महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-133
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भीमेन कर्णसहकारिणो दुर्जयस्य वधः।। 1 ।।
धृतराष्ट्र उवाच। | 5-133-1x |
अत्यद्भुतमहं मन्ये भीमसेनस्य विक्रमम्। यत्कर्णं योधयामास समरे लघुविक्रमः।। | 5-133-1a 5-133-1b |
त्रिदशानपि वा युक्तान्सर्वशस्त्रधरान्युधि। वारयेद्यो रणे कर्णः सयक्षासुरमानुषान्।। | 5-133-2a 5-133-2b |
स कथं पाण्डवं युद्धे भ्राजमानमिव श्रिया। नातरत्संयुगे तात तन्ममाचक्ष्व सञ्जय।। | 5-133-3a 5-133-3b |
कथं च युद्धं सम्भूतं तयोः प्राणदुरोदरे। अत्र मन्ये समायत्तो जयो वाऽजय एव च।। | 5-133-4a 5-133-4b |
कर्णं प्राप्य रणे सूत मम पुत्रः सुयोधनः। जेतुमुत्सहते पार्थान्सगोविन्दान्ससात्वतान्।। | 5-133-5a 5-133-5b |
श्रुत्वा तु निर्जितं कर्णमसकृद्भीमकर्मणा। भीमसेनेन समरे मोह आविशतीव माम्।। | 5-133-6a 5-133-6b |
विनष्टान्कौरवान्मन्ये मम पुत्रस्य दुर्नयैः। नहि कर्णो महेष्वासान्पार्थाञ्जेष्यति सञ्जय।। | 5-133-7a 5-133-7b |
कृतवान्यानि युद्धानि कर्णः पाण्डुसुतैः सह। सर्वत्र पाण्डवाः कर्णमजयंस्ते रणाजिरे।। | 5-133-8a 5-133-8b |
अजेयाः पाण्डवास्तात देवैरपि सवासवैः। न च तद्बुध्यते मन्दः पुत्रो दुर्योधनो मम।। | 5-133-9a 5-133-9b |
धनं धनेश्वरस्येव हृत्वा पार्थस्य मे सुतः। मधुप्रेप्सुरिवाबुद्धिः प्रपातं नावबुध्यते।। | 5-133-10a 5-133-10b |
निकृत्या निकृतिप्रज्ञो राज्यं हृत्वा महात्मनाम्। जितमित्येव मन्वानः पाण्डवानवमन्यते।। | 5-133-11a 5-133-11b |
पुत्रस्नेहाभिभूतेन मया चाप्यकृतात्मना। धर्मे स्थिता महात्मानो निकृताः पाण्डुनन्दनाः।। | 5-133-12a 5-133-12b |
शमकामः ससोदर्यो दीर्घप्रेक्षी युधिष्ठिरः। अशक्त इति मत्वा तु मम पुत्रैर्निराकृतः।। | 5-133-13a 5-133-13b |
तानि दुःखान्यनेकानि विप्रकारांश्च सर्वशः। हृदि कृत्वा महाबाहुर्भीमोऽयुध्यत सूतजम्।। | 5-133-14a 5-133-14b |
तस्मान्मे सञ्जय ब्रूहि कर्णभीमौ यथा रणे। अयुध्येतां युधांश्रेष्ठौ परस्परवधैषिणौ।। | 5-133-15a 5-133-15b |
सञ्जय उवाच। | 5-133-16x |
शृणु राजन्यथावृत्तं सङ्ग्रामं कर्णभीमयोः। परस्परवधप्रेप्स्वोर्वनकुञ्जरयोरिव।। | 5-133-16a 5-133-16b |
राजन्वैकर्तनो भीमं क्रुद्धः क्रुद्धमरिन्दमम्। पराक्रान्तं पराक्रम्य विव्याध त्रिंशता शरैः।। | 5-133-17a 5-133-17b |
महावेगैः प्रसन्नाग्रैः शातकुम्भपरिष्कृतैः। नातरद्भरतश्रेष्ठ भीमं वैकर्तनः शरैः।। | 5-133-18a 5-133-18b |
तस्यास्यतो धनुर्भीमश्चकर्त विशिखैस्त्रिभिः। रथनीडाच्च यन्तारं भल्लेनापातयत्क्षितौ।। | 5-133-19a 5-133-19b |
