महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-143

विकिस्रोतः तः
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
← द्रोणपर्व-142 महाभारतम्
सप्तमपर्व
महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-143
वेदव्यासः
द्रोणपर्व-144 →
  1. 001
  2. 002
  3. 003
  4. 004
  5. 005
  6. 006
  7. 007
  8. 008
  9. 009
  10. 010
  11. 011
  12. 012
  13. 013
  14. 014
  15. 015
  16. 016
  17. 017
  18. 018
  19. 019
  20. 020
  21. 021
  22. 022
  23. 023
  24. 024
  25. 025
  26. 026
  27. 027
  28. 028
  29. 029
  30. 030
  31. 031
  32. 032
  33. 033
  34. 034
  35. 035
  36. 036
  37. 037
  38. 038
  39. 039
  40. 040
  41. 041
  42. 042
  43. 043
  44. 044
  45. 045
  46. 046
  47. 047
  48. 048
  49. 049
  50. 050
  51. 051
  52. 052
  53. 053
  54. 054
  55. 055
  56. 056
  57. 057
  58. 058
  59. 059
  60. 060
  61. 061
  62. 062
  63. 063
  64. 064
  65. 065
  66. 066
  67. 067
  68. 068
  69. 069
  70. 070
  71. 071
  72. 072
  73. 073
  74. 074
  75. 075
  76. 076
  77. 077
  78. 078
  79. 079
  80. 080
  81. 081
  82. 082
  83. 083
  84. 084
  85. 085
  86. 086
  87. 087
  88. 088
  89. 089
  90. 090
  91. 091
  92. 092
  93. 093
  94. 094
  95. 095
  96. 096
  97. 097
  98. 098
  99. 099
  100. 100
  101. 101
  102. 102
  103. 103
  104. 104
  105. 105
  106. 106
  107. 107
  108. 108
  109. 109
  110. 110
  111. 111
  112. 112
  113. 113
  114. 114
  115. 115
  116. 116
  117. 117
  118. 118
  119. 119
  120. 120
  121. 121
  122. 122
  123. 123
  124. 124
  125. 125
  126. 126
  127. 127
  128. 128
  129. 129
  130. 130
  131. 131
  132. 132
  133. 133
  134. 134
  135. 135
  136. 136
  137. 137
  138. 138
  139. 139
  140. 140
  141. 141
  142. 142
  143. 143
  144. 144
  145. 145
  146. 146
  147. 147
  148. 148
  149. 149
  150. 150
  151. 151
  152. 152
  153. 153
  154. 154
  155. 155
  156. 156
  157. 157
  158. 158
  159. 159
  160. 160
  161. 161
  162. 162
  163. 163
  164. 164
  165. 165
  166. 166
  167. 167
  168. 168
  169. 169
  170. 170
  171. 171
  172. 172
  173. 173
  174. 174
  175. 175
  176. 176
  177. 177
  178. 178
