महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-196
← द्रोणपर्व-195 | महाभारतम् सप्तमपर्व महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-196 वेदव्यासः |
द्रोणपर्व-197 → |
|
अश्वत्थाम्ना सक्रोधं युधिष्ठिराद्युपालभ्यः।। 1 ।। तथा द्रोणस्य नारायणास्त्रलाभप्रकारादिकथनपूर्वकं तेन पाण्डवादिवध प्रतिज्ञानम्।। 2 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-196-1x |
छद्मना निहतं श्रुत्वा पितरं पापकर्मणा। बाष्पेणापूर्यत द्रौणी रोषेण च नरर्षभ।। | 5-196-1a 5-196-1b |
तस्य क्रुद्धस्य राजेन्द्र वपुर्दीप्तमदृश्यत। अन्तकस्येव भूतानि जिहीर्षोः कालपर्यये।। | 5-196-2a 5-196-2b |
अश्रूपुर्णे ततो नेत्रे व्यपमृज्य पुनः पुनः। उवाच कोपान्निःश्वस्य दुर्योधनमिदं वचः।। | 5-196-3a 5-196-3b |
पिता मम यथा क्षुद्रैर्न्यस्तशस्त्रो निपातितः। धर्मध्वजवता पापं कृतं तद्विदितं मम। अनार्यं सुनृशंसं च धर्मपुत्रस्य मे श्रुतम्।। | 5-196-4a 5-196-4b 5-196-4c |
युद्धेष्वपि प्रवृत्तानां ध्रुवं जयपराजयौ। द्वयमेतद्भवेद्राजन्वधस्तत्र प्रशस्यते।। | 5-196-5a 5-196-5b |
न्यायवृत्तो वधो यस्तु संङ्ग्रामे युध्यतो भवेत्। न स दुःखाय भवति तथा दृष्टो हि स द्विजैः।। | 5-196-6a 5-196-6b |
गतः स वीरलोकाय पिता मम न संशयः। न शोच्यः पुरुषव्याघ्र यस्तदा निधनं गतः।। | 5-196-7a 5-196-7b |
यत्तु धर्मप्रवृतः सन्केशग्रहणमाप्तवान्। पश्यतां सर्वसैन्यानां तन्मे मर्माणि कृन्तति।। | 5-196-8a 5-196-8b |
मयि जीवति यत्तातः केशग्रहमवाप्तवान्। कथमन्ये करिष्यन्ति पुत्रेभ्यः पुत्रिणः स्पृहाम्।। | 5-196-9a 5-196-9b |
कामात्क्रोधादविज्ञानाद्वर्षाद्बाल्येन वा पुनः। विधर्मकाणि कुर्वन्ति तथा परिभवन्ति च।। | 5-196-10a 5-196-10b |
तदिदं पार्षतेनेह महदाधर्मिकं कृतम्। अवज्ञाय च मां नूनं नृशंसेन दुरात्मना।। | 5-196-11a 5-196-11b |
तस्यानुबन्धं द्रष्टाऽसौ धृष्टद्युम्नः सुदारुणम्। अकार्यं परमं कृत्वा मिथ्यावादी च पाण्डवः।। | 5-196-12a 5-196-12b |
यो ह्यसौ छद्मनाऽऽचार्यं शस्त्रं सन्न्यासयत्तदा। तस्याद्य धर्मराजस्य भूमिः पास्यति शोणितम्।। | 5-196-13a 5-196-13b |
शपे सत्येन कौरव्य इष्टापूर्तेन चैव ह। अहत्वा सर्वपाञ्चालाञ्जीवेयं न कथञ्चन।। | 5-196-14a 5-196-14b |
सर्वोपायैर्यतिष्यामि पाञ्चालानामहं वधे। धृष्टद्युम्नं च समरे हन्ताऽहं पापकारिणम्।। | 5-196-15a 5-196-15b |
कर्मणा येन तेनेह मृदुना दारुणेन च। पाञ्चालानां वधं कृत्वा शान्तिं लब्धास्मि कौरव।। | 5-196-16a 5-196-16b |
यदर्थं पुरुषव्याघ्र पुत्रानिच्छन्ति मानवाः। प्रेत्य चेह च सम्प्राप्तात्त्रायन्ते महतो भयात्।। | 5-196-17a 5-196-17b |
