महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-069
दिखावट
← द्रोणपर्व-068 | महाभारतम् सप्तमपर्व महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-069 वेदव्यासः |
द्रोणपर्व-070 → |
|
नारदेन सृञ्जयम्प्रति पृथुचरिब्रकथनम्।। 1 ।।
नारद उवाच। | 5-69-1x |
पुथुं वैन्यं च राजानं मृतं सृञ्जय शुश्रुम। यमब्यषिञ्चत्सम्मन्त्र्य राजसूये महर्षयः।। | 5-69-1a 5-69-1b |
अयं नः प्रथयिष्येत सर्वानित्यभवत्पृथुः। क्षतान्नस्त्रास्यते सर्वानत्येवं क्षत्रियोऽभवत्।। | 5-69-2a 5-69-2b |
पृथुं वैन्यं प्रजा दृष्ट्वा रक्ताः स्मेति यदब्रुवन्। ततो राजेति नामास्य अनुरागादजायत।। | 5-69-3a 5-69-3b |
अकृष्टपच्या पृथिवी आसीद्वैन्यस्य कामधुक्। सर्वाः समादुघा गावः पुटकेपुटके मधु।। | 5-69-4a 5-69-4b |
आसन्हिरण्मया वृक्षाः सुखस्पर्शाः सुखावहाः। तेषां चीरxx संवीताः प्रजास्तेष्वेव शेरते।। | 5-69-5a 5-69-5b |
फलान्यमृतकल्पानि स्वादूनि च मधूनि च। तेषामासीत्तदाऽऽहारो निराहाराश्च नाभवन्।। | 5-69-6a 5-69-6b |
अरोगाः सर्वसिद्धार्था मनुष्या ह्यकुतोभयाः। न्यवसन्त यथाकामं वृक्षेषु च गुहासु च।। | 5-69-7a 5-69-7b |
प्रविभागो न राष्ट्राणां पुराणां चाभवत्तदा। यथासुखं यथाकामं तथैता मुदिताः प्रजाः।। | 5-69-8a 5-69-8b |
तस्य संस्तम्भिता ह्यापः समुद्रमभियास्यतः। पर्वताश्च ददुर्मार्गं ध्वजभङ्गश्च नाभवत्।। | 5-69-9a 5-69-9b |
तं वनस्पतयः शैला देवासुरनरोरगाः। सप्तर्षयः पुण्यजना गन्धर्वाप्सरसोऽपि च। पितरश्च सुखासीनमभिगम्येदमब्रुवन्।। | 5-69-10a 5-69-10b 5-69-10c |
सम्राडसि क्षत्रियोऽसि राजा गोप्ता पिताऽसि नः। देह्यस्मभ्यं महाराज प्रभुः सन्नीप्सितान्वरान्। यैर्वयं शाश्वतं तृप्ता वर्तयिष्यामहे सुखम्।। | 5-69-11a 5-69-11b 5-69-11c |
`विज्ञापितः प्रजाभिस्तु प्रजानां हितकाम्यया। धनुर्गृह्य पृषत्कांश्च वसुधामाद्रवद्बली।। | 5-69-12a 5-69-12b |
ततो वैन्यभयाद्राजन्गौर्भूत्वा प्राद्रवन्मही। तां पृथुर्धनुरादाय द्रवन्तीमन्वसारयत्।। | 5-69-13a 5-69-13b |
सा लोकान्ब्रह्मलोकादीन्गत्वा वैन्यभयार्दिता। सा ददर्शाग्रतो वैन्यं कार्मुकोद्यतपाणिकम्।। | 5-69-14a 5-69-14b |
ज्वलद्भिर्विशिखैर्बाणैर्दीप्ततेजःसमद्युतिम्। महायोगं महात्मानं दुर्धर्षममरैरपि।। | 5-69-15a 5-69-15b |
अलभन्ती परित्राणं वैन्यमेवाभ्यपद्यत। कृताञ्जलिपुटा राजन्पूज्यं लोकैस्त्रिभिस्तदा।। | 5-69-16a 5-69-16b |
उवाच चैनं नाधर्म्यं स्त्रीवधं कर्तुमर्हसि। कथं धारयिता चासि प्रजा राजन्मया विना।। | 5-69-17a 5-69-17b |
पृथुरुवाच। | 5-69-18x |
एकस्यार्थाय यो हन्यादात्मनो वा परस्य वा। एकं प्राणान्बहून्वापि प्राणिनां नास्ति पातकं।। | 5-69-18a 5-69-18b |
