महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-180
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कर्णेन घटोत्कचवधः।। 1 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-180-1x |
निहत्यालायुधं रक्षः प्रहृष्टात्मा घटोत्कचः। ननाद विविधान्नादान्वाहिन्या प्रमुखे तव।। | 5-180-1a 5-180-1b |
तस्य तं तुमुलं शब्दं श्रुत्वा हृदयकम्पनम्। तावकानां महाराज भयमासीत्सुदारुणम्।। | 5-180-2a 5-180-2b |
अलायुधविषक्तं तु भैमसेनिं महाबलम्। दृष्ट्वा कर्णो महाबाहुः पाञ्चालान्समुपाद्रवत्।। | 5-180-3a 5-180-3b |
दशभिर्दशभिर्बाणैर्धृष्टद्युम्नशिखण्डिनौ। दृढैः पूर्णायतोत्सृष्टैर्बिभेद नतपर्वभिः।। | 5-180-4a 5-180-4b |
ततः परमनाराचैर्युधामन्यूत्तमौजसौ। सात्यकिं च रथोदारं कम्पयमास मार्गणैः।। | 5-180-5a 5-180-5b |
तेषामप्यस्यतां सङ्ख्ये सर्वेषां सव्यदक्षिणम्। मण्डलान्येव चापानि व्यदृश्यन्त जनाधिप।। | 5-180-6a 5-180-6b |
तेषां ज्यातलनिर्घोषो रथनेमिस्वनश्च ह। मेघानामिव घर्मान्ते बभूव तुमुलो निशि।। | 5-180-7a 5-180-7b |
ज्यानेमिघोषस्तनयित्नुमान्वै धनुस्तटिन्मण्डलकेतुशृङ्गः। शरौघवर्षाकुलवृष्टिमांश्च सङ्क्राममेघः स बभूव राजन्।। | 5-180-8a 5-180-8b 5-180-8b 5-180-8b |
तदद्भुतं शैल इवाप्रकम्पो वर्षं महाशैलसमानसारः। विध्वंसयामास रणे नरेनद्र वैकर्तनः शत्रुगणावमर्दी।। | 5-180-9a 5-180-9b 5-180-9b 5-180-9b |
ततोऽतुलैर्वज्रनिपातकल्पैः शितैः शरैः काञ्चनचित्रपुङ्खैः। शत्रून्व्यपोहत्समरे महात्मा वैकर्तनः पुत्रहिते रतस्ते।। | 5-180-10a 5-180-10b 5-180-10c 5-180-10d |
सञ्छिन्नभिन्नध्वजिनश्च केचि-- त्केचिच्छरैरर्दितभिन्नदेहाः। केचिद्विसूता विहयाश्च केचि-- द्वैकर्तनेनाशु कृता बभूवुः।। | 5-180-11a 5-180-11b 5-180-11c 5-180-11d |
अविन्दमानास्त्वथ शर्म सङ्ख्ये यौधिष्ठिरं ते बलमभ्यपद्यन्। तान्प्रेक्ष्य भग्नान्विमुखीकृतांश्च घटोत्कचो रोषमतीव चक्रे।। | 5-180-12a 5-180-12b 5-180-12c 5-180-12d |
आस्थाय तं काञ्चनरत्नचित्रं रथोत्तमं सिंहवत्सन्ननाद। वैकर्तनं कर्णमुपेत्य चापि विव्याध वज्रप्रतिमैः पृषत्कैः।। | 5-180-13a 5-180-13b 5-180-13c 5-180-13d |
तौ कर्णिनाराचशिलीमुखैश्च नालीकदण्डासनवत्सदन्तैः। वराहकर्णैः सविपाठशृङ्गै- क्षुरप्रवर्षैश्च विनेदतुः खम्।। | 5-180-14a 5-180-14b 5-180-14c 5-180-14d |
तद्बाणधारावृतमन्तरिक्षं तिर्यग्गताभिः समरे रराज। सुवर्णपुङ्खज्वलितप्रभाभि-- र्विचित्रपुष्पाभिरिव प्रजाभिः।। | 5-180-15a 5-180-15b 5-180-15c 5-180-15d |
