महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-085
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धृतराष्ट्रेण पुत्रान्प्रति शोचनपूर्वकं सञ्जयम्प्रत्यभिमन्युनिधनानन्तरीयकयुद्धकथनचोदना।। 1 ।।
धृतराष्ट्र उवाच। | 5-85-1x |
श्वोभूते किमकार्षुस्ते दुःखशोकसमन्विताः। अभिमन्यौ हते तत्र कैर्वाऽयुध्यन्त पाण्डवाः।। | 5-85-1a 5-85-1b |
जानन्तस्तस्य कर्माणि कुरवः सव्यसाचिनः। कथं तत्किल्बिषं कृत्वा निर्भया ब्रूहि मामकाः।। | 5-85-2a 5-85-2b |
पुत्रशोकाभिसन्तप्तं क्रुद्धं मृत्युमिवान्तकम्। आयान्तं पुरुषव्याघ्रं कथं ददृशुराहवे।। | 5-85-3a 5-85-3b |
कपिराजध्वनं सङ्ख्ये विधुन्वानं महद्धनुः। दृष्ट्वा पुत्रपरिद्यूनं किमकुर्वत मामकाः।। | 5-85-4a 5-85-4b |
किन्तु सञ्जय सङ्ग्रमे वृत्तं दुर्योधनं प्रति। परिदेवो महानद्य श्रूयते हि गृहेगृहे।। | 5-85-5a 5-85-5b |
भूयाञ्शब्दानतीत्यान्याञ्शब्दः सैन्धववेश्मनि। पौराणिकानां तूर्याणां शङ्खदुन्दुभिघोषवान्।। | 5-85-6a 5-85-6b |
सूतमागधबन्दीनां नर्तकानां च निःस्वनः। सोऽद्य न श्रूयते शब्दः सूत पुत्र यथा पुरा।। | 5-85-7a 5-85-7b |
शब्दो नानाविधोऽभीष्टमभवद्यत्र मे श्रुतः। दीनानामद्य तं शब्दं न शृणोमि समीरितम्।। | 5-85-8a 5-85-8b |
निवेशने सत्यधृतेः सोमदत्तस्य सञ्जय। आसीनोऽहं पुरा तात शब्दमश्रौषमुत्तमम्।। | 5-85-9a 5-85-9b |
तदद्य पुण्यहीनोऽहमार्तस्वरनिनादितम्। निवेशनं गतोत्साहं विकृतं तात लक्षये।। | 5-85-10a 5-85-10b |
विविंशतेर्दुर्मुखस्य चित्रसेनविकर्णयोः। अन्येषां च सुतानां मे न तथा श्रूयते ध्वनिः।। | 5-85-11a 5-85-11b |
ब्राह्मणआः क्षत्रिया वैश्या यं शिष्याः पर्युपासते। द्रोणपुत्रं महेष्वासं पुत्राणां मे परायणम्।। | 5-85-12a 5-85-12b |
वितण्डालापसंलापैर्द्रुतवादित्रवादितैः। गीतैश्च विविधैरिष्टै रमते यो दिवानिशम्।। | 5-85-13a 5-85-13b |
उपास्यमानो बहुभिः कुरुपाण्डवसात्वतैः। श्लक्ष्णस्तस्य गृहे शब्दो नाद्य द्रौणेर्यथा पुरा।। | 5-85-14a 5-85-14b |
द्रोणपुत्रं महेष्वासं गायना नर्तकाश्च ये। अत्यर्थमुपतिष्ठन्ति तेषां न श्रूयते ध्वनिः।। | 5-85-15a 5-85-15b |
विन्दानुविन्दयोः सायं शिबिरे यो महाध्वनिः। श्रूयते सोऽद्य न तथा केकयानां च वेश्मसु।। | 5-85-16a 5-85-16b |
नित्यं प्रमुदितानां च तालगीतस्वनो महान्। नृत्यतां श्रूयते तात गणानां सोऽद्य न स्वनः।। | 5-85-17a 5-85-17b |
सप्ततन्तून्वितन्वाना याजका यमुपासते। सौमदत्तिं श्रुतनिधिं तेषां न श्रूयते ध्वनिः।। | 5-85-18a 5-85-18b |
ज्याघोषो ब्रह्मघोषश्च तोमरासिरथध्वनिः। द्रोणस्यासीदविरतो गृहे तं न शृणोम्यहम्।। | 5-85-19a 5-85-19b |
नानादेशसमुत्थानां गीतानां योऽभवत्स्वनः। वादित्रनादितानां च सोऽद्य न श्रूयते महान्।। | 5-85-20a 5-85-20b |