पित्रा तु मम साऽवस्था प्राप्ता निर्बन्धुना यथा। मयि शैलप्रतीकाशे पुत्रे शिष्ये च जीवति।। | 5-196-18a 5-196-18b |
धिङ्ममास्त्राणि दिव्यानि धिग्बाहू धिक्पराक्रमम्। यं स्म द्रोणः सुतं प्राप्य केशग्रहमवाप्तवान्।। | 5-196-19a 5-196-19b |
स तथाहं करिष्यासि यथा भरतसत्तम। परलोकगतस्यापि भविष्याम्यनृणः पितुः।। | 5-196-20a 5-196-20b |
आर्येण हि न वक्तव्या कदाचित्स्तुतिरात्मनः। पितुर्वधममृष्यंस्तु वक्ष्याम्यद्येह पौरुषम्।। | 5-196-21a 5-196-21b |
अद्य पश्यन्तु मे वीर्यं पाण्डवाः सजनार्दनाः। मृद्गतः सर्वसैन्यानि युगान्तमिव कुर्वतः।। | 5-196-22a 5-196-22b |
न हि देवा न गन्धर्वा नासुरा न च राक्षसाः। अद्य शक्ता रणे जेतुं रथस्थं मां नरर्षभाः।। | 5-196-23a 5-196-23b |
मदन्यो नास्ति लोकेऽस्मिन्नर्जुनाद्वाऽस्त्रवित्क्वचित्। अहं हि ज्वलतां मध्ये मयूखानामिवांशुमान्। प्रयोक्ता देवसृष्टानामस्त्राणां पृतनागतः।। | 5-196-24a 5-196-24b 5-196-24c |
भृशमिष्वसनादद्य मत्प्रयुक्ता महाहवे। दर्शयन्तः शरा वीर्यं प्रमथिष्यन्ति पाण्डवान्।। | 5-196-25a 5-196-25b |
अद्य सर्वा दिशो राजन्धाराभिरिव सङ्कुलाः। आवृताः पत्रिभिस्तीक्ष्णैर्द्रष्टारो मामकैरिह।। | 5-196-26a 5-196-26b |
विकिरञ्छरजालानि सर्वतो भैरवस्वनान्। शत्रून्निपातयिष्यामि महावात इव द्रुमान्।। | 5-196-27a 5-196-27b |
न हि जानाति बीभत्सुस्तदस्त्रं न जनार्दनः। न भीमसेनो न यमौ न च राजा युधिष्ठिरः।। | 5-196-28a 5-196-28b |
न पार्षतो दुरात्माऽसौ न शिखण्डी न सात्यकिः। यदिदं मयि कौरव्य सकल्यं सनिवर्तनम्।। | 5-196-29a 5-196-29b |
नारायणाय मे पित्रा प्रणम्य विधिपूर्वकम्। उपहारः पुरा दत्तो ब्रह्मरूप उपस्थितः।। | 5-196-30a 5-196-30b |
तं स्वयं प्रतिगृह्याथ भगवान्स वरं ददौ। वव्रे पिता मे परममस्त्रं नारायणं ततः।। | 5-196-31a 5-196-31b |
अथैनमब्रवीद्राजन्भागवान्देवसत्तमः। भविता त्वत्समो नान्यः कश्चिद्युधि नरः क्वचित्।। | 5-196-32a 5-196-32b |
न त्विदं सहसा ब्रह्मन्प्रयोक्तव्यं कथञ्चन। न ह्येतदस्त्रमन्यत्र वधाच्छत्रोर्निवर्तते।। | 5-196-33a 5-196-33b |
न चैतच्छक्यते जेतुं को न वध्येत वै प्रभो। अवध्यमपि हन्याद्वि तस्मान्नैतत्प्रयोजयेत्।। | 5-196-34a 5-196-34b |
अथ सङ्ख्ये रथस्यैव शस्त्राणां च विसर्जनम्। प्रयाचनं च शत्रूणां गमनं शरणस्य च।। | 5-196-35a 5-196-35b |
एते प्रशमने योगा महास्त्रस्य परन्तप। सर्वथा पीडितो हिंस्यादवध्यान्पीडयन्रणे।। | 5-196-36a 5-196-36b |
तज्जग्राह पिता मह्यमब्रवीच्चैव स प्रभुः। त्वं वधिष्यसि सर्वाणि शस्त्रवर्षाण्यनेकशः। अनेनास्त्रेण सङ्ग्रामे तेजसा च ज्वलिष्यसि।। | 5-196-37a 5-196-37b 5-196-37c |