  179. 179
  180. 180
  181. 181
  182. 182
  183. 183
  184. 184
  185. 185
  186. 186
  187. 187
  188. 188
  189. 189
  190. 190
  191. 191
  192. 192
  193. 193
  194. 194
  195. 195
  196. 196
  197. 197
  198. 198
  199. 199
  200. 200
  201. 201
  202. 202
  203. 203

अर्जुनच्छिन्नभुजस्य भूरिश्रवसः तदुपालम्भपूर्वकं प्रायोपवेशः।। 1 ।। सात्यकिना भूरिश्रवश्शिरश्छेदः।। 2 ।।

सञ्जय उवाच। 5-143-1x
स बाहुर्न्यपतद्भूमौ सखङ्गः सशुभाङ्गदः।
आदधज्जीवलोकस्य दुःखमद्भुतमुत्तमः।
`यन्त्रमुक्तो महेन्द्रस्य ध्वजो वृत्तोत्सवो यथा'।।
5-143-1a
5-143-1b
5-143-1c
प्रहरिष्यन्हृतो बाहुरदृश्यते किरीटिना।
वेगेन न्यपतद्भूमौ पञ्चास्य इव पन्नगः।।
5-143-2a
5-143-2b
स मोघं कृतमात्मानं दृष्ट्वा पार्थेन कौरवः।
उत्सृज्य सात्यकिं क्रोधाद्ग्रर्हयामास पाण्डवम्।।
5-143-3a
5-143-3b
`स विबाहुर्महाराज एकपक्ष इवाण्डजः।
एकचक्रो रथो यद्वद्धरणीमास्थितो नृपः।
उवाच पाण्डवं चैव सर्वक्षत्रस्य पश्यतः।।
5-143-4a
5-143-4b
5-143-4c
भूरिश्रवा उवाच। 5-143-5x
नृशंसं बत कौन्तेय कर्मेदं कृतवानसि।
अपश्यतो विषक्तस्य यन्मे त्वं बाहुमच्छिनः।।
5-143-5a
5-143-5b
येषु येषु नरः पार्थ वर्तते सुसमाहितः।
आशु तच्छीलतामेति तदिदं दृश्यते त्वयि।।
5-143-6a
5-143-6b
किं नु वक्ष्यसि राजानं धर्मपुत्रं युधिष्ठिरम्
किं कुर्वाणो मया सङ्ख्ये हतो भूरिश्रवा इति।।
5-143-7a
5-143-7b
इदमिन्द्रेण ते साक्षादुपदिष्टं महात्मना।
अस्त्रं रुद्रेण वा पार्थ द्रोणेनाथ कृपेण वा।।
5-143-8a
5-143-8b
ननु नामास्त्रधर्मज्ञस्त्वं लोकेऽभ्यधिकः परैः।
सोऽयुध्यमानस्य कथं रणे प्रहृतवानसि।।
5-143-9a
5-143-9b
न प्रमत्ताय भीताय विरथाय प्रयाचते।
व्यसने वर्तमानाय प्रहरन्ति मनीषिणः।।
5-143-10a
5-143-10b
इदं तु नीचाचरितमसत्पुरुषसेवितम्।
कथमाचरितं पार्थ पापकर्म सुदुष्करम्।।
5-143-11a
5-143-11b
आर्येण सुकरं त्वाहुरार्यकर्म धनञ्जय।
अनार्यकर्म त्वार्येण सुदुष्करतमं भुवि।।
5-143-12a
5-143-12b
कथं हि राजवंश्यस्त्वं कौरवेयो विशेषतः।
क्षत्रधर्मादपक्रान्तः सुवृत्तश्चारितव्रतः।।
5-143-13a
5-143-13b
`अल्पस्तवापराधोऽत्र न त्वां तात विगर्हये।
वार्ष्णेयापशदं प्राप्य क्षुद्रं कृतमिदं त्वया'।।
5-143-14a
5-143-14b
इदं तु यदतिक्षुद्रं वार्ष्णेयार्थे कृतं त्वया।
वासुदेवमतं नूनं नैतत्त्वय्युपपद्यते।।
5-143-15a
5-143-15b
को हि नाम प्रमत्ताय परेण सह युध्यते।
ईदृशं व्यसनं दद्याद्यो न कृष्णसखो भवेत्।।