यदाप्रभृत्युपप्लुव्याच्छान्तिमिच्छञ्जनार्दनः। आगतः सर्वभूतानामनुकम्पार्थमच्युतः।। | 5-85-21a 5-85-21b |
ततोऽहमब्रुवं सूत मन्दं दुर्योधनं तदा। वासुदेवेन तीर्थेन पुत्र संशाम्य पाण्डवैः।। | 5-85-22a 5-85-22b |
कालप्राप्तमहं मन्ये मा त्वं दुर्योधनातिगाः। `संशाम्य भ्रातृभिस्तैस्तु क्षत्रियानभिपालय'।। | 5-85-23a 5-85-23b |
शमं चेद्याचमानं त्वं प्रत्याख्यास्यसि केशवम्। हितार्थमभिजल्पन्तं न तवास्ति रणे जयः।। | 5-85-24a 5-85-24b |
प्रत्याचष्ट स दाशार्हमृषभं सर्वधन्विनाम्। अनुनेयानि जल्पन्तमनयान्नान्वपद्यत।। | 5-85-25a 5-85-25b |
`कर्णदुःशासनमतः सौबलस्य च दुर्मतेः। प्रत्याख्यातो महाबाहुःकुलान्तकरणेन वै'।। | 5-85-26a 5-85-26b |
ततो दुःशासनस्यैव कर्णस्य च मतं द्वयोः। अन्ववर्तत मां हित्वा कृष्टः कालेन दुर्मतिः।। | 5-85-27a 5-85-27b |
न ह्यहं युद्धमिच्छामि विदुरो द्रोण एव वा। बाह्लीकः सोमदत्तो वा भीष्मो द्रौणायनिस्तथा।। | 5-85-28a 5-85-28b |
शलो भूरिश्रवाश्चैव पुरुमित्रो विविंशतिः। जयः कृपो वा धर्मात्मा ये चान्ये मम बान्धवाः।। | 5-85-29a 5-85-29b |
एतेषां मतमास्थाय यदि वत्स्यति पुत्रकः। एतेभ्यश्च मदूर्ध्वं च अभोक्ष्यद्वसुधामिमाम्।। | 5-85-30a 5-85-30b |
श्लक्ष्णा मधुरसम्भाषा ज्ञातिमध्ये प्रियंवदाः। कुलीनाः सम्मताः प्राज्ञाः सुखं जीवन्ति मानवाः। | 5-85-31a 5-85-31b |
धर्मापेक्षी नरो नित्यं सर्वत्र लभते सुखम्। प्रेत्यभावे च कल्याणं प्रसादं प्रतिपद्यते।। | 5-85-32a 5-85-32b |
अर्हास्ते पृथिवीं भोक्तुं समर्थाः साधनेऽपि च। तेषामपि समुद्रान्ता पितृपैतामही मही।। | 5-85-33a 5-85-33b |
`न च त्वाऽभिभविष्यन्ति हित्वा धर्मं पृथात्मजाः। नियुज्यमानाः स्थास्यन्ति पाण्डवा धर्मवर्त्मनि।। | 5-85-34a 5-85-34b |
सन्ति मे ज्ञातयस्तात येषां श्रोष्यन्ति पाण्डवाः। शल्यस्य सोमदत्तस्य भीष्मस्य च महात्मनः।। | 5-85-35a 5-85-35b |
द्रोणस्याथ विकर्णस्य बाह्लीकस्य कृपस्य च। अन्येषां चैव वृद्धानां भरतानां महात्मनाम्। त्वदर्थमब्रवं तात न जहुर्वचनानि ते।। | 5-85-36a 5-85-36b 5-85-36c |
कं वा त्वं मन्यसे तेषां यस्त्वां ब्रूयादतोऽन्यथा। कृष्णो न धर्मं सञ्जह्यात्सर्वे ते हि तदन्वयाः।। | 5-85-37a 5-85-37b |
मयाऽपि चोक्तास्ते वीरा वचनं धर्मसंहितम्। नान्यथा प्रकरिष्यन्ति धर्मात्मानो हि पाण्डवाः।। | 5-85-38a 5-85-38b |
इत्यहं विलपन्सूत बहुशः पुत्रमुक्तवान्। न च मे श्रुतवान्मूढो मन्ये कालस्य पर्ययम्।। | 5-85-39a 5-85-39b |
वृकोदरार्जुनौ यत्र वृष्णिवीरश्च सात्यकिः। उत्तमौजाश्च पाञ्चाल्यो युधामन्युश्च दुर्जयः।। | 5-85-40a 5-85-40b |
धृष्टद्युम्नश्च दुर्धर्षः शिखण्डी चापराजितः। अश्मकाः केकयाश्चैव क्षत्रधर्मा च सौमकिः।। | 5-85-41a 5-85-41b |
