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महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-130

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महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-130
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द्रोणदुर्योधनसंवादो दुर्योधनयुद्धं च।। 1 ।।

सञ्जय उवाच। 5-130-1x
तस्मिन्विलुलिते सैन्ये सैन्धवायार्जुने गते।
सात्वते भीमसेने च पुत्रस्ते द्रोणमभ्ययात्।
त्वरन्नेकरथेनैव बहु कृत्यं विचिन्तयन्।।
5-130-1a
5-130-1b
5-130-1c
स रथस्तव पुत्रस्य त्वरया परया युतः।
तूर्णमभ्यद्रवद्द्रोणं मनोमारुतवेगवान्।।
5-130-2a
5-130-2b
`इह दृष्ट इतो नष्टः सरथः प्राद्रवन्नृपः।
मुहूर्तादिव पुत्रस्ते द्रोणमासाद्य मारिष'।
ससम्भ्रमामिदं वाक्यमब्रवीत्कुरनन्दनः।।
5-130-3a
5-130-3b
5-130-3c
अर्जुनो भीमसेनश्च सात्यकिश्चापराजितः।
विजित्य सर्वसैन्यानि सुमहान्ति महारथाः।।
5-130-4a
5-130-4b
सम्प्राप्ताः सिन्धुराजस्य समीपमनिवारिताः।
व्यायच्छन्ति च तत्रापि सर्व एवापराजिताः।।
5-130-5a
5-130-5b
यदि तावद्रणे पार्थो व्यतिक्रान्तो महारथः।
कथं सात्यकिभीमाभ्यां व्यतिक्रान्तोऽसि मानद।।
5-130-6a
5-130-6b
आश्चर्यभूतो लोकेऽस्मिन्समुद्रस्येव शोषणम्।
निर्जयस्तव विप्राग्र्य सात्वतेनार्जुनेन च।
तथैव भीमसेनेन लोकः संवदते भृशम्।।
5-130-7a
5-130-7b
5-130-7c
कथं द्रोणो जितः सङ्ख्ये धनुर्वेदस्य पारगः।
इत्येवं ब्रुवते योधा अश्रद्धेयमिदं तव।।
5-130-8a
5-130-8b
नाश एव तु मे नूनं मन्दभाग्यस्य संयुगे।
यत्र त्वां पुरुषव्याघ्रं व्यतिक्रान्तास्त्रयो रथाः।।
5-130-9a
5-130-9b
द्रोण उवाच। 5-130-10x
एवं गते तु कृत्येऽस्मिन्ब्रूहि यत्ते विवक्षितम्।
यद्गतं गतमेवेदं शेषं चिन्तय मानद।।
5-130-10a
5-130-10b
दुर्योधन उवाच। 5-130-11x
यत्कृत्यं सिन्धुराजस्य प्राप्तकालमनन्तरम्।
तत्संविधीयतां क्षिप्रं साधु सञ्चिन्त्य नो द्विज।।
5-130-11a
5-130-11b
द्रोण उवाच। 5-130-12x
चिन्त्यं बहुविधं तात यत्कृत्यं तच्छृणुष्व मे।
त्रयो हि समतिक्रान्ताः पाण्डवानां महारथाः।।
5-130-12a
5-130-12b
यावत्तेषां भयं पश्चात्तावदेषां पुरःसरम्।
तद्गरीयस्तरं मन्ये यत्र कृष्णधनञ्जयौ।।
5-130-13a
5-130-13b
सा पुरस्ताच्च पश्चाच्च गृहीता भारती चमूः।
तत्र कृत्यमहं मन्ये सैन्धवस्याभिरक्षणम्।।
5-130-14a
5-130-14b
स नो रक्ष्यतमस्तात क्रुद्धाद्भीतो धनञ्जयात्।
गतौ च सैन्धवं भीमौ युयुधानवृकोदरौ।।
5-130-15a
5-130-15b
सम्प्राप्तं तदिदं द्यूतं यत्तच्छकुनिबुद्धिजम्।
न सभायां जयो वृत्तो नापि तत्र पराजयः।
इह नो ग्लहमानानामद्य तावज्जयाजयौ।।
5-130-16a
5-130-16b
5-130-16c
यान्स्म तान्ग्लहते घोराञ्छकुनिः कुरुसंसदि।
अक्षान्स मन्यमानः प्राक्शरास्ते हि दुरासदाः।।
5-130-17a
5-130-17b
यत्र ते बहवस्तात कौरवेया व्यवस्थिताः।
सेनां दुरोदरं विद्धि शरानक्षान्विशाम्पते।
ग्लहं च सैन्धवं राजंस्तत्र द्यूतस्य निश्चयः।।
5-130-18a
5-130-18b
5-130-18c
सैन्धवे तु महद्द्यूंत समासक्तं परैः सह।
अत्र ते ध्रुवमायत्तो जयो वाऽजय एव वा।।
5-130-19a
5-130-19b
अत्र सर्वे महाराज त्यक्त्वा जीवितमात्मनः।
सैन्धवस्य रणे रक्षां विधिवत्कर्तुमर्हथ।
तत्र नो ग्लहमानानां ध्रुवौ जयपराजयौ।।
5-130-20a
5-130-20b
5-130-20c
यत्र ते परमेष्वासा यत्ता रक्षन्ति सैन्धवम्।