5-143-16a
5-143-16b
व्रात्याः सङ्क्लिष्टकर्माणः प्रकृत्यैव च गर्हिताः।
वृष्ण्यन्धकाः कथं पार्थ प्रमाणं भवता कृताः।।
5-143-17a
5-143-17b
सञ्जय उवाच। 5-143-18x
एवमुक्तो रणे पार्थो भूरिश्रवसमब्रवीत्।
व्यक्तं हि जीर्यमाणोऽपि बुद्धिं जरयते नरः।
अनर्थकमिदं सर्वं यत्त्वया व्याहृतं प्रभो।।
5-143-18a
5-143-18b
5-143-18c
जानन्नेव हृषीकेशं गर्हसे मां च पाण्डवम्।
सङ्गामाणां हि धर्मज्ञः सर्वशास्त्रार्थपारगः।।
5-143-19a
5-143-19b
न चाधर्ममहं कुर्यां जानंश्चैव हि मुह्यसे।। 5-143-20a
युध्यन्ते क्षत्रियाः शत्रून्स्वैःस्वैः परिवृता नराः।
भ्रातृभिः पितृभिः पुत्रैस्तथा सम्बन्धिबान्धवैः।
वयस्यैरथ मित्रैश्च स्वबाहुबलमाश्रिताः।।
5-143-21a
5-143-21b
5-143-21c
स कथं सात्यकिं शिष्यं सुखसम्बन्धिमेव च।
अस्मदर्थे च युध्यन्तं त्यक्त्वा प्राणान्सुदुस्त्यजान्।।
5-143-22a
5-143-22b
मम बाहुं रणे राजन्दक्षिणं युद्धदुर्मदम्।
*त्वया निकृष्यमाणं च दृष्टवानस्मि निष्क्रियम्।।
5-143-23a
5-143-23b
न च त्वं रक्षितव्यो हि एको रणगतेन हि।
यो यस्य युध्यतेऽर्थाय संरक्ष्यो नराधिप।
तै रक्ष्यमाणैः स नृपो रक्षितव्यो महामृधे।।
5-143-24a
5-143-24b
5-143-24c
यद्यहं सात्यकिं दृष्ट्वा तूष्णीमासिष्य आहवे।
ततस्तेन वियोगश्च प्राप्यं नरकमेव च।।
5-143-25a
5-143-25b
रक्षितव्यो मया यस्मात्तस्माल्लब्धो मया स च।
यशश्चैव स्वपक्षेभ्यः फलं मित्रस्य रक्षणात्।।
5-143-26a
5-143-26b
यच्च मां गर्हसे राजन्कृष्णेन सह सङ्गतम्।
कस्तेन सङ्गमं नेच्छेत्तत्र ते बुद्धिविभ्रमः।।
5-143-27a
5-143-27b
आबद्धकवचस्येह रथमारुह्य तिष्ठतः।
सर्वायुधैरुपेतस्य प्रतियोद्धृप्रतीक्षिणः।।
5-143-28a
5-143-28b
अस्मिन्रथगजानीके हयपत्तिसमाकुले।
सिंहनादोद्धतरवे गम्भीरे सैन्यसागरे।।
5-143-29a
5-143-29b
स्वैश्चापि समुपेतस्य विक्रान्तस्य तथा रणे।
सात्यकेन कथं योग्यः सङ्ग्रामस्ते भविष्यति।।
5-143-30a
5-143-30b
बहुभिः सह सङ्गम्य निर्जित्य च महारथान्।
श्रान्तश्च श्रान्तवाहश्च क्षीणसर्वायुधस्त्वया।
समेतः सात्यकिः सङ्ख्ये निर्जितश्च महारथः।।
5-143-31a
5-143-31b
5-143-31c
ईदृशं सात्यकिं सङ्ख्ये निर्जित्य च महारथम्।
अधिकत्वं विजानीपे स्ववीर्यवशमागतम्।।
5-143-32a
5-143-32b
इच्छसि त्वं शिरस्तस्य असिना हर्तुमाहवे।
तथा कृच्छ्रगतं दृष्ट्वा सात्यकिं कः क्षमिष्यति।
एकस्यैकेन हि कथं सङ्ग्रामः सम्भविष्यति।।
5-143-33a
5-143-33b
5-143-33c
त्वं तु गर्हय चात्मानं स्वधर्मं यो न रक्षसि।
