महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-053
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ब्रह्मरुद्रसंवादः।। 1 ।। ब्रह्मणा प्रजासंहाराय मृत्युदेवीसर्जनम्।। 2 ।।
स्थाणुरुवाच। | 5-53-1x |
प्रजासर्गनिमित्तं हि कृतो यत्नस्त्वया विभो। त्वया सृष्टाश्च वृद्धाश्च भूतग्रामाः पृथग्विधाः।। | 5-53-1a 5-53-1b |
तास्तवेह पुनः क्रोधात्प्रजा नश्यन्ति सर्वशः। ता दृष्ट्वा मम कारुण्यं प्रसीद भगवन्प्रभो।। | 5-53-2a 5-53-2b |
ब्रह्मोवाच। | 5-53-3x |
संहर्तुं न च मे काम एतदेवं भवेदिति। पृथिव्या हितकामं तु ततो मां मन्युराविशत्।। | 5-53-3a 5-53-3b |
इयं सन्ना तदा देवी भारार्ता समचूचुदत्। संहारार्थं महादेव भारेणाभिहता सती।। | 5-53-4a 5-53-4b |
ततोऽहं नाधिगच्छामि बुद्ध्या बहु विचारयन्। संहारमप्रमेयस्य ततो मां मन्युराविशत्।। | 5-53-5a 5-53-5b |
रुद्र उवाच। | 5-53-6x |
संहारार्थं प्रसीदस्व मारुषो वसुधाधिप। मा प्रजाः स्थावराश्चैव जङ्गमाश्च व्यनीनशः।। | 5-53-6a 5-53-6b |
तव प्रसादाद्भगवन्निदं वर्तेत्त्रिधा जगत्। अनागतमतीतं च यच्च सम्प्रति वर्तते।। | 5-53-7a 5-53-7b |
भगवन्क्रोधसन्दीप्तः क्रोधादग्निमवासृजत्। स दहत्यश्मकूटानि द्रुमांश्च सरितस्तथा।। | 5-53-8a 5-53-8b |
पल्वलानि च सर्वाणि सर्वै चैव तृणोलपाः। स्थावरं जङ्गमं चैव निःशेषं कुरुते जगत्।। | 5-53-9a 5-53-9b |
तदेतद्भस्मसाद्भूतं जगत्स्थावरजङ्गमम्। प्रसीद भगवन्स त्वं रोषो न स्याद्वरो मम।। | 5-53-10a 5-53-10b |
सर्वे हि सृष्टा नश्यन्ति तव देव कथंचन। तस्मान्निवर्ततां तेजस्त्वय्येवेदं प्रलीयताम्।। | 5-53-11a 5-53-11b |
उपायमन्यं सम्पश्य प्रजानां हितकाम्यया। यथेमे प्राणिनः सर्वे निर्वर्तेरंस्तथा कुरु।। | 5-53-12a 5-53-12b |
अभावं नेह गच्छेयुरुत्सन्नजननाः प्रजाः। भवता हि नियुक्तोऽहं प्रानां पालने विभा। दया ते न समुत्पन्ना प्रजासु विबुधेश्वर।। | 5-53-13a 5-53-13b 5-53-13c |
मा विनश्येज्जगन्नाथ जगत्स्थावरजङ्गमम्। प्रसादाभिमुखं देवं तस्मादेवं ब्रवीम्यहम्।। | 5-53-14a 5-53-14b |
नारद उवाच। | 5-53-15x |
श्रुत्वा हि वचनं देवः प्रजानां हितकारणे। तेजः सन्धारयामास पुनरेवान्तरात्मनि।। | 5-53-15a 5-53-15b |
ततोऽग्निमुपसंहृत्य भगवाँल्लोकसत्कृतः। प्रवृत्तं च निवृत्तं च कल्पयामास वै प्रभुः।। | 5-53-16a 5-53-16b |
उपसंहरतस्तस्य तमग्निं रोषजं तथा। प्रादुर्बभूव विश्वेभ्यो गोभ्योनारी महात्मनः।। | 5-53-17a 5-53-17b |
कृष्णरक्ता तथा पिङ्गा रक्तजिह्वास्यलोचना। कुण्डलाभ्यां च राजेन्द्र तप्ताभ्यां तप्तभूषणा।। | 5-53-18a 5-53-18b |
सा निःसृत्य तथा खेभ्यो दक्षिणां दिशमाश्रिता। स्मयमाना च साऽवेक्ष्य देवौ विश्वेश्वरावुभौ।। | 5-53-19a 5-53-19b |
`तां तु तत्र तदा देवीं ब्रह्मा लोकपितामहः। उक्तवान्मधुरं वाक्यं सान्त्वयित्वा पुनः पुनः'। मृत्यो इति महीपाल जहि चेमाः प्रजा इति।। | 5-53-20a 5-53-20b 5-53-20c |
त्वं हि संहारबुद्ध्याऽथ प्रादुर्भूता रुषो मम। तस्मात्संहर सर्वास्त्वं प्रजाः सजडपण्डिताः।। | 5-53-21a 5-53-21b |
अविशेषेण चैव त्वं प्रजाः संहर भामिनि। मम त्वं हि नियोगेन ततः श्रेयो ह्यवाप्स्यासि।। | 5-53-22a 5-53-22b |
नारद उवाच। | 5-53-23x |
एवमुक्ता तु सा तेन मृत्युः कमललोचना। प्रारुदद्भृशसंविग्ना प्रापतन्नश्रुबिन्दवः।। | 5-53-23a 5-53-23b |
पाणिभ्यां प्रतिजग्राह तान्यश्रूणि पितामहः। सर्वभूतहितार्थाय तां चाप्यनुनयत्तदा।। | 5-53-24a 5-53-24b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।। 53 ।। |
5-53-2 कारुण्यं जातमिति शेषः।। 5-53-5 अप्रमेयस्यानन्तस्य जगत इति शेषः। अहिंस्यस्येतिवार्थः।। 5-53-6 संहारार्थं मारुषः रोषं माकार्षीः किन्तु प्रसीदस्व।। 5-53-10 तव रोषो न स्यादिति मम मह्यं वरोऽस्त्विति योजना।। 5-53-13 उत्सन्नजननाः प्रक्षीणसन्तानाः।। 5-53-16 प्रवृत्तं कर्म सृष्टिहेतुम्। निवृत्तं कर्म मोक्षहेतुम्।। 5-53-17 गोभ्य इन्द्रियच्छिद्रेभ्यः।। 5-53-19 देवौ ब्रह्मरुद्रौ।। 5-53-20 मरुणं मृत्प्राणवियोगस्तमन्यस्येच्छतीति मृत्युरित्मर्थः। इति आहेति शेषः।। 5-53-21 रुषो रोषात्।। 5-53-53 त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।।
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