एवमुक्त्वा स भगवान्दिवमाचक्रमे प्रभुः। एतन्नारायणादस्त्रं तत्प्राप्तं पितृबन्धुना।। | 5-196-38a 5-196-38b |
तेनाहं पाण्डवांश्चैव पाञ्चालान्मात्स्यकेकयान्। विद्रावयिष्यामि रणे शचीपतिरिवासुरान्।। | 5-196-39a 5-196-39b |
यथायथाऽहमिच्छेयं तथा भूत्वा शरा मम। निपतेयुः सपत्नेषु विक्रमत्स्वपि भारत।। | 5-196-40a 5-196-40b |
यथेष्टमश्मवर्षेण प्रवर्षिष्ये रणे स्थितः। अयोमुखैश्च विहगैर्द्रावयिष्ये महारथान्।। | 5-196-41a 5-196-41b |
परश्वथांश्च निशितानुत्स्रक्ष्येऽहमसंशयम्।। | 5-196-42a |
सोऽहं नारायणास्त्रेण महता शत्रुतापनः। शत्रून्विध्वंसयिष्यामि कदर्थीकृत्य पाण्डवान्।। | 5-196-43a 5-196-43b |
मित्रब्रह्मगुरुद्रोही जाल्मकः सुविगर्हितः। पाञ्चालापशदश्चाद्य न मे जीवन्विमोक्ष्यते।। | 5-196-44a 5-196-44b |
तच्छ्रुत्वा द्रोणपुत्रस्य पर्यवर्तत वाहिनी। ततः सर्वे महाशङ्खान्दध्मुः पुरुषसत्तमाः। भेरीश्चाभ्यहनन्हृष्टा डिण्डिभांश्च सहस्रशः।। | 5-196-45a 5-196-45b 5-196-45c |
तथा ननाद वसुधा खुरनेमिप्रपीडिता। स शब्दस्तुमुलः खं द्यां पृथिवीं च व्यनादयत्।। | 5-196-46a 5-196-46b |
तं शब्दं पाण्डवाः श्रुत्वा पर्जन्यनिनदोपमम्। समेत्य रथिनां श्रेष्ठाः सहिताश्चाप्यमन्त्रयन्।। | 5-196-47a 5-196-47b |
तथोक्त्वा द्रोणपुत्रस्तु वार्युपस्पृश्य भारत। प्रादुश्चकार तद्दिव्यमस्त्रं नारायणं तदा।। | 5-196-48a 5-196-48b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि नारायणास्त्रमोक्षपर्वणि पञ्चदशदिवसयुद्धे षण्णवत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 196 ।। |
5-196-4 धर्मध्वजवता दाम्भिकेन। तत् अनृतवचनरूपं पापम्। अनार्यं नीचयोग्यं कर्म।। 5-196-10 बाल्येन चापकेन। विधर्मकाणि धर्मविरुद्धानि।। 5-196-12 अनुबन्धं फलम्। पाण्डवश्च अनुबन्धं द्रष्टेत्यनुषज्यते।। 5-196-24 मयूखानां मयूखवताम्।। 5-196-29 कल्यः प्रयोगः। निवर्तनमुपसंहारः।। 5-196-30 ब्रह्मरूपो वेदरूपः। वैदिकैर्मन्त्रैः स्तुतवानित्यर्थः।। 5-196-34 शक्यते ज्ञातुं केन वध्येदिति प्रभो इति झ. पाठः। तत्र केन प्रत्यस्त्रेण वध्येत् वध्येत इति ज्ञातुमित्यर्थः।। 5-196-35 रथस्यैव विसर्जनम्। शस्त्राणामपि विसर्जनं च। प्रयाचनं मावधीरिति याचनं। शरणस्य गमनं त्वमेव शरणं न इति कीर्तनं च।। 5-196-36 पीडितः पीडितं शस्त्रान्तरेण बाधितम्। पुंस्त्वमार्षम्।। 5-196-38 पितृबन्धुना मया।। 5-196-44 जाल्मको मूर्ख।। 5-196-196 षण्णवत्यधिकशततमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-195 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-197 |