यस्मिंस्तु निहते भद्रे बहवः सुखमेधते। तस्मिन्हते त्वधं नास्ति पातकं नोपभुज्यते।। | 5-69-19a 5-69-19b |
सोऽहं पालनिमित्तं त्वां बधिष्यामि वसुंधरे। यदि चेद्वचनादद्य न करिष्यसि मे प्रियम्।। | 5-69-20a 5-69-20b |
त्वां निहत्य तु बाणेन मच्छासनपराङ्मुखीम्। आत्मानं प्रथयित्वाऽहं प्रजा धारयिता स्वयं।। | 5-69-21a 5-69-21b |
सुखं वचनमास्थाय मम धर्मभृतां वरे। स़ञ्जीवय प्रजा नित्यं शक्ता ह्यसि वसुन्धरे।। | 5-69-22a 5-69-22b |
दुहितृत्वं च मे गच्छ एवमेतन्महाशरम्। नियच्छेयं त्वदर्थाय उद्यतं घोरदर्शनम्।। | 5-69-23a 5-69-23b |
भूमिरुवाच। | 5-69-24x |
सर्वमेतन्महाराज विधास्यासि परन्तप। वत्सं त्वं पश्य राजन्वै क्षरेयं येन वत्सला।। | 5-69-24a 5-69-24b |
समां तु कुरु सर्वज्ञ मां तु धर्मभृतां वर। यथा विष्यन्दमानं वै क्षीरं सर्वत्र भावये।। | 5-69-25a 5-69-25b |
नारद उवाच। | 5-69-26x |
तत उत्सारयामास शिलाजालानि सर्वशः। पृथुर्वैन्यस्तदा राजा तेन शैला विवर्धिताः।। | 5-69-26a 5-69-26b |
न हि पूर्वनिसर्गे वै विषमे वसुधातले। प्रविभागः पुराणां वा ग्रामाणां वा महीपते।। | 5-69-27a 5-69-27b |
न सस्यानि न गोरक्ष्यं न कृषिर्न वणिक्पथः। वैन्यात्प्रभृति राजेन्दर सर्वस्यैतस्य सम्भवः।। | 5-69-28a 5-69-28b |
यत्रयत्र च साम्यं तु भूमावासीत्किलानघ। तत्रतत्र प्रजास्तात निवासमभिरोचयन्। कृच्छ्रेण च महाराज इत्येवमनुशुश्रुम।। | 5-69-29a 5-69-29b 5-69-29c |
तथेत्युक्त्वा पुनर्वैन्यो गृहीत्वाऽऽजगवं धनुः। शरांश्चाप्रतिमान्घोरांश्चिन्तयित्वाऽब्रवीन्महीम्।। | 5-69-30a 5-69-30b |
पृथुरुवाच। | 5-69-31x |
एह्येहि वसुधे क्षिप्रं क्षरैभ्यः काङ्क्षितं पयः। मच्छसनातिगां वै त्वां प्रमथिष्याम्यहं शरैः।। | 5-69-31a 5-69-31b |
नारद उवाच। | 5-69-32x |
तथोक्ता साऽत्मनः श्रेयश्चिन्तयित्वाऽब्रवीत्पृथुम्। | 5-69-32a |
भूमिरुवाच। | 5-69-32x |
वत्सं पात्राणि दोग्धॄंश्च क्षीराणि च समादिश।। | 5-69-32b |
ततो दास्याम्यहं भद्र सर्वं यस्य यथेप्सितम्। दुहितृत्वे च मां वीर सङ्कल्पयितुमर्हसि।। | 5-69-33a 5-69-33b |
नारद उवाच।' | 5-69-34x |
तथेत्युक्त्वा पृथुः सर्वं विधानमकरोद्वशी। ततो भूतनिकायास्तां वसुधां दुदुहुस्तदा।। | 5-69-34a 5-69-34b |
तां वनस्पतयः पूर्वं समुत्तस्थुर्दुधुक्षवः। साऽतिष्ठद्वत्सला वत्सं दोग्धृपात्राणि चेच्छती।। | 5-69-35a 5-69-35b |
वत्सोऽभूत्पुष्पितः सालः प्लक्षो दोग्धाऽभवत्तदा। छिन्नप्ररोहणं दुग्धं पात्रमौदुम्बरं शुभम्।। | 5-69-36a 5-69-36b |
उदयः पर्वतो वत्सो मेरुर्दोग्धा महागिरिः। रत्नान्योषधयो दुग्धं पात्रमस्तमयं तथा।। | 5-69-37a 5-69-37b |