कथं रक्षिष्यसे वीर ये वै त्वां संश्रिता जनाः।।
5-143-34a
5-143-34b
आत्तशस्त्रस्य हि रणे वृष्णिपुत्रं जिघांसतः।
छिन्नवान्यदहं बाहुं नैतल्लोकविगर्हितम्।।
5-143-35a
5-143-35b
न्यस्तशस्त्रस्य हि पुनर्विकलस्य विवर्मणः।
अभिमन्योर्वधं तात धार्मिकः को नु पूजयेत्।।
5-143-36a
5-143-36b
सञ्जय उवाच। 5-143-37x
एवमुक्तो महार्बाहुर्यूपकेतुर्महायशाः।
युयुधानं समुत्सृज्य रणे प्रायमुपाविशत्।।
5-143-37a
5-143-37b
शरानास्तीर्य सव्येन पाणिना पुण्यलक्षणः।
यियासुर्ब्रह्मलोकाय प्राणान्प्राणेष्वथाजुहोत्।।
5-143-38a
5-143-38b
सूर्ये चक्षुः समाधाय प्रसन्नं सलिले मनः।
ध्यायन्महोपनिषदं योगयुक्तोऽभवन्मुनिः।।
5-143-39a
5-143-39b
ततस्ते सर्वसेनासु जनाः कृष्णधनञ्जयौ।
गर्हयामासुरप्येतौ शशंसुर्भूरिदक्षिणम्।।
5-143-40a
5-143-40b
निन्द्यमानौ तथा कृष्णौ नोचतुः किञ्चिदप्रियम्।
ततः प्रशस्यमानश्च नाहृष्यद्यूपकेतनः।।
5-143-41a
5-143-41b
तांस्तथावादिनो राजन्पुत्रांस्तव धनञ्जयः।
अमूष्यमाणो मनसा तेषां तस्य च भाषितम्।।
5-143-42a
5-143-42b
असङ्क्रुद्धमना वाचः स्मारयन्निव भारत।
उवाच पाण्डुतनयः साक्षेपमिव फल्गुनः।।
5-143-43a
5-143-43b
मम सर्वेऽपि राजानो जानन्त्येतन्महाव्रतम्।
न शक्यो मामको हन्तुं यो मे स्याद्बाणगोचरे।।
5-143-44a
5-143-44b
यूपकेतुं समीक्ष्यैतन्न मां गर्हितुमर्हथ।
न हि धर्ममविज्ञाय युक्तं गर्हयितुं परम्।।
5-143-45a
5-143-45b
न्यस्तशस्त्रस्य बालस्य विरथस्य विवर्मणः।
`नाभिमन्योर्वधं यूयं गर्हयध्वं कुतस्तदा।।
5-143-46a
5-143-46b
दुर्योधनस्य क्षुद्रस्य अप्रमाणे च तिष्ठतः।
सौमदत्तेरथं साधुः सर्वसाहाय्यकारिणः।।
5-143-47a
5-143-47b
अस्मदीया मया रक्ष्याः प्राणबाध उपस्थिते।
ये मे प्रत्यक्षतो वीरा हन्येरन्निति मे मतिः।।
5-143-48a
5-143-48b
सात्यकश्च वशं नीतः कौरवेण महात्मना।
ततो मयैतच्चरितं प्रतिज्ञारक्षणं प्रति।।
5-143-49a
5-143-49b
सञ्जय उवाच। 5-143-50x
पुनश्च कृपयाऽऽविष्टो बहु तत्तद्विचिन्तयन्।
उवाच चैनं कौरव्यमर्जुनः शोकपीडितः।।
5-143-50a
5-143-50b
धिगस्तु क्षत्रधर्मं तु यत्र त्वं पुरुषेश्वरः।
अवस्थामीदृशीं प्राप्तः शरण्यः शरणप्रदः।।
5-143-51a
5-143-51b
नातिभारः कृतान्तस्य विद्यते कुरुनन्दन।
यत्र त्वं पुरुषव्याघ्रः प्राप्तः पापामिमां दशाम्।।
5-143-52a
5-143-52b
नात्मनः सुकृतस्यास्य फलं वै नृपसत्तम।
यत्र त्वं कुरुशार्दूल प्राप्तः पापामिमां दशाम्।।
5-143-53a
5-143-53b
रौरवं नरकं भीमं गमिष्यति सुयोधनः।