समाहितावप्रतिमप्रभावा-- वन्योन्यमाजघ्नतुरुत्तमास्त्रैः। तयोर्हि वीरोत्तमयोर्न कश्चि-- द्ददर्श तस्मिन्समरे विशेषम्।। | 5-180-16a 5-180-16b 5-180-16c 5-180-16d |
अतीव तच्चित्रमतुल्यरूपं बभूव युद्धं रविभीमसून्वोः। समाकुलं शस्त्रनिपातघोरं दिवीव राह्वंशुमतोः प्रमत्तम्।। | 5-180-17a 5-180-17b 5-180-17c 5-180-17d |
सञ्जय उवाच। | 5-180-18x |
घटोत्कचं यदा कर्णो न विशेषयते नृप। ततः प्रादुश्चकारोग्रमत्त्रमस्त्रविदां वरः।। | 5-180-18a 5-180-18b |
तेनास्त्रेणावधीत्तस्य रथं सहयसारथिम्। विरथश्चापि हैडिम्बिः क्षिप्रमन्तरधीयत।। | 5-180-19a 5-180-19b |
धृतराष्ट्र उवाच। | 5-180-20x |
तस्मिन्नन्तर्हिते तूर्णं कुटयोधिनि राक्षसे। मामकैः प्रतिपन्नं यत्तन्ममाचक्ष्व सञ्जय।। | 5-180-20a 5-180-20b |
सञ्जय उवाच। | 5-180-21x |
अन्तर्हितं राक्षसेन्द्रं विदित्वा सम्प्राक्रोशन्कुरवः सर्व एव। कथं नायं राक्षसः कूटयोधी हन्यात्कर्णं समरेऽदृश्यमानः।। | 5-180-21a 5-180-21b 5-180-21c 5-180-21d |
ततः कर्णो लघुचित्रास्त्रयोधी सर्वा दिशः प्रावृणोद्बाणजालैः। न वै किञ्चित्प्रापतत्तत्र भूतं तमोभूते सायकैरन्तरिक्षे।। | 5-180-22a 5-180-22b 5-180-22c 5-180-22d |
नैवाददानो न च सन्दधानो न चेषुधीस्पृशमानः कारग्रैः। अदृश्यद्वै लाघवात्सूतपुत्रः सर्वं बाणैश्छादयानोऽन्तरिक्षम्।। | 5-180-23a 5-180-23b 5-180-23c 5-180-23d |
ततो मायां दारुणामन्तरिक्षे घोरां भीमां विहितां राक्षसेन। अपश्याम लोहिताभ्रप्रकाशां देदीप्यन्तीमग्निशिखामिवोग्राम्।। | 5-180-24a 5-180-24b 5-180-24c 5-180-24d |
ततस्तस्यां विद्युतः प्रादुरास-- न्नुल्काश्चापि ज्वलिताः कौरवेन्द्र। घोपश्चास्यः प्रादुरासीत्सुघोरः सहस्रशो नदतां दुन्दुभीनाम्।। | 5-180-25a 5-180-25b 5-180-25c 5-180-25d |
ततः शराः प्रापतन्रुक्मपुङ्खाः शक्त्यृष्टिप्रासमुसलान्यायुधानि। परश्वथास्तैलधौताश्च खङ्गाः प्रदीप्ताग्रास्तोमराः पट्टसाश्च।। | 5-180-26a 5-180-26b 5-180-26c 5-180-26d |
मयूखिनः परिघा लोहबद्धा गदाश्चित्राः शितधाराश्च शूलाः। गुर्व्यो गदा हेमपट्टावनद्धाः शतघ्न्यश्च प्रादुरासन्समन्तात्।। | 5-180-27a 5-180-27b 5-180-27c 5-180-27d |
महाशिलाश्चापतंस्तत्रतत्र सहस्रशः साशनयश्च वज्राः। चक्राणि चानेकशतक्षुराणि प्रादुर्बभूवुर्ज्वलनप्रभाणि।। | 5-180-28a 5-180-28b 5-180-28c 5-180-28d |