`देवानां वत्स इन्द्रोऽभूत्पात्रं दारुमयं तथा'। दोग्धा च सविता देवो दुग्धमूर्जस्करं प्रियम्।। | 5-69-38a 5-69-38b |
असुरा दुदुहुर्मायामयःपात्रे तु तां तदा। दोग्धा द्विमूर्धा तत्रासीद्वत्सश्चासीद्विरोचनः।। | 5-69-39a 5-69-39b |
कृषिं च सस्यं च नरा दुदुहुः पृथिवीतले। स्वायंभुवो मनुर्वत्सस्तेषां दोग्धाऽभवत्पृथुः।। | 5-69-40a 5-69-40b |
अलाबुपात्रे च तथा विषं दुग्धा वसुन्धरा। धृतराष्ट्रोऽभवद्दोग्धा तेषां वत्सस्तु तक्षकः।। | 5-69-41a 5-69-41b |
सप्तर्षिभिर्ब्रह्म दुग्धा तथा चाक्लिष्टकर्मभिः। दोग्धा बृहस्पतिः पात्रं छन्दो वत्सश्च सोमराट्।। | 5-69-42a 5-69-42b |
अन्तर्धानं चामपात्रे दुग्धा पुण्यजनैर्विराट्। दोग्धा वैश्रवणस्तेषां वत्सश्चासीद्वृषध्वजः।। | 5-69-43a 5-69-43b |
पुण्यगन्धान्पद्मपात्रे गन्धर्वाप्सरसोऽदुहन्। वत्सश्चित्ररथस्तेषां दोग्धा विश्वरुचिः प्रभुः।। | 5-69-44a 5-69-44b |
स्वधां रजतपात्रेषु दुदुहुः पितरश्च ताम्। वत्सो वैवस्वतस्तेषां यमो दोग्धान्तकस्तदा।। | 5-69-45a 5-69-45b |
एवं निकायैस्तैर्दुग्धा पयोऽभीष्टं हि सा विराट्। यैर्वर्तयन्ति ते ह्यद्य पात्रैर्वत्सैश्च नित्यशः।। | 5-69-46a 5-69-46b |
यज्ञैश्च विविधैरिष्ट्वा पृथुर्वैन्यः प्रतापवान्। सन्तर्पयित्वा भूतानि सर्वैः कामैर्मनःप्रियैः।। | 5-69-47a 5-69-47b |
हैरण्यानकरोद्राजा ये केचित्पार्थिवा भुवि। तान्ब्राह्मणेभ्यः प्रायच्छदश्वमेधे महामखे।। | 5-69-48a 5-69-48b |
स षष्टिं गोसहस्राणि षष्टिं नागशतानि च। सौवर्णानकरोद्राजा ब्राह्मणेभ्यश्च तान्ददौ।। | 5-69-49a 5-69-49b |
इमां च पृथिवीं सर्वां मणिरत्नविभूषिताम्। सौवर्णीमकरोद्राजा ब्राह्मणेभ्यश्च तां ददौ।। | 5-69-50a 5-69-50b |
स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया। पुत्रात्पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः। अयज्वानमदक्षिण्यमभि श्वैत्येत्युदाहरत्।। | 5-69-51a 5-69-51b 5-69-51b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि षोडशराजकीये एकोनसप्ततितमोऽध्यायः।। 69 ।। |
5-69-1 ध्वजभङ्गस्तोरणादिना।। 5-69-39 द्विमूर्धा शुक्रोऽभूत् इति क.ङ.ड.पाठः।। 5-69-43 विराट् पृथिवी। वत्सश्चासीत्कुवेरकः इति.पाठः।। 5-69-44 दोग्धा वसुरपि प्रभुः इति क.ङ.ड.पाठः।। 5-69-45 वत्सोऽत्र वत्सरस्तेषां क.ङ.पाठः।। 5-69-46 निवर्तयन्ति ते रुद्रादिष्टे वैन्येन सर्वशः इति क. पाठः। यैर्वर्तयन्ति ते तृप्तादिष्टे वैन्येन सर्वशः इति ङ. पाठः। ये वर्षयन्ति ते पात्रैः वत्सैर्दोग्धैश्च नित्यशः इति ङ. पाठः।। 5-69-48 पार्थिवाः पृथ्वीसंवन्धिपदार्थाः।। 5-69-69 एकोनसप्ततितमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-068 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-070 |