महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-092
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अर्जुनेन श्रुतायुधसुदक्षिणयोर्वधः।। 1 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-92-1x |
सन्निरुद्धस्तु तैः पार्थो महाबलपराक्रमः। द्रुतं समनुयातश्च द्रोणेन रथिनां वरः।। | 5-92-1a 5-92-1b |
किरन्निषुगणांस्तीक्ष्णान्स रश्मीनिव भास्करः। तापयामास तत्सैन्यं देहं व्याधिगणो यथा।। | 5-92-2a 5-92-2b |
अश्वो विद्धो रथश्छिन्नः सारोहः पातितो गजः। छत्राणि चापविद्धानि रथाश्चक्रैर्विना कृताः।। | 5-92-3a 5-92-3b |
विद्रुतानि च सैन्यानि शरार्तानि समन्ततः। इत्यासीत्तुमुलं युद्धं न प्राज्ञायत किञ्चन।। | 5-92-4a 5-92-4b |
तेषां संयच्छतां सङ्ख्ये परस्परमजिह्मगैः। अर्जुनो ध्वजिनीं राजन्नभीक्ष्णं समकम्पयत्।। | 5-92-5a 5-92-5b |
सत्यां चिकीर्षमाणस्तु प्रतिज्ञां सत्यसङ्गरः। अभ्यद्रवद्रथश्रेष्ठं शोणाश्वं श्वेतवाहनः।। | 5-92-6a 5-92-6b |
तं द्रोणः पञ्चविंशत्या मर्मभिद्भिरजिह्मगैः। अन्तेवासिनमाचार्यो महेष्वासं समार्पयत्।। | 5-92-7a 5-92-7b |
तं तूर्णमिव बीभत्सुः सर्वशस्त्रभृतां वरः। अभ्यधावदिषूनस्यन्निषुवेगविघातकान्।। | 5-92-8a 5-92-8b |
तस्याशु क्षिपतो भल्लान्भल्लैः सन्नतपर्वभिः। प्रत्यविध्यदमेयात्मा ब्रह्मास्त्रं समुदीरयन्।। | 5-92-9a 5-92-9b |
तदद्भुतमपश्याम द्रोणस्याचार्यकं युधि। यतमानो युवा नैनं प्रत्यविध्यद्यदर्जुनः।। | 5-92-10a 5-92-10b |
क्षरन्निव महामेघो वारिधाराः सहस्रशः। द्रोणमेघः पार्थशैलं ववर्ष शरवृष्टिभिः।। | 5-92-11a 5-92-11b |
अर्जुनः शरवर्षं तच्छरवर्षेण वीर्यवान्। अवारयदसम्भ्रान्तो न त्वाचार्यमपीडयत्।। | 5-92-12a 5-92-12b |
द्रोणस्तु पञ्चविंशत्या श्वेतवाहनमार्दयत्। वासुदेवं च सप्तत्या बाह्वोरुरसि चाशुगैः।। | 5-92-13a 5-92-13b |
पार्थस्तु प्रहसन्धीमानाचार्यं स शरौघिणम्। विसृजन्तं शितान्बाणानवारयत तं युधि।। | 5-92-14a 5-92-14b |
अथ तौ वध्यमानौ तु द्रोणेन रथसत्तमौ। अवर्जयेतां दुर्धर्षं युगान्ताग्निमिवोत्थितम्।। | 5-92-15a 5-92-15b |
वर्जयन्निशितान्बाणान्द्रोणचापविनिः सृतान्। किरीटमाली कौन्तेयो भोजानीकमथाविशत्।। | 5-92-16a 5-92-16b |
सोऽन्तरा कृतवर्माणं काम्भोजं च सुदक्षिणम्। अभ्ययाद्वर्जयन्द्रोणं मैनाकमिव पर्वतम्।। | 5-92-17a 5-92-17b |
ततो भोजो नरव्याघ्रो दुर्धर्षं कुरुसत्तमम्। अविध्यत्तूर्णमव्यग्रो दशभिः कङ्कपत्रिभिः।। | 5-92-18a 5-92-18b |
तमर्जुनः शतेनाजौ राजन्विव्याध पत्रिणाम्। पुनश्चान्यैस्त्रिभिर्बाणैर्मोहयन्निव सात्वतम्।। | 5-92-19a 5-92-19b |