यत्कृते नरशार्दूलः प्राप्तः पापामिमां दशाम्।।
5-143-54a
5-143-54b
को हि नाम पुमाँल्लोके मादृशः पुरुषोत्तम।
प्रहरेत्त्वद्विधे त्वद्य प्रतिज्ञा यदि नो भवेत्'।।
5-143-55a
5-143-55b
एवमुक्तः स पार्थेन शिरसा भूमिमस्पृशत्।
पाणिना चैव सव्येन प्राहिणोदस्य दक्षिणम्।।
5-143-56a
5-143-56b
एतत्पार्थस्य तु वचस्ततः श्रुत्वा महाद्युतिः।
युपकेतुर्महाराज तूष्णीमासीदवाङ्मुखः।।
5-143-57a
5-143-57b
अर्जुन उवाच। 5-143-58x
या प्रीतिर्धर्मराजे मे भीमे च बलिनां वरे।
नकुले सहदेवे च सा मे त्वयि शलाग्रज।।
5-143-58a
5-143-58b
मया त्वं समनुज्ञातः कृष्णेन च महात्मना।
गच्छ पुण्यकृतां लोकाञ्छिबिरौशीनरो यथा।।
5-143-59a
5-143-59b
वासुदेव उवाच। 5-143-60x
ये लोका मम विमलाः सकृद्विभाता
ब्रह्माद्यैः सुरवृषभैरपीष्यमाणाः।
तान्क्षिप्रं व्रज सतताग्निहोत्रयाजि--
न्मत्तुल्यो भव गरुडोत्तमाङ्गयानः।।
5-143-60a
5-143-60b
5-143-60c
5-143-60d
सञ्जय उवाच। 5-143-61x
`धनञ्जये ब्रुवत्येवं घृणया च परिप्लुते।
अवाङ्मुखा बभूवुश्च सैनिकाः सर्व एव ते।।
5-143-61a
5-143-61b
मुहूर्तादिव विश्रम्य सात्यकिः क्रोधमूर्च्छितः।
अमर्षवशमापन्नः सौमदत्तिनिराकृतः'।।
5-143-62a
5-143-62b
उत्थितः स तु शैनेयो विमुक्तः सौमदत्तिना।
सङ्गमादाय चिच्छित्सुः शिरस्तस्य महात्मनः।।
5-143-63a
5-143-63b
निहतं पाण्डुपुत्रेण प्रसक्तं भूरिदक्षिणम्।
इयेष सात्यकिर्हन्तुं शलाग्रजमकल्मषम्।।
5-143-64a
5-143-64b
निकृत्तभुजमासीनं छिन्नहस्तमिव द्विपम्।
क्रोशतां सर्वसैन्यानां निन्द्यमानः सुदुर्मनाः।।
5-143-65a
5-143-65b
वार्यमाणः स कृष्णेन पार्थेन च महात्मना।
भीमेन चक्रक्षाभ्यामश्वत्थाम्ना कृपेण च।।
5-143-66a
5-143-66b
कर्णेन वृषसेनेन सैन्धवेन तथैव च।
विक्रोशतां च सैन्यानामवधीत्तं धृतव्रतम्।।
5-143-67a
5-143-67b
प्रायोपविष्टस्य रणे पार्थेन च्छिन्नबाहुनः।
सात्यकिः कौरवेयस्य खङ्गेनापाहरच्छिरः।।
5-143-68a
5-143-68b
नाभ्यनन्दन्त तं सैन्याः सात्यकिं तेन कर्मणा।
अर्जुनेन हतं पूर्वं यज्जघान कुरूद्वहम्।।
5-143-69a
5-143-69b
सहस्राक्षसमं चैव सिद्धचारणमानवाः।
भूरिश्रवसमालोक्य युद्धे प्रायगतं हतम्।।
5-143-70a
5-143-70b
अपूजयन्त तं देवा विस्मितास्तेऽस्य कर्मभिः।
पक्षवादांश्च सुबहून्प्रावदंस्तव सैनिकाः।।
5-143-71a
5-143-71b
न वार्ष्णेयस्यापराधो भवितव्यं हि तत्तथा।
तस्मान्मन्युर्न वः कार्यः क्रोधो दुःखतरो नृणाम्।।
5-143-72a
5-143-72b
हन्तव्यश्चैष वीरेण नात्र कार्या विचारणा।