तां शक्तिपाषाणपरश्वथानां प्रासासिवज्राशनिमुद्गराणाम्। वृष्टिं विशालां ज्वलितां पतन्तीं कर्णः शरौघैर्न शशाक हन्तुम्।। | 5-180-29a 5-180-29b 5-180-29c 5-180-29d |
शराहतानां पततां हयानां वज्राहतानां च तथा गजानाम्। शिलाहतानां च महारथानां महान्निनादः पततां बभूव।। | 5-180-30a 5-180-30b 5-180-30c 5-180-30d |
सुभीमनानाविधशस्त्रपातै-- र्घटोत्कचेनाभिहतं समन्तात्। दौर्योधनं वै बलमार्तरूप-- मावर्तमानं ददृशे भ्रमत्तत्।। | 5-180-31a 5-180-31b 5-180-31c 5-180-31d |
हाहाकृतं सम्परिवर्तमानं संलीयमानं च विषण्णरूपम्। ते त्वार्यभावात्पुरुषप्रवीराः पराङ्मुखा नो बभूवुस्तदानीम्।। | 5-180-32a 5-180-32c 5-180-32d 5-180-32b |
तां राक्षसीं भीमरूपां सुघोरां वृष्टिं महाशस्त्रमयीं पतन्तीम्। दृष्ट्वा बलौघांश्च निपात्यमाना-- न्महद्भयं तव पुत्रान्विवेश।। | 5-180-33a 5-180-33b 5-180-33c 5-180-33d |
शिवाश्च वैश्वानरदीप्तजिह्वाः सुभीमनादाः शतशो नदन्तीः। रक्षोगणान्नर्दतश्चापि वीक्ष्य नरेन्द्र योधा व्यथिता बभूवुः।। | 5-180-34a 5-180-34b 5-180-34c 5-180-34d |
ते दीप्तजिह्वानलतीक्ष्णदंष्ट्रा विभीषणाः शैलनिकाशकायाः। नभोगताः शक्तिविषक्तहस्ता मेघा व्यमुञ्चन्निव वृष्टिमुग्राम्।। | 5-180-35a 5-180-35b 5-180-35c 5-180-35d |
तैराहतास्ते शरशक्तिशूलै-- र्गदाभिरुग्रैः परिघैश्च दीप्तैः। वज्रैः पिनाकैरशनिप्रहारैः शतघ्निचक्रैर्भथिताश्च पेतुः।। | 5-180-36a 5-180-36b 5-180-36c 5-180-36d |
शूला भुशुण्ड्योऽश्मगुडाः शतघ्न्यः स्थूलाश्च कार्ष्णायसपट्टनद्वाः। तेऽवाकिरंस्तव पुत्रस्य सैन्यं ततो रौद्रं कश्मलं प्रादुरासीत्।। | 5-180-37a 5-180-37b 5-180-37c 5-180-37d |
विकीर्णान्त्रा विहतैरुत्तमाङ्गैः सम्भग्नाङ्गः शिश्यिरे तत्र शूराः। छिन्ना हयाः कुञ्जराश्चापि भग्ना न मुच्यन्ते याचमानाः सुभीताः।। | 5-180-38a 5-180-38b 5-180-38c 5-180-38d |
एवं महच्छस्त्रवर्षं सृजन्त-- स्ते यातुधाना भुवि घोररूपाः। मायाः सृष्टास्तत्र घटोत्कचेन नामुञ्चन्वै याचमानं न भीतम्।। | 5-180-39a 5-180-39b 5-180-39c 5-180-39d |
तस्मिन्घोरे कुरुवीरावमर्दे कालोत्सृष्टे क्षत्रियाणामभावे। ते वै भग्नाः सहसा व्यद्रवन्त प्राक्रोशन्तः कौरवाः सर्व एव।। | 5-180-40a 5-180-40b 5-180-40c 5-180-40d |
पलायध्वं कुरवो नैतदस्ति सेन्द्रा देवा घ्नन्ति नः पाण्डवार्थे। तथा तेषां मज्जतां भारतानां तस्मिन्द्वीपः सूतपुत्रो बभूव।। | 5-180-41a 5-180-41b 5-180-41c 5-180-41d |
