महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-109
← द्रोणपर्व-108 | महाभारतम् सप्तमपर्व महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-109 वेदव्यासः |
द्रोणपर्व-110 → |
|
घटोत्कचेनालम्बुसवधः।। 1 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-109-1x |
`किरन्तं शरवर्षाणि रोषाद्दोणं महाहवे। वित्रासयन्तं तां सेनां कौन्तेयानां महीपते।। | 5-109-1a 5-109-1b |
दृष्ट्वा ततो महेष्वासो निघ्नन्तं च रथान्भृशम्। घटोत्कचो महाबाहू रणायाभिजगाम ह।। | 5-109-2a 5-109-2b |
पिशाचवदनैर्युक्तं रथं काञ्चनभूषितम्। समास्थाय महाराज नानाप्रहरणैर्युतः।। | 5-109-3a 5-109-3b |
दंशितस्तपनीयेन कवचेन सुवर्चसा। भूषणैराचिताङ्गश्च नदन्निव च तोयदः।। | 5-109-4a 5-109-4b |
हैडिम्बेयः सुसङ्क्रुद्धो द्रोणमभ्यद्रवद्बली। तमभ्यधावदायान्तं क्रद्धरूपलम्बुसः।। | 5-109-5a 5-109-5b |
ऋक्षचर्मपरिक्षिप्तं रथमास्थाय दंशितः। रक्तोष्ठः सधनुष्पाणिः प्रांशुः कल्प इव स्थितः।। | 5-109-6a 5-109-6b |
क्षिपञ्छतघ्नीर्विपुला मुसलोपमतोमरान्। मुसण्ठीर्बहुलाश्चैव त्रिशूलानपि पट्टसान्।। | 5-109-7a 5-109-7b |
कर्पराञ्छतधारांश्च पिनाकान्विविधांस्तथा। चक्राणि च क्षुरप्राणि क्षेपणीश्च कटङ्कटान्।। | 5-109-8a 5-109-8b |
नारायान्विविधानस्यन्सकङ्कोलूकवायसान्। चिक्षेप धनुरादाय निनदन्भैरवान्रवान्।। | 5-109-9a 5-109-9b |
तं रौद्रं क्रूरमायान्तं दृष्ट्वा कालमिवागतम्। प्राद्रवद्भयसंविग्ना राजन्पाण्डववाहिनी।। | 5-109-10a 5-109-10b |
सात्यकिस्तु रथव्याघ्रो दृष्ट्वा तं राक्षसं युधि। अभ्ययादमरप्रख्यो भ्रामयित्वा महद्धनुः।। | 5-109-11a 5-109-11b |
अभ्यद्रवच्च तद्रक्षस्तिष्ठतिष्ठेति चाब्रवीत्। अलम्बुसं राक्षसेन्दरं सोऽस्त्रवर्षैरवाकिरत्।। | 5-109-12a 5-109-12b |
ततः पाण्डवसैन्यानि विद्रुतान्यथ भारत। निरीक्ष्याभ्यद्रवत्तूर्णं त्वरमाणो घटोत्कचः।। | 5-109-13a 5-109-13b |
चिक्षेप च गदाशक्तीस्तोमरानथ पट्टसान्। हेमचित्रत्सरूनुग्रान्खङ्गानाकाशसप्रभान्।। | 5-109-14a 5-109-14b |
अन्योन्यमरादालोक्य राक्षसौ तौ महाबलौ। भैरवं नदतुर्नादान्सतोयाविव तोयदौ।। | 5-109-15a 5-109-15b |
ततः प्रववृते युद्धं घोरं राक्षससिंहयोः। यादृगेव पुरा वृत्तं रामरावणयोर्मृधे।। | 5-109-16a 5-109-16b |
स शक्तीश्च पिनाकांश्च वज्रान्खङ्गान्परश्वथान्। अन्योन्यमभिसङ्क्रुद्धौ तदा व्यसृजतामुभौ।। | 5-109-17a 5-109-17b |
आकृष्यमाणे धनुषि तयोर्बाहुबलेन च। यन्त्रेणेव तदा राजन्भृशं नादान्प्रचक्रतुः।। | 5-109-18a 5-109-18b |