भोजस्तु प्रहसन्पार्थं वासुदेवं च माधवम्। एकैकं पञ्चविंशत्या सायकानां समार्पयत्।। | 5-92-20a 5-92-20b |
तस्यार्जुनो धनुश्छित्त्वा वियाधैनं त्रिसप्तभिः। शरैरग्निशिखाकारैः क्रुद्धाशीविषसन्निभैः।। | 5-92-21a 5-92-21b |
अथान्यद्धनुरादाय कृतवर्मा महारथः। पञ्चभिः सायकैस्तूर्णं विव्याधोरसि भारत।। | 5-92-22a 5-92-22b |
पुनश्च निशितैर्बाणैः पार्थं विव्याध पञ्चभिः। तं पार्थो नवभिर्बाणैराजघान स्तनान्तरे।। | 5-92-23a 5-92-23b |
दृष्ट्वा विषक्तं कौन्तेयं कृतवर्मरथं प्रति। चिन्तयामास वार्ष्णेयो न नः कालात्ययो भवेत्।। | 5-92-24a 5-92-24b |
ततः कृष्णोऽब्रवीत्पार्थं कृतवर्मणि मा दयाम्। कुरु सम्बन्धकं हित्वा प्रमथ्यैनं विशातय।। | 5-92-25a 5-92-25b |
ततः स कृतवर्माणं महोयित्वाऽर्जुनः शरैः। अभ्यगाज्जवनैरश्वैः काम्भोजानामनीकिनीम्।। | 5-92-26a 5-92-26b |
अमर्षितस्तु हार्दिक्यः प्रविष्टे श्वेतवाहने। विधुन्वन्सशरं चापं पाञ्चाल्याभ्यां समागतः।। | 5-92-27a 5-92-27b |
चक्ररक्षौ तु पाञ्चाल्यावर्जुनस्य पदानुगौ। पर्यवारयदायान्तौ कृतवर्मा रथेषुभिः।। | 5-92-28a 5-92-28b |
तावविध्यत्ततो भोजः कृतवर्मा शितैः शरैः। त्रिभिरेव युधामन्युं चतुर्भिश्चोत्तमौजसम्।। | 5-92-29a 5-92-29b |
तावप्येनं विविधतुर्दशभिर्दशभिः शरैः। त्रिभिरेव युधामन्युरुत्तगौजास्त्रिभिस्तथा। सञ्चिच्छिदतुरप्यस्य ध्वजं कार्मुकमेव च।। | 5-92-30a 5-92-30b 5-92-30c |
अथान्यद्धनुरादाय हार्दिक्यः क्रोधमूर्च्छितः। कृत्वा विधनुषौ वीरौ शरवर्षैरवाकिरत्।। | 5-92-31a 5-92-31b |
तावन्ये धनुषी सज्ये कृत्वा भोजं विजघ्नतुः। तेनान्तरेषु बीभत्सुर्विवेशामित्रवाहिनीम्।। | 5-92-32a 5-92-32b |
न लेभाते तु तौ द्वारं वारितौ कृतवर्मणा। धार्तराष्ट्रेष्वनीकेषु यतमानौ नरर्षभौ।। | 5-92-33a 5-92-33b |
अनीकान्यर्दयन्युद्धे त्वरितः श्वेतवाहनः। नावधीत्कृतवर्माणं प्राप्तमप्यरिसूदनः।। | 5-92-34a 5-92-34b |
तं दृष्ट्वा तु तथाऽऽयान्तंशूरो राजा श्रुतायुधः। अभ्यद्रवत्सुसङ्क्रुद्धो विधुन्वानो महद्धनुः।। | 5-92-35a 5-92-35b |
स पार्थं त्रिभिरानर्च्छत्सप्तत्या च जनार्दनम्। क्षुरप्रेण सुतीक्ष्णेन पार्थकेतुमताडयत्।। | 5-92-36a 5-92-36b |
ततोऽर्जुनो नवत्या तु शराणां नतपर्वणाम्। आजघान भृशं क्रुद्धस्तोत्रैरिव महाद्विपम्।। | 5-92-37a 5-92-37b |
स तन्न ममृषे राजन्पाण्डवेयस्य विक्रमम्। अथैनं सप्तसप्तत्या नाराचानां समार्पयत्।। | 5-92-38a 5-92-38b |
तस्यार्जुनो धनुश्छित्त्वा शरावापं निकृत्य च। आजघानोरसि क्रुद्धः सप्तभिर्नतपर्वभिः।। | 5-92-39a 5-92-39b |
अथान्यद्धनुरादाय स राजा क्रोधमूर्च्छितः। वासविं नवभिर्बाणैर्बाह्वोरुरसि चार्पयत्।। | 5-92-40a 5-92-40b |