तस्मिन्सङ्क्रन्दे तुमुले वर्तमाने सैन्ये भग्ने लीयमाने कुरूणाम्। अन्नीकानां प्रविभागे प्रकाशे न ज्ञायन्ते कुरवो नेतरे च।। | 5-180-42a 5-180-42b 5-180-42c 5-180-42d |
निर्मर्यादे विद्रवे घोररूपे सर्वा दिशः प्रेक्षमाणाः स्म शून्याः। तां शस्त्रवृष्टिमुरसा गाहमानं कर्णं स्मैकं तत्र राजन्नपश्यन्।। | 5-180-43a 5-180-43b 5-180-43c 5-180-43d |
ततो बाणैरावृणोदन्तरिक्षं दिव्यां मायां योधयन्राक्षसस्य। हीमान्कुर्वन्दुष्करं चार्यकर्म नैवामुह्यत्संयुगे सूतपुत्रः।। | 5-180-44a 5-180-44b 5-180-44c 5-180-44d |
ततो भीताः समुदैक्षन्त कर्णं राजन्सर्वे सैन्धवा बाह्लिकाश्च। असम्मोहं पूजयन्तोऽस्य सङ्ख्ये सम्पश्यन्तो विजयं राक्षसस्य।। | 5-180-45a 5-180-45b 5-180-45c 5-180-45d |
तेनोत्सृष्टा चक्रयुक्ता शतघ्नी समं सर्वांश्चतुरोऽश्वाञ्जघान। ते जानुभिर्जगतीमन्वपद्य-- न्गतासवो निर्दशनाक्षिजिह्वाः।। | 5-180-46a 5-180-46b 5-180-46c 5-180-46d |
ततो हताश्वादवरुह्य याना-- दन्तर्मनाः कुरुषु प्राद्रुवत्सु। दिव्ये चास्त्रे मायया वध्यमाने नैवामुह्यच्चिन्तयन्त्प्राप्तकालम्।। | 5-180-47a 5-180-47b 5-180-47c 5-180-47d |
ततोऽब्रुवन्कुरवः सर्व एव कर्णं दृष्ट्वा घोररूपां च मायाम्। शक्त्या रक्षो जहि कर्णाद्य तूर्णं नश्यन्त्येते कुरवो धार्तराष्ट्राः।। | 5-180-48a 5-180-48b 5-180-48c 5-180-48d |
करिष्यतः किञ्च नो भीमपार्थौ तपन्तमेनं जहि पापं निशीथे। यो नः सङ्ग्रामाद्धोररूपाद्विमुच्ये-- त्स नः पार्थान्सबालान्योधयेत।। | 5-180-49a 5-180-49b 5-180-49c 5-180-49d |
तस्मादेनं राक्षसं घोररूपं शक्त्या जहि त्वं दत्तया वासवेन। मा कौरवाः सर्व एवेन्द्रकल्पा रात्रियुद्धे कर्ण नेशुः सयोधाः।। | 5-180-50a 5-180-50b 5-180-50c 5-180-50d |
स वध्यमानो रक्षसा वै निशीथे दृष्ट्वा राजंस्त्रास्यमानं बलं च। महच्छ्रुत्वा निनदं कौरवाणां मतिं दध्रे शक्तिमोक्षाय कर्णः।। | 5-180-51a 5-180-51b 5-180-51c 5-180-51d |
स वै क्रुद्धः सिंह इवात्यमर्षी नामर्षयन्प्रतिघातं रणेऽसौ। शक्तिं श्रेष्ठां वैजयन्तीमसह्यां समाददे तस्य वधं चिकीर्षन्।। | 5-180-52a 5-180-52b 5-180-52c 5-180-52d |
याऽसौ राजन्निहिता वर्षपूगा-- न्वधायाजौ सत्कृता फल्गुनस्य। यां वै प्रादात्सूत पुत्राय शक्रः शक्तिं श्रेष्ठां कुण्डलाभ्यां निमाय।। | 5-180-53a 5-180-53b 5-180-53c 5-180-53d |
तां वै शक्तिं लेलिहानां प्रदीप्तां पाशैर्युक्तामन्तकस्येव जिह्वाम्। मृत्योः स्वसारं ज्वलितामिवोल्कां वैकर्तनः प्राहिणोद्राक्षसाय।। | 5-180-54a 5-180-54b 5-180-54c 5-180-54d |