चैद्यश्च चेकितानश्च पुत्रः काश्यस्य चाभिभूः। द्रौपदेया विराटश्च द्रुपदश्च महारथः।। | 5-85-42a 5-85-42b |
यमौ च पुरुषव्याघ्रौ मन्त्री च मधुसूदनः। क एताञ्जातु युध्येत लोकेऽस्मिन्वै जिजीविषुः।। | 5-85-43a 5-85-43b |
दिव्यमस्त्रं विकुर्वाणान्प्रसहेद्वा परान्मम। अन्यो दुर्योधनात्कार्णाच्छकुनेश्चापि सौबलात्। दुःशासनचतुर्थानां नान्यं पश्यामि पञ्चमम्।। | 5-85-44a 5-85-44b 5-85-44c |
येषां वचनकृत्स स्याद्विष्वक्सेनो रथे स्थितः। सन्नद्धश्चार्जुनो योद्धा तेषां नास्ति पराजयः।। | 5-85-45a 5-85-45b |
तथा मम विलापानां नायं दुर्योधनः स्मरेत्। हतौ हि पुरुषव्याघ्रौ भीष्मद्रोणौ त्वमात्थ वै।। | 5-85-46a 5-85-46b |
तेषां विदुरवाक्यानामुक्तानां दीर्घदर्शनात्। दृष्ट्वेमां फलनिर्वृत्तिं मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः।। | 5-85-47a 5-85-47b |
सेनां दृष्ट्वाऽभिभूतां मे शैनेयेनार्जुनेन च। शून्यान्दृष्ट्वा रथोपस्थान्मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः।। | 5-85-48a 5-85-48b |
हिमात्यये यथा कक्षं शुष्कं वातेरितो महान्। अग्निर्दहेत्तथा सेनां मामिकां स धनञ्जयः।। | 5-85-49a 5-85-49b |
आचक्ष्व मम तत्सर्वं कुशलो ह्यसि सञ्जय। यदोपयाताः सायाह्ने कृत्वा पार्थस्य किल्बिषं।। | 5-85-50a 5-85-50b |
अभिमन्यौ हते तात कथमासीन्मनो हि वः।। | 5-85-51a |
न जातु तस्य कर्माणि युधि गाण्डीवधन्वनः। अपकृत्य महत्तात सोढुं शक्ष्यन्ति मामकाः।। | 5-85-52a 5-85-52b |
किन्नुः दुर्योधनः कृत्यं कर्णः कृत्यं किमब्रवीत्। दुःशासनः सौबलश्च तेषामेवं गते सति।। | 5-85-53a 5-85-53b |
सर्वेषां समवेतानां पुत्राणां मम सञ्जय। यद्वृत्तं तात सङ्ग्रामे मन्दस्यापनयैर्भृशम्।। | 5-85-54a 5-85-54b |
लोभानुगस्य दुर्बुद्धेः क्रोधेन विकृतात्मनः। राज्यकामस्य मूढस्य रागोपहतचेतसः। दुर्नीतं वा सुनीतं वा तन्ममाचक्ष्व सञ्जय।। | 5-85-55a 5-85-55b 5-85-55c |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि पञ्चाशीतितमोऽध्यायः।। 85 ।। |
5-85-4 पुत्रपरिद्यूनं पुत्रवधदुःखितम्।। 5-85-13 स्वपक्षस्थापनहीनः प्रतिपक्षे प्रतिक्षेपो वितण्डा। अलापो भाषणम्। संलापो मेथो भाषणम्।। 5-85-17 गणानां सङ्घानाम्।। 5-85-22 तीर्थेन निदानेन उपायेन वा।। 5-85-23 कालप्राप्तं समयोचितम्।। 5-85-25 अनुनेयनि अनुकूलानि।। 5-85-31 श्लक्ष्ण ऋजवः।। 5-85-33 साधने स्वीकरणे।। 5-85-44 दिव्यमस्त्रं विकुर्वाणाः संहरेयुररिंदमाः इति क.ट.पाठः।। 5-85-47 दीर्घदर्शनादनागतानुसन्धानात्।। 5-85-52 महदत्यर्थम्।। 5-85-53 तेषां मध्ये।। 5-85-55 रागो मात्सर्थं रागस्तु मात्सर्ये इति मेदिनी।। 5-85-85 पञ्चाशीतितमोऽध्यायः।।
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