ततोऽर्जुनः स्मयन्नेव श्रुतायुधमरिन्दमः। शरैरनेकसाहस्रैः पीडयामास भारत।। | 5-92-41a 5-92-41b |
अश्वांश्चास्यावधीत्तूर्णं सारथिं च महारथः। विव्याध चैनं सप्तत्या नाराचानां महाबलः।। | 5-92-42a 5-92-42b |
हताश्वं रथमुत्सृज्य स तु राजा श्रुतायुधः। अभ्यद्रुवद्रुणे पार्थं गदामुद्यम्य वीर्यवान्।। | 5-92-43a 5-92-43b |
वरुणस्यत्मजो वीरः स तु राजा श्रुतायुधः। पर्णाशाजननी यस्य शीततोया महानदी।। | 5-92-44a 5-92-44b |
तस्य माताऽब्रवीद्राजन्वरुणं पुत्रकारणात्। अवध्योऽयं भवेल्लोके शत्रूणां तनयो मम।। | 5-92-45a 5-92-45b |
वरुणस्त्वब्रवीत्प्रीतो ददाम्यस्मै वरं हितम्। दिव्यमस्त्रं सुतस्तेऽयं येनावध्यो भविष्यति।। | 5-92-46a 5-92-46b |
नास्ति चाप्यमरत्वं वै मनुष्यस्य कथञ्चन। सर्वेणावश्यमर्तव्यं जातेन सरितां वरे।। | 5-92-47a 5-92-47b |
दुर्धर्षस्त्वेष शत्रूणां रणेषु भविता सदा। अस्त्रस्यास्य प्रभावाद्वै व्येतु ते मानसो ज्वरः।। | 5-92-48a 5-92-48b |
इत्युक्त्वा वरुणः प्रादाद्गदां मन्त्रपुरस्कृताम्। यामासाद्य दुराधर्षः सर्वलोके श्रुतायुधः।। | 5-92-49a 5-92-49b |
उवाच चैनं भगवान्पुनरेव जलेश्वरः। अयुध्यति न मोक्तव्या सा त्वय्येव पतेदिति।। | 5-92-50a 5-92-50b |
हन्यादेषा प्रतीपं हि प्रयोक्तारमपि प्रभो। न चाकरोत्स तद्वाक्यं प्राप्ते काले श्रुतायुधः।। | 5-92-51a 5-92-51b |
स तया वीरघातिन्या जनार्दनमताडयत्। प्रतिजग्राह तां कृष्णः पीनेनांसेन वीर्यवान्। नाकम्पयत शौरिं सा विन्ध्यं गिरिमिवानिलः।। | 5-92-52a 5-92-52b 5-92-52c |
`ततोऽर्जुनः क्षुरप्राभ्यां भुजौ परिघसन्निभौ। चिच्छेद पाण्डवः शीघ्रं जलेश्वरसुतस्य वै।। | 5-92-53a 5-92-53b |
स ज्वलन्ती महोल्केव समासाद्य जनार्दनम्'। प्रत्यागता महावेगा कृत्येव दुरधिष्ठिता।। | 5-92-54a 5-92-54b |
जघान चास्थितं वीरं श्रुतायुधममर्षणम्। `स पपात हतो भूमौ विशिरा विभुजो बली। सम्भग्न इव वातेन बहुशाखो वनस्पतिः।। | 5-92-55a 5-92-55b 5-92-55c |
सा विस्फुरन्ती ज्वलिता वज्रवेगसमा गदा'। हत्वा श्रुतायुधं वीरं धरणीमन्वपद्यत।। | 5-92-56a 5-92-56b |
गदां निवर्तितां दृष्ट्वा निहतं च श्रुतायुधम्। हाहाकारो महांस्तत्र सैन्यानां समजायत। स्वेनास्त्रेण हतं दृष्ट्वा श्रुतायुधमरिन्दमम्।। | 5-92-57a 5-92-57b 5-92-57c |
अयुध्यमानाय ततः केशवाय नराधिप। क्षिप्ता श्रुतायुधेनाथ तस्मात्तमवधीद्गदा।। | 5-92-58a 5-92-58b |
यथोक्तं वरुणेनाजौ तथा स निधनं गतः। व्यसुश्चाप्यपतद्भूमौ प्रेक्षतां सर्वधन्विनाम्।। | 5-92-59a 5-92-59b |
पतमानस्तु स बभौ पर्णाशायाः प्रियः सुतः। सम्भग्न इव वातेन बहुशाखो वनस्पतिः।। | 5-92-60a 5-92-60b |