तामुत्तमां परकायावहन्त्रीं दृष्ट्वा शक्तिं बाहुसंस्थां ज्वलन्तीम्। भीतं रक्षो विप्रदुद्राव राजन् कृत्वाऽऽत्मानं विन्ध्यतुल्यप्रमाणम्।। | 5-180-55a 5-180-55b 5-180-55c 5-180-55d |
दृष्ट्वा शक्तिं कर्णबाह्वन्तरस्थां नेदुर्भूतान्यन्तरिक्षे नरेन्द्र। ववुर्वातास्तुमुलाश्चापि राज-- न्सनिर्घाता चाशनिर्गां जगाम।। | 5-180-56a 5-180-56b 5-180-56c 5-180-56d |
सा तां मायां भस्म कृत्वा ज्वलन्ती भित्त्वा गाढं हृदयं राक्षसस्य। ऊर्ध्वं ययौ दीप्यमाना निशायां नक्षत्राणामन्तराण्याविवेश।। | 5-180-57a 5-180-57b 5-180-57c 5-180-57d |
स निर्भिन्नो विविधैरस्त्रपूगै-- र्दिव्यैर्नागैर्मानुषै राक्षसैश्च। नदन्नादान्विविधान्भैरवांश्च प्राणानिष्टांस्त्याजितः शक्रशक्त्या।। | 5-180-58a 5-180-58b 5-180-58c 5-180-58d |
इदं चान्यच्चित्रमाश्चर्यरूपं चकारासौ कर्म शत्रुक्षयाय। तस्मिन्काले शक्तिनिर्भिन्नमर्मा बभौ राजञ्शैलमेघप्रकाशः।। | 5-180-59a 5-180-59b 5-180-59c 5-180-59d |
ततोऽन्तरिक्षादपतद्गतासुः स राक्षसेन्द्रो भुवि भिन्नदेहः। अवाक्शिराः स्तब्धगात्रो विजिह्वो घटोत्कचो महदास्थाय रूपम्।। | 5-180-60a 5-180-60b 5-180-60c 5-180-60d |
स तद्रूपं भैरवं भीमकर्मा भीमं कृत्वा भैमसेनिः पपात। हतोऽप्येवं तव सैन्यैकदेश-- मपोथयत्स्वेन देहेन राजन्।। | 5-180-61a 5-180-61b 5-180-61c 5-180-61d |
पतद्रक्षः स्वेन कायेन तूर्ण-- मतिप्रमाणेन विवर्धता च। प्रियं कुर्वन्पाण्डवानां गतासु-- रक्षौहिणीं तव तूर्णं जघान।। | 5-180-62a 5-180-62b 5-180-62c 5-180-62d |
ततो मिश्राः प्राणदन्सिंहनादै-- र्भेर्यः शङ्खा मुरजाश्चानकाश्च। दग्धां मायां निहतं राक्षसं च दृष्ट्वा हृष्ट्वाः प्राणदन्कौरवेयाः।। | 5-180-63a 5-180-63b 5-180-63c 5-180-63d |
ततः कर्णः कुरुभिः पूज्यमानो यथा शक्रो वृत्रवधे मरुद्भिः। अन्वारूढस्तव पुत्रस्य यानं हृष्टश्चापि प्राविशत्तत्स्वसैन्यम्।। | 5-180-64a 5-180-64b 5-180-64c 5-180-64d |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि चतुर्दशरात्रियुद्धे अशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 180 ।। |
5-180-8 केतुशृङ्गः ध्वजशिखरः।। 5-180-15 तिर्यग्गताभिरिषुपङ्क्तिभिरिति शेषः।। 5-180-20 प्रतिपन्नं कर्तव्यत्वेन ज्ञातमनुष्ठितं च।। 5-180-23 अदृश्यात् अदृश्यत।। 5-180-43 उरसा हार्दबलेन।। 5-180-180 अशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-179 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-181 |