अलम्बुसस्ततश्चक्रं कृतान्तज्वलनप्रभम्। घटोत्कचाय चिक्षेप यत्नमास्थाय वीर्यवान्।। | 5-109-19a 5-109-19b |
तद्भैमसेनिः सम्प्रेक्ष्य चक्रं वेगवदन्तरे। गदया ताडयामास तद्दीर्णं शतधाऽभवत्।। | 5-109-20a 5-109-20b |
ततोऽग्निचूर्णैः सहसा चक्रघातविनिःसृतैः। दंशकैरिव सा सेना पतद्भिर्भृशसंकुला।। | 5-109-21a 5-109-21b |
ततः प्रतिहते चक्रे स वीरो रोषसंकुलः। प्राहिणोत्तरसा शूलं शक्तीर्दशशतं तदा।।। | 5-109-22a 5-109-22b |
ज्वलन्तीश्च किरन्तीश्च ज्वालामालाः समन्ततः। युगान्तोल्कानिभास्तीक्ष्णा हेमदण्डा महास्वनाः।। | 5-109-23a 5-109-23b |
ताश्चापतन्तीः सम्प्रेक्ष्य राक्षसस्य घटोत्कचः। अर्धचन्द्रैः प्रचिच्छेद नाराचैः कङ्कपत्रिभिः।। | 5-109-24a 5-109-24b |
ततो रोषपरीताङ्गः प्रमुमोच स राक्षसः। शरवर्षं महाघोरं घटोत्कचरथं प्रति'।। | 5-109-25a 5-109-25b |
तयोः प्रतिभयं युद्धमासीद्राक्षससिंहयोः। कुर्वतोर्विविधा मायाः शक्रशम्बरयोरिव।। | 5-109-26a 5-109-26b |
अलम्बुसो भृशं क्रुद्धो घटोत्कचमताडयत्।। | 5-109-27a |
तयोर्युद्धं समभवद्रक्षोग्रामणिमुख्ययोः। यादृगेव पुरा वृत्तं रामरावणयोः प्रभो।। | 5-109-28a 5-109-28b |
घटोत्कचस्तु विंशत्या नाराचानां स्तनान्तरे। अलम्बुसमथो विद्धा सिंहवद्व्यनदन्मुहुः।। | 5-109-29a 5-109-29b |
तथैवालम्बुसो राजन्हैडिम्बिं युद्धदुर्मदम्। विद्व्वा विद्वृऽनदद्वृष्टः पूरयन्खं समन्ततः।। | 5-109-30a 5-109-30b |
तथा तौ भृशसङ्क्रुद्धौ राक्षसेन्द्रौ महाबलौ। निर्विशेषमयुध्येतां मायाभिरितरेतरम्।। | 5-109-31a 5-109-31b |
मायाशतसृजौ नित्यं मोहयन्तौ परस्परम्। मायायुद्धेषु कुशलौ मायायुद्धमयुध्यताम्।। | 5-109-32a 5-109-32b |
यांयां घटोत्कचो युद्धे मायां दर्शयते नृप। तां तामलम्बुसो राजन्माययैव निजघ्निवान्।। | 5-109-33a 5-109-33b |
तं तथा युध्यमानं तु मायायुद्धविशारदम्। अलम्बुसं राक्षसेन्द्रं दृष्ट्वाऽक्रुध्यन्त पाण्डवाः।। | 5-109-34a 5-109-34b |
त एनं भृशसंविग्नाः सर्वतः प्रवरा रथैः। अभ्यद्रवन्त सङ्कुद्धा भीमसेनादयो नृप।। | 5-109-35a 5-109-35b |
त एनं कोष्ठकीकृत्य रथवंशेन मारिष। सर्वतो व्यकिरन्बाणैरुल्काभिरिव कुञ्जरम्।। | 5-109-36a 5-109-36b |
स तेषामस्त्रवेगं तं प्रतिहत्यास्त्रमायया। तस्माद्रथव्रजान्मुक्तो वनदाहादिव द्विपः।। | 5-109-37a 5-109-37b |
स विष्फार्य अनुर्धोरमिन्द्राशनिसमस्वनम्। मारुतिं पञ्चविंशत्या भैमसेनिं च पञ्चभिः।। | 5-109-38a 5-109-38b |