ततः सर्वाणि सैन्यानि सेनामुख्याश्च सर्वशः। प्राद्रवन्त हतं दृष्ट्वा श्रुतायुधमरिन्दमम्।। | 5-92-61a 5-92-61b |
ततः काम्भोजराजस्य पुत्रः शूरः सुदक्षिणः। अभ्ययाज्जवनैरश्वैः फल्गुनं शत्रुसूदनम्।। | 5-92-62a 5-92-62b |
तस्य पार्थः शरान्सप्त प्रेषयामास भारत। ते तं शूरं विनिर्भिद्य प्राविशन्धरणीतलम्।। | 5-92-63a 5-92-63b |
सोऽतिविद्धः शरैस्तीक्ष्णैर्गाण्डीवप्रेषितैर्मृधे। अर्जुनं प्रतिविव्याध दशभिः कङ्कपत्रिभिः।। | 5-92-64a 5-92-64b |
वासुदेवं त्रिभिर्विद्ध्वा पुनः पार्थं च पञ्चभिः। तस्य पार्थो धनुश्छित्त्वा केतुं चिच्छेद मारिष।। | 5-92-65a 5-92-65b |
भल्लाभ्यां भृशतीक्ष्णाभ्यां तं च विव्याध पाण्डवः। स तु पार्थं त्रिभिर्विद्ध्वा सिंहनादमथानदत्।। | 5-92-66a 5-92-66b |
सर्वपारशवीं चैव शक्तिं शूरः सुदक्षिणः। सघण्टां प्राहिणोद्धोरां क्रुद्धो गाण्डीवधन्वने।। | 5-92-67a 5-92-67b |
सा ज्वलन्ती महोल्केव तमासाद्य महारथम्। सविस्फुलिङ्गा निर्भिद्य निपपात महीतले।। | 5-92-68a 5-92-68b |
शक्या त्वभिहतो गाढं मूर्च्छयाऽभिपरिप्लुतः। समाश्वास्य महातेजाः सृक्विणी परिलेलिहन्।। | 5-92-69a 5-92-69b |
तं चतुर्दशभिः पार्थो नाराचैः कङ्कपत्रिभिः। साश्वध्वजधनुःसूतं विव्याधाचिन्त्यविक्रमः।। | 5-92-70a 5-92-70b |
रथं चान्यैः सुबहुभिश्चक्रे विशकलं शरैः। सुदक्षिणं तं काम्भोजं मोघसङ्कल्पविक्रमम्। बिभेद हृदि बाणेन पृथुधारेण पाण्डवः।। | 5-92-71a 5-92-71b 5-92-71c |
स भिन्नवर्मा स्रस्ताङ्गः प्रभ्रष्टमुकुटाङ्गदः। पपाताभिमुखः शूरो यन्त्रमुक्त इव ध्वजः।। | 5-92-72a 5-92-72b |
गिरेः शिखरजः श्रीमान्सुशाखः सुप्रतिष्ठितः। निर्भग्न इव वातेन कर्णिकारो हिमात्यये। विशीर्णः पतितो राजा प्रसार्य विपुलौ भुजौ।। | 5-92-73a 5-92-73b 5-92-73c |
शेते स्म निहतो भूमौ काम्भोजास्तरणोचितः। महार्हाभरणोपेतः सानुमानिव पर्वतः।। | 5-92-74a 5-92-74b |
सुदर्शनीयस्ताम्राक्षः कर्णिना स सुदक्षिणः। पुत्रः काम्भोजराजस्य पार्थेन विनिपातितः।। | 5-92-75a 5-92-75b |
धारयन्नग्निसङ्काशां शिरसा काञ्चनीं स्रजम्। अशोभत महाबाहुर्व्यसुर्भूमौ निपातितः।। | 5-92-76a 5-92-76b |
ततः सर्वाणि सैन्यानि व्यद्रवन्त सुतस्य ते। हतं श्रुतायुधं दृष्ट्वा काम्भोजं च सुदक्षिणम्।। | 5-92-77a 5-92-77b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे द्विनवतितमोऽध्यायः।। 92 ।। |
5-92-15 तेषां संयच्छतां विधारयताम्।। 5-92-10 आचार्यकं शिक्षाम्।। 5-92-28 रथेषुभिः अदूरस्थायिभिर्बाणैः।। 5-92-54 कृत्या अभिचारदेवता।। 5-92-72 ध्वजः शक्रध्वजः।। 5-92-92 द्विनवतितमोऽध्यायः।।
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