विहितो ह्यस्य धात्रैव मृत्युः सात्यकिराहवे।।
5-143-73a
5-143-73b
`मर्तव्यमेव सर्वेण चरमं पूर्वमेव वा।
मन्यध्वं मृत इत्येष माभूद्वो बुद्धिलाघवम्।।
5-143-74a
5-143-74b
तस्मिन्हते महाबाहौ यूपकेतौ महात्मनि।
धिगेनमिति चाक्रन्दन्क्षत्रियाः क्रोधमूर्च्छिताः।।
5-143-75a
5-143-75b
अन्ये न युक्तमित्येव भवितव्यं तथेति च।
केचिदासन्विमनसः केचिद्दुःखसमन्विताः'।।
5-143-76a
5-143-76b
सात्यकिरुवाच। 5-143-77x
न हन्तव्यो न हन्तव्य इति मन्दाः प्रभाषत।
धर्मवादैरधर्मिष्ठा धर्मकञ्चुकमास्थिताः।।
5-143-77a
5-143-77b
यदा बालः सुभद्रायाः सुतः शस्त्रनिनाकृतः।
युष्माभिर्निहतो युद्धे तदा धर्मः क्व वो गतः।।
5-143-78a
5-143-78b
मया त्वेतत्प्रतिज्ञातं क्षेपे कस्मिंश्चिदेव हि।
`श्रुत्वा तत्सर्वभावेन गर्हयध्वं न चार्जुनम्।
शृणुध्वं सर्वमेवेह श्रुत्वा गर्हथ मानवाः'।।
5-143-79a
5-143-79b
5-143-79c
यो मां निष्पिष्य सङ्ग्रमे जीवन्हन्यात्पदा रुषा।
स मे वध्यो भवेच्छत्रुर्यद्यपि स्यान्मुनिव्रतः।।
5-143-80a
5-143-80b
चेष्टमानं प्रतीघाते सभुजं मां सचक्षुषः।
मन्यध्वं मृत इत्येवमेतद्वो बुद्धिलाघवम्।।
5-143-81a
5-143-81b
युक्तो ह्यस्य प्रतीघातः कृतो मे कुरुपुङ्गवाः।। 5-143-82a
यत्तु पार्थेन मां दृष्ट्वा प्रतिज्ञामभिरक्षता।
सखङ्गोऽस्य हृतो बाहुरेतेनैवास्मि वञ्चितः।।
5-143-83a
5-143-83b
भवितव्यं हि यद्भावि दैवं चेष्टयते हि तत्।
सोयं हतो विमर्देऽस्मिन्किमत्राधर्मचेष्टितम्।।
5-143-84a
5-143-84b
अपि चापं पुरा गीतः श्लोको वाल्मीकिना भुवि।
न हन्तव्याः स्त्रिय इति यद्ब्रवीषि प्लवङ्गम।।
5-143-85a
5-143-85b
सर्वकालं मनुष्येण व्यवसायवता सदा।
पीडाकरममित्राणां यत्स्यात्कर्तव्यमेव तत्।
अनुष्ठितं मया तच्च कस्माद्गर्हथ मूढवत्।।
5-143-86a
5-143-86b
5-143-86c
सञ्चय उवाच। 5-143-87x
एवमुक्ते महाराज सर्वे कौरवपुङ्गवाः।
न स्म किंचिदभाषन्त मनसा समपूजयन्।।
5-143-87a
5-143-87b
मन्त्रभिपूतस्य महाध्वरेषु
यशस्विनो भूरिसहस्रदस्य।
मुनेरिवारण्यगतस्य तस्य
न तत्र कश्चिद्वधमभ्यनन्दत्।।
5-143-88a
5-143-88b
5-143-88c
5-143-88d
सुनीलकेशं वरदस्य तस्य
सूरस्य पारावतलोहिताक्षम्।
अश्वस्य मेध्यस्य शिरो निकृत्तं
न्यस्तं हविर्धानमिवान्तरेण।।
5-143-89a
5-143-89b
5-143-89c
5-143-89d
स तेजसा शस्त्रकृतेन पूतो
महाहवे देहवरं विसृज्य।
आक्रामदूर्ध्वं वरदो वरार्हो
व्यावृत्त्य धर्मेण परेम रोदसी।।
5-143-90a
5-143-90b
5-143-90c
5-143-90d
