महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-027
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अर्जुनेन संशप्तकानां हननम्।। 1 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-27-1x |
यन्मां पार्थस्य सङ्ग्रामे कर्माणि परिपृच्छसि। तृच्छृणुष्व महाबाहो पार्थो यदकरोद्रणे।। | 5-27-1a 5-27-1b |
रजो दृष्ट्वा समुद्भूतं श्रुत्वा च गजनिःस्वनम्। भगदत्ते विकुर्वाणे कौन्तेयः कृष्णमब्रवीत्।। | 5-27-2a 5-27-2b |
यथा प्राग्ज्योतिषो राजा गजेन मधुसूदन। त्वरमाणोऽभिनिष्क्रान्तो ध्रुवं तस्यैष निःस्वनः।। | 5-27-3a 5-27-3b |
इन्द्रादनवरः सङ्ख्ये गजयानविशारदः। प्रथमो गजघोधानां पृथिव्यामिति मे मतिः।। | 5-27-4a 5-27-4b |
स चापि द्विरदश्रेष्ठः सदाऽप्रतिगजो युधि। सर्वशस्त्रातिगः सङ्ख्ये कृतकर्मा जितक्लमः।। | 5-27-5a 5-27-5b |
सहः सस्त्रनिपातानामग्निस्पर्शस्य चानघ। स पाण्डवबलं सर्वमद्यैको नाशयिष्यति।। | 5-27-6a 5-27-6b |
`सिंहनादं महत्कृत्वा धनुर्बाणरवैः सह। विद्राव्यमाणं सम्पश्य हतभूयिष्ठनायकम्। दृष्ट्वा विनद्य सहसा मम सेनां प्रमृद्गति'।। | 5-27-7a 5-27-7b 5-27-7c |
न चावाभ्यामृतेऽन्योऽस्ति शक्तस्तं प्रतिबाधितुम्। त्वरमाणस्ततो याहि यतः प्राग्ज्योतिषाधिपः।। | 5-27-8a 5-27-8b |
दृप्तं सङ्ख्ये द्विपबलाद्वयसा चापि विस्मितम्। अद्यैनं प्रेषयिष्यामि बलहन्तुः प्रियातिथिम्।। | 5-27-9a 5-27-9b |
वचनादथ कृष्णस्तु प्रययौ सव्यसाचिनः। दीर्यते भगदत्तेन यत्र पाण्डववाहिनी।। | 5-27-10a 5-27-10b |
तं प्रयान्तं ततः पश्चादाह्वयन्तो महारथाः। संशप्तकाः समारोहन्सहस्राणि चतुर्दश।। | 5-27-11a 5-27-11b |
दशैव तु सहस्राणि त्रिगर्तानां महारथाः। चत्वारि च सहस्राणि वासुदेवस्य चानुगाः।। | 5-27-12a 5-27-12b |
दीर्यमाणां चमूं दृष्ट्वा भगदत्तेन मानिष। आहूयमानस्य च तैरभवद्धृदयं द्विधा।। | 5-27-13a 5-27-13b |
किन्नु श्रेयस्करं कर्म भवेदद्येत्यचिन्तयत्। इह वा विनिवर्तेयं गच्छेयं वा युधिष्ठिरम्।। | 5-27-14a 5-27-14b |
तस्य बुद्ध्या विचार्यैवमर्जुनस्य कुरूद्वह। अभवद्भूयसी बुद्धिः संशप्तकवधे स्थिरा।। | 5-27-15a 5-27-15b |
स सन्निवृत्तः सहसा कपिप्रवरकेतनः। एको रथसहस्राणि निहन्तुं वासवी रणे।। | 5-27-16a 5-27-16b |
सा हि दुर्योधनस्यासीन्मतिः कर्णस्य चोभयोः। अर्जुनस्य वधोपाये या वै द्वैधमकल्पयत्।। | 5-27-17a 5-27-17b |
स तु दोलायमानोऽबूद्द्वैधीभावेन पाण्डवः। वधेन तु नराग्र्याणामकरोत्तां मृषा तदा।। | 5-27-18a 5-27-18b |
ततः शतसहस्राणि शराणां नतपर्वणाम्। असृजन्नर्जुने राजन्संशप्तकमहारथाः।। | 5-27-19a 5-27-19b |
नैव कुन्तीसुतः पार्थो नैव कृष्णो जनार्दनः। न हया न रथो राजन्दृश्यन्ते स्म शरैश्चिताः।। | 5-27-20a 5-27-20b |
तदा मोहमनुप्राप्तः सिष्विदे हि जनार्दनः। ततस्तान्प्रायशः पार्थो ब्रह्मास्त्रेण निजघ्निवान्।। | 5-27-21a 5-27-21b |
शतशः पाणयश्छिन्नाः सेषुज्यातलकार्मुकाः। केतवो वाजिनः सूता रथिनश्चापतन्क्षितौ।। | 5-27-22a 5-27-22b |
द्रुमाचलाग्राम्बुधरैः समकायाः सुकल्पिताः। हतारोहाः क्षितौ पेतुर्द्विपाः पार्थशराहताः।। | 5-27-23a 5-27-23b |
विप्रविद्धकुथा नागाश्छिन्नभाण्डाः परासवः। सारोहास्तु रणे पेतुर्मथिता मार्गणैर्भृशम्।। | 5-27-24a 5-27-24b |
सर्ष्टिप्रासासिनखराः समुद्गरपरश्वथाः। विच्छिन्ना बाहवः पेतुर्नृणां भल्लैः किरीटिना।। | 5-27-25a 5-27-25b |
बालादित्याम्बुजेन्दूनां तुल्यरूपाणि मारिष। संच्छिन्नान्यर्जुनशरैः शिरांस्युर्वी प्रपेदिरे।। | 5-27-26a 5-27-26b |
जज्वालालङ्कृता सेना पत्रिभिः प्राणिभोजनैः। नानारूपैस्तदाऽमित्रान्क्रुद्धेनिघ्नति फल्गुने।। | 5-27-27a 5-27-27b |
क्षोभयन्तं तदा सेनां द्विरदं नलिनीमिव। धनञ्जयं भूतगणाः साधुसाध्वित्यपूजयन्।। | 5-27-28a 5-27-28b |
दृष्ट्वा तत्कर्म पार्थस्य वासवस्येव माधवः। विस्मयं परमं गत्वा प्राञ्जलिस्तमुवाच ह।। | 5-27-29a 5-27-29b |
कर्मैतत्पार्थ शक्रेण यमेन धनदेन च। दुष्करं समरे यत्ते कृतमद्येति मे मतिः।। | 5-27-30a 5-27-30b |
युगपच्चैव सङ्ग्रामे शतशोऽथ सहस्रशः। पतिता एव मे दृष्टाः संशप्तकमहारथाः।। | 5-27-31a 5-27-31b |
संशप्तकांस्ततो हत्वा भूयिष्ठा ये व्यवस्थिताः। भगदत्ताय याहीति कृष्णं पार्थोऽभ्यनोदयत्।। | 5-27-32a 5-27-32b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि संशप्तकवधपर्वणि द्वादशदिवसयुद्धे सप्तविंशोऽध्यायः।। 27 ।। |
5-27-2 विकुर्वाणे विविधाः क्रियाः कुर्वाणे।। 5-27-6 सहः सोढा। पचाद्यच।। 5-27-9 विस्मितं रूढाहङ्कारम्।। 5-27-11 समारोहन्संवृतवन्तः।। 5-27-27 सप्तविंशोऽध्यायः।।
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