महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-041
दिखावट
← द्रोणपर्व-040 | महाभारतम् सप्तमपर्व महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-041 वेदव्यासः |
द्रोणपर्व-042 → |
|
अभिमन्युपराक्रमवर्णनम्।। 1 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-41-1x |
सोऽभ्यगच्छद्धनुष्पाणिर्ज्यां विकर्षन्पुनः पुनः। सच्छत्रध्वजयन्तारं साश्वमाशु स्मयन्निव।। | 5-41-1a 5-41-1b |
सोऽपिध्यद्दशभिर्बाणैरभिमन्युं दुरासदम्। सच्छत्रध्वजयन्तारं साश्वमाशु स्मयन्निव।। | 5-41-2a 5-41-2b |
पितृपैतामहं कर्म कुर्वाणमतिमानुषम्। दृष्ट्वार्दितं शरैः कार्ष्मिं त्वदीया हृषिताऽभवन्।। | 5-41-3a 5-41-3b |
तस्याभिमन्युरायम्य स्मयन्नेकेन पत्रिणा। शिरः प्रच्यावयामास तद्रथात्प्रापतद्भुवि।। | 5-41-4a 5-41-4b |
कर्णिकारमिवाधूतं वातेनापतितं नगात्। `कर्णानुजं च सम्प्रेक्ष्य तावका व्यथिताऽभवन्'। भ्रातरं निहतं दृष्ट्वा कर्णश्चासीत्पराङ्मुखः।। | 5-41-5a 5-41-5b 5-41-5c |
विमुखीकृत्य कर्णं तु सौभद्रः कङ्कपत्रिभिः। अन्यानपि महेष्वासांस्तूर्णमेवाभिदुद्रुवे।। | 5-41-6a 5-41-6b |
ततस्तद्विततं सेन्यं हस्त्यश्वरथपत्तिमत्। क्रद्धोऽभिमन्युरभिनत्तिग्मतेजा महारथः।। | 5-41-7a 5-41-7b |
कर्णस्तु बहुभिर्बाणैरर्द्यमानोऽभिमन्युना। अपायाज्जवनैरश्वैस्ततोऽनीकमभिद्रवत्।। | 5-41-8a 5-41-8b |
`तिंष्ठ कर्ण महेष्वास कृप दुर्योधनेति च। द्रोणस्य क्रोशतो राजंस्तदनीकमभज्यत'।। | 5-41-9a 5-41-9b |
शलभैरिव चाकाशं धाराभिरिव पर्वतः। अभिमन्यो शरैश्छन्नं न प्राज्ञायत किञ्चन।। | 5-41-10a 5-41-10b |
तावकानां तु योधानां वध्यतां निशितैः शरैः। अन्यत्र सैन्धवाद्राजन्न स्म कश्चिदतिष्ठत।। | 5-41-11a 5-41-11b |
सौभद्रस्तु ततः शङ्खं प्रध्माय पुरुषर्षभः।। शीघ्रमभ्यपतत्सेनां भारतीं भरतर्षभ।। | 5-41-12a 5-41-12b |
स कक्षेऽग्निरिवोत्सृष्टो निर्दहंस्तरसा रिपून्। मध्ये भारतसैन्यानामार्जुनिः पर्यवर्तत।। | 5-41-13a 5-41-13b |
रथनागाश्वमनुजानर्दयन्निशितैः शरैः। सम्प्रविश्याकरोद्भूमिं कबन्धगणसङ्कुलाम्।। | 5-41-14a 5-41-14b |
सौभद्रचापप्रभवैर्निकृत्ताः परमेषुभिः। स्वानेवाभिमुखान्ध्नन्तः प्राद्रवञ्जीवितार्थिनः।। | 5-41-15a 5-41-15b |
ते घोरा रौद्रकर्माणो विपाठा बहवः शिताः। निघ्न्तो रथनागाश्वाञ्जग्मुराशु वसुन्धराम्।। | 5-41-16a 5-41-16b |
सायुधाः साङ्गुलित्राणाः सगदाः साङ्गदा रणे। दृश्यन्ते बाहवश्चिन्ना हेमाभारणभूषिताः।। | 5-41-17a 5-41-17b |
शराश्चापानि खङ्गाश्च शरीराणि शिरांसि च। सकुण्डलानि स्रग्वीणि भूमावासन्सहस्रशः।। | 5-41-18a 5-41-18b |
सोपस्करैरधिष्ठानैरीषादण्डकबन्धुरैः। अक्षैर्विमथितैश्चक्रैर्बहुधा पतितैर्युगैः।। | 5-41-19a 5-41-19b |
शक्तिचापासिभिश्चैव पतितैश्च महाध्वजैः। चर्मचापशरैश्चैव व्यवकीर्णैः समन्तततः।। | 5-41-20a 5-41-20b |
निहतैः क्षत्रियैरश्वैर्वारणैश्च विशाम्पते। अगम्यरूपा पृथिवी क्षणेनासीत्सुदारुणा।। | 5-41-21a 5-41-21b |
वध्यतां राजपुत्राणां क्रन्दतामितरेतरम्। प्रादुरासीन्महाशब्दो भीरूणां भयवर्धनः।। | 5-41-22a 5-41-22b |
स शब्दो भरतश्चेष्ठ दिशः सर्वा व्यनादयत्।। सौभद्रश्चाद्रवत्सेनां घ्नन्वराश्वरथद्विपान्।। | 5-41-23a 5-41-23b |
कक्षमग्निरिवोत्सृष्टो निर्दहंस्तरसा रिपून्। मध्ये भारतसैन्यानामार्जुनिः प्रत्यदृश्यत।। | 5-41-24a 5-41-24b |
विचरन्तं दिशः सर्वाः प्रदिशश्चापि भारत। तं तदा नानुपश्यामः सैन्ये च रजसाऽऽवृते।। | 5-41-25a 5-41-25b |
आददानं गजाश्वानां णां चायुंषि भारत। क्षमेन भूयः पश्यामः सूर्यं मध्यंदिने यथा।। | 5-41-26a 5-41-26b |
अभिमन्युं महाराज प्रतपन्तं द्विषद्गणान्। स वासवसमः सङ्ख्ये वासवस्यात्मजात्मजः।। | 5-41-27a 5-41-27b |
अभिमन्युर्महाराज सैन्यमध्ये व्यरोचत। `यथा पुरा वह्निसुतः सुरसैन्येषु वीर्यवान्'।। | 5-41-28a 5-41-28b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि त्रयोदशदिवसयुद्धे एकचत्वारिंशोऽध्यायः।। 41 ।। |
द्रोणपर्व-040 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-042 |