तत्र गच्छ स्वयं शीघ्रं तांश्च रक्षस्व रक्षिणः।।
5-130-21a
5-130-21b
इहैव त्वहमासिष्ये प्रेषयिष्यामि चापरान्।
निरोत्स्यामि च पाञ्चालान्सहितान्पाण्डुसृञ्जयैः।।
5-130-22a
5-130-22b
सञ्जय उवाच। 5-130-23x
ततो दुर्योधनोऽगच्छत्तूर्णमाचार्यशासनात्।
उद्यम्यात्मानमुग्राय कर्मणे स पदानुगः।।
5-130-23a
5-130-23b
चक्ररक्षौ तु पाञ्चाल्यौ युधामन्यूत्तमौजसौ।
बाह्येन सेनामभ्येत्य जग्मतुः सव्यसाचिनम्।।
5-130-24a
5-130-24b
यौ तु पूर्वं महाराज वारितौ कृतवर्मणा।
प्रविष्टे त्वर्जुने राजंस्तव सैन्यं युयुत्सया।।
5-130-25a
5-130-25b
पार्श्वे भित्त्वा चमूं वीरौ प्रविष्टौ तव वाहिनीम्।
पार्श्वेन सैन्यमायान्तौ कुरुराजो ददर्श ह।।
5-130-26a
5-130-26b
ताभ्यां दुर्योधनः सार्धमकरोत्सङ्ख्यमुत्तमम्।
त्वरितस्त्वरमाणाभ्यां भ्रातृभ्यां भारतो बली।।
5-130-27a
5-130-27b
तावेनमभ्यद्रवतामुभावुद्यतकार्मुकौ।
महारथसमाख्यातौ क्षत्रियप्रवरौ युधि।।
5-130-28a
5-130-28b
तमविध्यद्युधामन्युस्त्रिंशता कङ्कपत्रिभिः।
विंशत्या सारथिं चास्य चतुर्भिश्चतुरो हयान्।।
5-130-29a
5-130-29b
दुर्योधनो युधामन्योर्ध्वजमेकेषुणाऽच्छिनत्।
एकेन कार्मुकं चास्य चकर्त तनयस्तव।।
5-130-30a
5-130-30b
सारथिं चास्य भल्लेन रथनीडादपाहरत्।
ततोऽविध्यच्छरैस्तीक्ष्णैश्चतुर्भिश्चतुरो हयान्।।
5-130-31a
5-130-31b
युधामन्युश्च सङ्क्रुद्धः सरांस्त्रिंशतमाहवे।
व्यसृजत्तव पुत्रस्य त्वरमाणः स्तनान्तरे।।
5-130-32a
5-130-32b
तथोत्तमौजाः सङ्क्रुद्धः शरैर्हेमविभूषितैः।
अविध्यत्सारथिं चास्य प्राहिणोद्यमसादनम्।।
5-130-33a
5-130-33b
दुर्योधनोऽपि राजेन्द्र पाञ्चाल्यस्यौत्तमौजसः।
जघान चतुरोऽस्याश्चानुभौ तौ पार्ष्णिसारथी।।
5-130-34a
5-130-34b
उत्तमौजा हताश्वस्तु हतसूतश्च संयुगे।
आरुरोह रथं भ्रातुर्युधामन्योरभित्वरन्।।
5-130-35a
5-130-35b
स रथं प्राप्य तं भ्रातुर्दुर्योधनहयाञ्शरैः।
बहुभिस्ताडयामास ते हताः प्रापतन्भुवि।।
5-130-36a
5-130-36b
हयेषु पतितेष्वस्य चिच्छेद परमेषुणा।
युधामन्युर्धनुः शीघ्रं शरावापं च संयुगे।
`अविध्यत्सारथिं चास्य प्राहिणोद्यमसादनम्'।।
5-130-37a
5-130-37b
5-130-37c
हताश्वसूतात्सरथादवतीर्य नराधिपः।
गदामादाय ते पुत्रः पाञ्चल्यावभ्यधावत।।
5-130-38a
5-130-38b
तमापतन्तं सम्प्रेक्ष्य क्रुद्धं कुरुपतिं तदा।
अवप्लुतौ रथोपस्थाद्युधामन्यूत्तमौजसौ।।
5-130-39a
5-130-39b
ततः स हेमचित्रं तं गदया स्यन्दनं गती।
सङ्क्रुद्धः पोथयामास साश्वसूतध्वजं नृप।।
5-130-40a
5-130-40b
`एतदीदृशकं पुत्रस्तवाकार्षीज्जनाधिप।
गदया गदिनां श्रेष्ठः सर्वलोकमहारथः'।।
5-130-41a
5-130-41b
भङ्क्त्वा रथं स पुत्रस्ते हताश्वो हतसारथिः।
मद्रराजरथं तूर्णमारुरोह परन्तपः।।
5-130-42a
5-130-42b
पाञ्चालानां ततो मुख्यौ राजपुत्रौ महारथौ।
रथावन्यौ समारुह्य बीभत्सुमभिजग्मुतः।।
5-130-43a
5-130-43b
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि
चतुर्दशदिवसयुद्धे त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 130 ।।

5-130-17 तान्प्रसिद्धान् यानक्षान्। अक्षान् मन्यमानः प्राग् ग्लहतेस्म इत्यन्वयः।। 5-130-18 यत्र सभायाम। दूरोदरं द्यूतकारिणम्।। 5-130-20 जयपराजयौ जयः पराजयो वेत्यर्थः।। 5-130-130 त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः।।

द्रोणपर्व-129 पुटाग्रे अल्लिखितम्। द्रोणपर्व-131