10a 5-91-10b |
तस्येषूनिषुभिश्छित्त्वा द्रोणो विव्याध तावुभौ। विषाग्निज्वलितप्रख्यैरिषुभिः कृष्णपाण्डवौ।। | 5-91-11a 5-91-11b |
इयेप पाण्डवस्तस्य बाणैश्छेत्तुं शरासनम्। तस्य चिन्तयतस्त्वेव फल्गुनस्य महात्मनः।। | 5-91-12a 5-91-12b |
द्रोणः शरैरसम्भ्रान्तो ज्यां चिच्छेदाशु वीर्यवान्। विव्याध च हयानस्य ध्वजं सारथिमेव च।। | 5-91-13a 5-91-13b |
अर्जुनं च शरैर्वीरः स्मयमानोऽभ्यवाकिरत्। एतस्मिन्नन्तरे पार्थः सज्यं कृत्वा महद्धनुः।। | 5-91-14a 5-91-14b |
विशेषयिष्यन्नाचार्यं सर्वास्त्रविदुषां वरः। मुमोच षट्शतान्बाणान्गृहीत्वैकमिव द्रुतम्।। | 5-91-15a 5-91-15b |
पुनः सप्तशतानन्यान्सहस्रं चानिवर्तिनः। चिक्षेपायुतशश्चान्यांस्तेऽघ्नन्द्रोणस्य तां चमूम्।। | 5-91-16a 5-91-16b |
तैः सम्यगस्तैर्बलिना कृतिना चित्रयोधिना। मनुष्यवाजिमातङ्गा विद्धाः पेतुर्गतासवः।। | 5-91-17a 5-91-17b |
विसूताश्वध्वजाः पेतुः सञ्छिन्नायुधजीविताः। रथिनो रथमुख्येभ्यः सहसा शरपीडिताः।। | 5-91-18a 5-91-18b |
चूर्णिताक्षिप्तदग्धानां वज्रानिलहुताशनैः। तुल्यरूपा गजाः पेतुर्गिर्यग्राम्बुदवेश्मनाम्।। | 5-91-19a 5-91-19b |
पेतुरश्वसहस्राणि प्रहतान्यर्जुनेषुभिः। हंसा हिमवतः पृष्ठे वारिविप्रहता इव।। | 5-91-20a 5-91-20b |
रथाश्वद्विपपत्त्योघाः सलिलौघा इवाद्भुताः। युगान्तादित्यरश्म्याभैः पाण्डवास्त्रशरैर्हताः।। | 5-91-21a 5-91-21b |
तं पाण्डवादित्यशरांशुजालं कुरुप्रवीरान्युधि निष्टपन्तम्। स द्रोणमेघः शरवृष्टिवेगैः प्राच्छादयन्मेघ इवार्करश्मीन्।। | 5-91-22a 5-91-22b 5-91-22c 5-91-22d |
अथात्यर्थं विसृष्टेन द्विषतामसुभोजिना। आजघ्ने वक्षसि द्रोणो नाराचेन धनञ्जयम्।। | 5-91-23a 5-91-23b |
स विह्वलितसर्वाङ्गः क्षितिकम्पे यथाऽचलः। धैर्यमालम्ब्य बीभत्सुर्द्रोणं विव्याध पत्रिभिः।। | 5-91-24a 5-91-24b |
द्रोणस्तु पञ्चभिर्बाणैर्वासुदेवमताडयत्। अर्जुनं च त्रिसप्तत्या ध्वजं चास्य त्रिभिः शरैः।। | 5-91-25a 5-91-25b |
विशेषयिष्यञ्शिष्यं च द्रोणो राजन्पराक्रमी। अदृश्यमर्जुनं चक्रे निमेषाच्छरवृष्टिभिः।। | 5-91-26a 5-91-26b |
प्रसक्तान्पततोऽद्राक्ष्म भारद्वाजस्य सायकान्। मण्डलीकृतमेवास्य धनुश्चादृश्यताद्भुतम्।। | 5-91-27a 5-91-27b |
तेऽभ्ययुः समरे राजन्वासुदेवधनञ्जयौ। द्रोणसृष्टाः सुबहवः कङ्कपत्रपरिच्छदाः।। | 5-91-28a 5-91-28b |
तत्राद्भुतमपश्याम शिलानामिव सर्पणम्। यद्द्रोणं तरसा पार्थो वृद्धं बालोऽपि नातरत्।। | 5-91-29a 5-91-29b |