युधिष्ठिरं त्रिभिर्विद्धा सहदेवं च सप्तभिः। नकुलं च त्रिसप्तत्या द्रोपदेयांश्च मारिष। पञ्चभिःपञ्चभिर्विद्ध्वा घोरं नादं ननाद ह।। | 5-109-39a 5-109-39b 5-109-39c |
तं भीमसेनो नवभिः सहदेवस्तु पञ्चभिः। युधिष्ठिरः शतेनैव राक्षसं प्रत्यविध्यत। नकुलस्तु चतुःषष्ट्या द्रौपदेयास्त्रिभिस्त्रिभिः।। | 5-109-40a 5-109-40b 5-109-40c |
हैडिम्बो राक्षसं विद्ध्वा युद्धे पञ्चाशता शरैः। पुनर्विव्याध सप्तत्या ननाद च महाबलः।। | 5-109-41a 5-109-41b |
तस्य नादेन महता कम्पितेयं वसुन्धरा। सपर्वतवना राजन्सपादपजलाशया।। | 5-109-42a 5-109-42b |
सोऽतिविद्धो महेष्वासैः सर्वतस्तैर्महारथैः। प्रतिविव्याध तान्सर्वान्पञ्चभिः पञ्चभिः शरैः।। | 5-109-43a 5-109-43b |
तं क्रुद्धं राक्षसं युद्धे प्रतिक्रुद्धस्तु राक्षसः। हैडिम्बो भरतश्रेष्ठ शरैर्विव्याध सप्तभिः।। | 5-109-44a 5-109-44b |
सोऽतिविद्धो बलवता राक्षसेन्द्रो महाबलः। व्यसृजत्सायकांस्तूर्णं रुक्मपुङ्खाञ्शिलाशितान्।। | 5-109-45a 5-109-45b |
ते शऱा नतपर्वाणो भैमसेनिविनिर्भिदः। रुषिताः पन्नगा यद्वद्योधमुख्यानुपागमन्।। | 5-109-46a 5-109-46b |
ततस्ते पाण्डवा राजन्समन्तान्निशिताञ्शरान्। प्रेषयामासुरुद्विग्ना हैडिम्बश्च घटोत्कचः।। | 5-109-47a 5-109-47b |
स विध्यमानः समरे पाण्डवैर्जितकाशिभिः। `*नाभ्यपद्यत कर्तव्यमार्श्यशृङ्गिर्महाबलः।। | 5-109-48a 5-109-48b |
घटोत्कचं महाराज शरवर्षैरवाकिरत्। दग्धाद्रिकूटसदृशं तमञ्जनचयोपरमम्।। | 5-109-49a 5-109-49b |
घटोत्कचोऽप्यसम्भ्रान्तः शरवर्षं महत्तरम्। अलम्बुसवधप्रेप्सुर्मुमोचाग्निरिव ज्वलन्।। | 5-109-50a 5-109-50b |
अलम्बुसवधाच्चोग्राद्धटोत्कचवधादपि। शराः प्रादुर्भवन्ति स्म द्विरेफा इव शाखिनः।। | 5-109-51a 5-109-51b |
अभ्रच्छायेव रचिता बाणैस्तत्र नरेश्वर। न स्म विज्ञायते किञ्चिदन्धकारे कृते शरैः।। | 5-109-52a 5-109-52b |
तत आकर्णमुक्तेन भल्लेन च घटोत्कचः। अलम्बुसस्य चिच्छेद शिरो यन्तुर्महाबलः।। | 5-109-53a 5-109-53b |
ततोऽपरैर्वेगवद्भिः क्षुरैस्तस्य घटोत्कचः। अक्षमीषां युगं चैव चिच्छेद युधि ताडयन्।। | 5-109-54a 5-109-54b |
अवस्कन्द्य रथात्तूर्णं कैर्मीरः क्रोधमूर्च्छितः। तस्मिन्मायामयं घोरमस्त्रवर्षं ववर्ष ह।। | 5-109-55a 5-109-55b |
घटोत्कचोऽप्याशु रथात्प्रस्कन्द्य स तमेव च। मायास्त्रेणैव मायास्त्रं व्यधमत्समरे रिपोः।। | 5-109-56a 5-109-56b |
हैडिम्बेनार्द्यमानस्तु युधि सोऽलम्बुसोऽद्रवत्। अन्तर्हितो महाराज घटोत्कचमयोधयत्।। | 5-109-57a 5-109-57b |
अन्तर्धानगतं दृष्ट्वा तत्रतत्र घटोत्कचः। गदया ताडयामास वेगवत्या महाबलः।। | 5-109-58a 5-109-58b |
