महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-081
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अर्जुनेन स्वप्ने शंकरात्पाशुपतास्त्रमुपलक्ष्य कृष्णेनसह पुनः शिबिरं प्रत्यागमनम्।। 1 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-81-1x |
ततः पार्थः प्रसन्नात्मा प्राञ्जलिर्वृषभध्वजम्। ददर्शोत्फुल्लनयनः समस्तं तेजसां निधिम्।। | 5-81-1a 5-81-1b |
तं चोपहारं सुकृतं नैशं नैत्यकमात्मना। ददर्श त्र्यम्बकाभ्याशे वासुदेवनिवेदितम्।। | 5-81-2a 5-81-2b |
ततोऽभिपूज्य मनसा कृष्णं शर्वं च पाण्डवः। इच्छाम्यहं दिव्यमस्त्रमित्यभाषत शङ्करम्।। | 5-81-3a 5-81-3b |
ततः पार्थस्य विज्ञाय वरार्थे वचनं तदा। वासुदेवार्जुनौ देवः स्मयमानोऽभ्यभाषत।। | 5-81-4a 5-81-4b |
स्वागतं वां नरश्रेष्ठौ विज्ञातं मनसेप्सितम्। येन कामेन सम्प्राप्तौ भवद्ध्यां तं ददाम्यहम्।। | 5-81-5a 5-81-5b |
सरोऽमृतमयं दिव्यमभ्याशे शत्रुसूदनौ। तत्र मे तद्धनुर्दिव्यं शरश्च निहितः पुरा।। | 5-81-6a 5-81-6b |
येन देवारयः सर्वे मया युधि निपातिताः। तत आनीयतां कृष्णौ सशरं धनुरुत्तमम्।। | 5-81-7a 5-81-7b |
तथेत्युक्त्वा तु तौ वीरौ सर्वपारिषदैः सह। प्रस्थितौ तत्सरो दिव्यं दिव्यैश्वर्यशतैर्युतम्।। | 5-81-8a 5-81-8b |
निर्दिष्टं यद्वृषाङ्केण पुण्यं सर्वार्थसाधकम्। तौ जग्मतुरसम्भ्रान्तौ नरनारायणावृषी।। | 5-81-9a 5-81-9b |
ततस्तौ तत्सरो गत्वा सूर्यमण्डलसन्निभम्। नागमन्तर्जले घोरं ददृशातेऽर्जुनाच्युतौ।। | 5-81-10a 5-81-10b |
द्वितीयं चापरं नागं सहस्रशिरसं वरम्। वमन्तं विपुला ज्वाला ददृशातेऽग्निवर्चसम्।। | 5-81-11a 5-81-11b |
ततः कृष्णश्च पार्थश्च संस्पृश्याम्भः कृताञ्जली। तौ नागावुपतस्थाते नमस्यन्तौ वृषध्वजम्।। | 5-81-12a 5-81-12b |
गृणन्तौ वेदविद्वांसौ तद्ब्रह्म शतरुद्रियम्। अप्रमेयप्रमाणं तौ गत्वा सर्वात्मना भवम्।। | 5-81-13a 5-81-13b |
ततस्तौ रुद्रमाहात्म्याद्धित्वा रूपं महोरगौ। धनुर्बाणश्च शत्रुघ्नं तद्द्वन्द्वं समपद्यत।। | 5-81-14a 5-81-14b |
तौ तज्जगृहतुः प्रीतौ धनुर्बाणं च सुप्रभम्। आजहूतुर्महात्मानौ ददतुश्च महात्मने।। | 5-81-15a 5-81-15b |
ततः पाश्वाद्वॄषाङ्कस्य ब्रह्मचारी न्यवर्तत। पिङ्गाक्षस्तपसः क्षेत्रं बलवान्नीललोहितः। | 5-81-16a 5-81-16b |
स तद्गृह्य धनुःश्रेष्ठं तस्थौ स्थानं समाहितः। विचकर्षाथ विधिवत्सशरं धनुरुत्तमम्।। | 5-81-17a 5-81-17b |
तस्य मौर्वी च मुष्टिं च स्थानं चालक्ष्य पाण्डवः। श्रुत्वा मन्त्रं भवप्रोक्तं जग्राहाचिन्त्यविक्रमः।। | 5-81-18a 5-81-18b |
स सरस्येव तं बाणं मुमोचातिबलः प्रभुः। चिक्षेप च पुनर्वीरस्तस्मिन्सरसि तद्धनुः।। | 5-81-19a 5-81-19b |
ततः प्रीतं भवं ज्ञात्वा स्मृतिमानर्जुनस्तदा। वरमारण्यके दत्तं दर्शनं शङ्करस्य च। मनसा चिन्तयामास तन्मे सम्पद्यतां भव।। | 5-81-20a 5-81-20b 5-81-20c |
तस्य तन्मतमाज्ञाय प्रीतः प्रादाद्वरं भवः। तच्च पाशुपतं घोरं प्रतिज्ञायाश्च पारणम्।। | 5-81-21a 5-81-21b |
ततः पाशुपतं दिव्यमवाप्य पुनरीश्वरात्। संहृष्टरोमा दुर्धर्षः कृतं कार्यममन्यत।। | 5-81-22a 5-81-22b |
`ततोऽर्जुनहृषीकैशौ पुनः पुनररिंदमौ'। ववन्दतुश्च संहृष्टौ शिरोभ्यां तं महेश्वरम्।। | 5-81-23a 5-81-23b |
अनुज्ञातौ क्षणे तस्मिन्भवेनार्जुनकेशवौ। प्राप्तौ स्वशिबिरं वीरौ मुदा परमया युतौ।। | 5-81-24a 5-81-24b |
तथा भवेनानुमतौ महासुरनिघातिना। इद्रावीष्णू यथा प्रीतौ जम्भस्य वधकाङ्क्षिणौ।। | 5-81-25a 5-81-25b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि प्रतिज्ञापर्वणि एकाशीतितमोऽध्यायः।। 81 ।। |
[सम्पाद्यताम्]
5-81-2 आत्मना सुकृतं सूपकल्पितम्।। 5-81-14 द्वन्द्वं युगलम्।। 5-81-16 नीललोहितः भगवतोऽपरा तनुः।। 5-81-17 स्थानं स्थापनकम् 5-81-18 जग्राह मनसि कृतवान्।। 5-81-81 एकाशीतितमोऽध्यायः।।
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