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि
चतुर्दशदिवसयुद्धे त्रिचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 143 ।।

[सम्पाद्यताम्]

5-143-5 विषक्तस्यान्यासक्तस्य।। 5-143-6 येषुयेषु सत्स्वसत्सु वा।। 5-143-* एतदादि 35 त्तमश्लोकपर्यन्तं विद्यमानानां श्लोकानां स्थाने अधोलिखिताः श्लोकाः झ. पुस्तके सन्ति। नचात्मा रक्षितव्यो वै राजन्रणगतेन हि। यो यस्य युज्यतेऽर्थेषु स वै रक्ष्यो नराधिप।। 1 ।। तै रक्ष्यमाणैः स नृपो रक्षितव्यो महामृधे। यद्यहं सात्यकिं पश्ये वध्यमानं महारणे।। 2 ।। ततस्तस्य वियोगेन पापं मेऽनर्थतो भवेत्। रक्षितश्च मया यस्मात्तस्मात्क्रुध्यसि किं मयि।। 3 ।। यच्च मे गर्हसे राजन्नन्येन सह सङ्गतम्। अहं त्वया विनिकृतस्तत्र मे बुद्धिविभ्रमः।। 4 ।। कवचं धुन्वतस्तुभ्यं रथं चारोहतः स्वयम्। धनुर्ज्यां कर्षतश्चैव युध्यतः सह शत्रुभिः।। 5 ।। एवं रथगजाकीर्णे हयपत्तिसमाकुले। सिंहनादोद्भतरवे गम्भीरे सैन्यसागरे।। 6 ।। स्वैः परैश्च समेतेभ्यः सात्वतेन च सङ्गमे। एकस्यैकेन हि कथं सङ्ग्रमः सम्भविष्यति।। 7 ।। बहुभिः सह सङ्गम्य निर्जित्य च महारथान्। श्रान्तश्च श्रान्तवाहश्च विमनाः शस्त्रपीडितः।। 8 ।। ईदृशं सात्यकिं संख्ये निर्जित्य च महारथम्। अधिकत्वं विजानीषे स्ववीर्यवशमागतम्।। 9 ।। यदिच्छसि शिरश्चास्य असिना हन्तुमाहवे। तथा कृच्छ्रगतं चैव सात्यकिं कः क्षमिष्यति।। 10 ।। त्वं वै विगर्हयात्मानमात्मानं यो न रक्षसि। कथं करिष्यसे वीर यो वा त्वां संश्रयेज्जनः।। 11 ।। 5-143-23 दक्षिणं बाहुं तत्स्थनीयम्।। 5-143-37 प्रायं आमरणानशनं प्रारब्धवान्।। 5-143-38 प्राणानसून् प्राणेषुवायुषु अजुहोदाहितवान्।। 5-143-39 प्रसन्नमकल्पमषम्।। 5-143-49 स कथं च वधं नीतः इति ङ. पाठः। सः सात्यकिः वधसुद्दिस्येति शेषः।। 5-143-52 नातिहारः कृतान्तस्येति ठ.पाठः। अतिहारः परिहारः।। 5-143-56 दक्षिणं कृत्तमात्मनः पाणिं अस्यार्जुनस्य समीपे प्राहिणोत् प्रहितवान्।। 5-143-60 ये लोका इति श्लोकः झ.घ.ञ. पुस्तकेष्वेवास्ति। सकृद्विभाताः सहप्रकाशाः। गरुडस्योत्तमाङ्गेन पृष्ठेन यानं यस्य।। 5-143-64 प्रसक्तमन्यासक्तम्।। 5-143-79 क्षेपे निन्दामाम्। जीवन्निति द्वितीयार्थे प्रथमा।। 5-143-85 न हन्तव्या इत्यर्थं घ.ङ.झ.ञ. पाठेष्वेवास्ति।। 5-143-89 वरदस्यार्थितार्थप्रदातुः। हविर्धानमन्तरेण हविर्गृहस्य मध्ये।। 5-143-143 त्रिचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।।

द्रोणपर्व-142 पुटाग्रे अल्लिखितम्। द्रोणपर्व-144