उत्पपात ततो व्योम्नि प्रहारपरिपीडितः। अलम्बुसो राक्षसेन्द्रः सहसा पक्षिराडिव।। | 5-109-59a 5-109-59b |
घटोत्कचोऽप्यसम्भ्रान्तः खङ्गपाणिरथोत्पतत्। ततो वेगेन महता विवर्षिषुरिवाम्बुदः।। | 5-109-60a 5-109-60b |
तमापतन्तं सम्प्रेक्ष्य कैर्मीरी राक्षसोत्तमः। अभिदुद्राव वेगेन सिंहः सिंहमिव स्थितम्।। | 5-109-61a 5-109-61b |
दक्षिणेनासिमुद्यम्य वक्षः प्रच्छाद्य वर्मणा। अभिदुद्राव वेगेन वेगवन्तं घटोत्कचः।। | 5-109-62a 5-109-62b |
तावुभौ वेगसंरब्धावलम्बुसघटोत्कचौ। अन्योन्यस्य तथैवोरू समाजघ्नतुरञ्जसा।। | 5-109-63a 5-109-63b |
अन्योन्यस्याभिघातेन तयो राक्षससिंहयोः। शैलेनाभिहतस्येव शैलस्याभून्महास्वनः।। | 5-109-64a 5-109-64b |
ततोऽपसृत्य सहसा पुनरापेततुर्भृशम्। चरन्तावसिमार्गांस्तान्विविधान्राक्षसोत्तमौ।। | 5-109-65a 5-109-65b |
तयोर्गात्रेषु पतितावसी भिन्नौ निपेततुः। वेगोत्सृष्टे मघवता वज्रे शैलतटेष्विव।। | 5-109-66a 5-109-66b |
ततः सैन्यानि ददृशुस्तद्युद्धमतिदारुणम्। युद्धं तयो राक्षसयोरामिषे श्येनयोरिव।। | 5-109-67a 5-109-67b |
ततो लोहितरक्ताक्षावुभौ तौ राक्षसोत्तमौ। तथैक्ष्येतां तु शार्दूलौ सन्ध्यारक्ताविवाम्बुदौ।। | 5-109-68a 5-109-68b |
चक्राते श्येनवच्चैव मण्डलानि सहस्रशः। उभौ निस्त्रिंशहस्तौ तौ सपक्षाविव पक्षिणौ।। | 5-109-69a 5-109-69b |
भ्रामयित्वा तु तं खङ्गं पाण्डोः किर्मीरनन्दनः। चिक्षेपास्य शिरो हर्तुं स च तस्य घटोत्कचः।। | 5-109-70a 5-109-70b |
तावसी युगपद्दीप्तौ समेत्य विपुलौ भुवि। पतितौ तौ तु बाहुभ्यां राक्षसौ समसज्जताम्।। | 5-109-71a 5-109-71b |
शीर्षाघातांसधातैश्च परस्परमथाहतौ। पुनर्विमिश्रितौ वीरौ व्यायुध्येते मुहुर्मुहुः।। | 5-109-72a 5-109-72b |
भैमसेनिरथोत्क्षिप्य समाविध्य पुनः पुनः। निष्पिपेष क्षितौ क्षिप्रं पूर्णकुम्भमिवाश्मनि।। | 5-109-73a 5-109-73b |
बललाघवसम्पन्नः सम्पन्नो विक्रमेण च। भैमसेनिरथ क्रुद्धः सर्वसैन्यस्य पश्यतः।। | 5-109-74a 5-109-74b |
असृक्क्षरितसर्वाङ्गश्चूर्णितास्थिविभूषणः। घटोत्कचेन निष्पिष्टो हतः सालकटङ्कटः।। | 5-109-75a 5-109-75b |
पाण्डवानां ततः सेना तं दृष्ट्वा विनिपातितम्। ननाद सुमहानादं हर्षवेगसमाप्लुता।। | 5-109-76a 5-109-76b |
ततस्तु निपपाताशु गतासुर्भुवि राक्षसः। शिखरं पर्वतस्येव वज्रवेगेन पातितम्।। | 5-109-77a 5-109-77b |
पतता तेन महता रथिनां दन्तिनां दश। तव सैन्ये महाराज निहताः सुबृहत्तया।। | 5-109-78a 5-109-78b |
ततो घटोत्कचो हत्वा तद्रक्षो वृत्रसन्निभम्। पुनः स रथमास्थाय विजिगीषुर्ननादह'।। | 5-109-79a 5-109-79b |