चिन्तयामास वार्ष्णेयो दृष्ट्वा द्रोणस्य विक्रमम्। नातिवर्तिष्यते ह्योनं वेलामिव महार्णवः।। | 5-91-30a 5-91-30b |
ततः पार्थं समुद्विग्नं लक्ष्य चिन्तयतेऽच्युतः। द्रोणस्य चापि विक्रान्तं दृष्ट्वा मधुनिषूदनः। इत्यब्रवीद्वासुदेवो धनञ्जयमुदारधीः।। | 5-91-31a 5-91-31b 5-91-31c |
पार्थपार्थ महाबाहो न नः कालात्ययो भवेत्। द्रोणमुत्सृज्य गच्छामो ब्राह्मणोऽसौ गतक्लमः।। | 5-91-32a 5-91-32b |
सञ्जय उवाच। | 5-91-33x |
पार्थश्चाप्यब्रवीत्कृष्णं यथेष्टमिति केशवम्।। | 5-91-33a |
ततः प्रदक्षिणं कृत्वा द्रोणं प्रायान्महाभुजम्। परिवृत्तश्च बीभत्सुरगच्छद्विसृजञ्शरान्।। | 5-91-34a 5-91-34b |
ततोऽब्रवीत्स्वयं द्रोणः क्वेदं पाण्डव गम्यते। ननु नाम रणे शत्रुमजित्वा न निवर्तसे।। | 5-91-35a 5-91-35b |
अर्जुन उवाच। | 5-91-36x |
गुरुर्भवान्न मे शत्रुः शिष्यः पुत्रसमोऽस्मि ते। न चास्ति स पुमाँल्लोके यस्त्वां युधि पराजयेत्।। | 5-91-36a 5-91-36b |
सञ्जय उवाच। | 5-91-37x |
एवं ब्रुवाणो बीभत्सुर्जयद्रथवधोत्सुकः। त्वरायुक्तो महाबाहुस्त्वत्सैन्यं समुपाद्रवत्।। | 5-91-37a 5-91-37b |
तं चक्ररक्षौ पाञ्चाल्यौ युधामन्यूत्तमौजसौ। अन्वयातां महात्मानौ विशन्तं तावकं बलम्।। | 5-91-38a 5-91-38b |
ततो जयो महाराज कृतवर्मा च सात्वतः। काम्भोजश्च श्रुतायुश्च धनञ्जयमवारयन्।। | 5-91-39a 5-91-39b |
तेषां दशसहस्राणि रथानामनुयायिनाम्। अभीषाहाः शूरसेनाः शिबयोऽथ वसातयः।। | 5-91-40a 5-91-40b |
मावेल्लका ललित्थाश्च केकया मद्रकास्तथा। नारायणाश्च गोपालाः काम्भोजानां च ये गणाः।। | 5-91-41a 5-91-41b |
कर्णेन विजिताः पूर्वं सङ्ग्रामे शूरसम्मताः। भारद्वाजं पुरस्कृत्य हृष्टात्मानोऽर्जुनं प्रति।। | 5-91-42a 5-91-42b |
पुत्रशोकाभिसन्तप्तं क्रुद्धं मृत्युमिवान्तकम्। त्यजन्तं तुमुले प्राणान्सन्नद्धं चित्रयोधिनम्।। | 5-91-43a 5-91-43b |
गाहमानमनीकानि मातङ्गमिव यूथपम्। महेष्वासं पराक्रान्तं नरव्याघ्रमवारयन्।। | 5-91-44a 5-91-44b |
ततः प्रववृते युद्धं तुमुलं रोमहर्षणम्। अन्योन्यं वै प्रार्थयतां योधानामर्जुनस्य च।। | 5-91-45a 5-91-45b |
जयद्रथवधप्रेप्सुमायान्तं पुरुषर्षभम्। न्यवारयन्त सहिताः क्रिया व्याधिमिवोत्थितं।। | 5-91-46a 5-91-46b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशोदिसयुद्धे एकनवतिततमोऽध्यायः।। 91 ।। |
5-91-19 गिर्यग्राम्बुदवेश्मनां वज्रानिलहुताशनैः चूर्णिताक्षिप्तदग्धानां इति यथासङ्ख्येनान्वयः।। 5-91-91 एकनवतितमोऽध्यायः।।
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