ततः सुमनसः पार्था हते तस्मिन्निशाचरे। चुक्रुशुः सिंहनादांश्च वासांस्यादुधुवुश्च ह।। | 5-109-80a 5-109-80b |
तावकाश्च हतं दृष्ट्वा राक्षसेन्द्रं महाबलम्। अलम्बुसं तथा शूरा विशीर्णमिव पर्वतम्। हाहाकारमकार्षुश्च सैन्यानि भरतर्षभ।। | 5-109-81a 5-109-81b 5-109-81c |
जनाश्च तद्ददृशिरे रक्षः कौतूहलान्विताः। यदृच्छया निपतितं भूमावङ्गारकं यथा।। | 5-109-82a 5-109-82b |
घटोत्कचस्तु तद्धत्वा रक्षो बलवतां वरम्। मुमोच बलवन्नादं बलं हत्वेव वासवः।। | 5-109-83a 5-109-83b |
स पूज्यमानः पितृभिः सबान्धवै-- र्घटोत्कचः कर्मणि दुष्करे कृते। रिपुं निहत्याभिननन्द वै तदा ह्यलम्बुसं पक्वमलम्बुषं यथा।। | 5-109-84a 5-109-84b 5-109-84c 5-109-84d |
ततो निनादः सुमहान्समुत्थितः सशङ्खनानाविधबाणघोषवान्। निशम्य तं प्रत्यनदंस्तु पाण्डवा-- स्ततो ध्वनिर्भुवनमथाऽस्पृशद्भृशम्।। | 5-109-85a 5-109-85b 5-109-85c 5-109-85d |
`ततोऽभिगम्य राजानं धर्मपुत्रं युधिष्ठिरम्। स्वकर्मावेदयन्मूर्ध्ना प्राञ्जलिर्निपपात ह।। | 5-109-86a 5-109-86b |
मूर्ध्न्युपाघ्राय तं ज्येष्ठः परिष्वज्य च पाण्डवः। प्रितोऽस्मीत्यब्रवीद्राजन्हर्षादुत्फुल्ललोचनः।। | 5-109-87a 5-109-87b |
घटोत्कचेन निष्पिष्टे हते सालकटङ्कटे। बभूवुर्मुदिताः सर्वे हते तस्मिन्निशाचरे'।। | 5-109-88a 5-109-88b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे नवाधिकशततमोऽध्यायः।। 109 ।। |
5-109-1 रक्षोग्रामणिमुख्ययोः रक्षःपतिप्रघानयोः।। 5-109-* नाभ्यपद्यतेत्यारभ्य विजिगीषुर्ननादहेति 79 तमश्लोकपर्यन्तं विद्यमानानां श्लोकानां स्थाने अधोलिखिताः सार्धषट्श्लोका एव झ.पुस्तके सन्ति। मर्त्यधर्ममनुप्राप्तः कर्तव्यं नान्वपद्यत। ततःसमरशौण्डो वै भैमसेनिर्महाबलः।। समीक्ष्य तदवस्थं तं वधायास्य मनो दधे। वेगं चक्रे महान्तं च राक्षसेन्द्रथं प्रति।। दग्धाद्रिकूटशृङ्गाभं भिन्नाञ्जनचयोपमम्। रथाद्रथमभिद्रुत्य क्रुद्धो हैडिम्बिराक्षिपत्।। उद्वबर्ह रथाच्चापि पन्नागं गरुडो यथा। समुत्क्षिप्य च बाहुभ्यामाविद्व्य च पुनः पुनः।। निष्पिपेष क्षितौ क्षिप्रं पूर्णकुम्भमिवाश्मनि। बललाघवसम्पन्नः सम्पन्नो विक्रमेण च।। भैमसेनी रणे क्रुद्धः सर्वसैन्यान्यभीषयत्। स विष्फारितसर्वाङ्गश्चूर्णितास्थिर्विभीषणः।। घटोत्कचेन वीरेण हतः सालकटङ्कटः। 5-109-15 भुवनं स्वर्लोकम्।। 5-109-109 नवाधिकशततमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-108 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-110 |