स काङ्क्षन्भीमसेनस्य वधं वैकर्तनो भृशम्। शक्तिं कनकवैदूर्यचित्रदण्डां परामृशत्।। | 5-133-20a 5-133-20b |
प्रगृह्य च महाशक्तिं कालरात्रिमिवापराम्। समुत्क्षिप्य च राधेयः सन्धाय च महाबलः। चिक्षेप भीमसेनाय जीवितान्तकरीमिव।। | 5-133-21a 5-133-21b 5-133-21c |
शक्तिं विसृज्य राधेयः पुरन्दर इवाशनिम्। ननाद सुमहानादं बलवान्सूतनन्दनः।। | 5-133-22a 5-133-22b |
तं च नादं ततः श्रुत्वा पुत्रास्ते हर्षिताऽभवन्।। | 5-133-23a |
शक्तिं वियति चिच्छेद भीमः सप्तभिराशुगैः।। | 5-133-24a |
छित्त्वा शक्तिं ततो भीमो निर्मुक्तोरगसन्निभाम्। मार्गमाणामिव प्राणान्सूतपुत्रस्य मारिष।। | 5-133-25a 5-133-25b |
प्राहिणोत्कृतसंरम्भः शरान्बर्हिणवाससः। स्वर्णपुङ्खाञ्शिलाधौतान्यमदण्डोपमान्मृधे।। | 5-133-26a 5-133-26b |
कर्णोऽप्यन्यद्धनुर्गृह्य हेमपृष्ठं दुरासदम्। विकृष्य तन्महच्चापं व्यसृजत्सायकांस्तदा।। | 5-133-27a 5-133-27b |
तान्पाण्डुपुत्रश्चिच्छेद नवभिर्नतपर्वभिः। वसुषेणेन निर्मुक्तान्नव राजन्महाशरान्। छित्त्वा भीमो महाराज नादं सिंह इवानदत्।। | 5-133-28a 5-133-28b 5-133-28c |
तौ वृषाविव नर्दन्तौ बलिनौ वासितान्तरे। शार्दूलाविव चान्योन्यमामिषार्थेऽभ्यगर्जताम्।। | 5-133-29a 5-133-29b |
अन्योन्यं प्रजिहीर्षन्तावन्योन्यस्यान्तरैषिणौ। अन्योन्यमभिवीक्षन्तौ गोष्ठेष्विव महर्षभौ।। | 5-133-30a 5-133-30b |
महागजाविवसाद्य विषाणाग्रैः परस्परम्। शरैः पूर्णायतोत्सृष्टैरन्योन्यमभिजघ्नतुः।। | 5-133-31a 5-133-31b |
निर्दहन्तौ महाराज शस्त्रवृष्ट्या परस्परम्। अन्योन्यमभिवीक्षन्तौ कोपाद्विवृतलोचनौ।। | 5-133-32a 5-133-32b |
प्रहसन्तौ तथाऽन्योन्यं भर्त्सयन्तौ मुहुर्मुहुः। शङ्खशब्दं च कुर्वाणौ युयुधाते परस्परम्।। | 5-133-33a 5-133-33b |
तस्य भीमः पुनश्चापं मुष्टौ चिच्छेद मारिष। शङ्खवर्णांश्च तानश्वान्बाणैर्निन्ये यमक्षयम्। सारथिं च तथाप्यस्य रथनीडादपातयत्।। | 5-133-34a 5-133-34b 5-133-34c |
ततो वैकर्तनः कर्णश्चिन्तां प्राप दुरत्ययाम्। स च्छाद्यमानः समरे हताश्वो हतसारथिः। मोहितः शरजालेन कर्तव्यं नाभ्यपद्यत।। | 5-133-35a 5-133-35b 5-133-35c |
तथा कृच्छ्रगतं दृष्ट्वा कर्णं दुर्योधनो नृपः। वेपमान इव क्रोधाद्व्यादिदेशाथ दुर्जयम्।। | 5-133-36a 5-133-36b |
गच्छ दुर्जय राधेयं पुरा ग्रसति पाण्डवः। जहि तूबरकं क्षिप्रं कर्णस्य बलमादधत्।। | 5-133-37a 5-133-37b |
एवमुक्तस्तथेत्युक्त्वा तव पुत्रं तवात्मजः। अभ्यद्रवद्भीमसेनं व्यासक्तं विकिरञ्छरैः।। | 5-133-38a 5-133-38b |
स भीमं नवभिर्बाणैरश्वानष्टभिरार्दयत्। षङ्भिः सूतं त्रिभिः केतं पुनस्तं चापि सप्तभिः।। | 5-133-39a 5-133-39b |
भीमसेनोऽपि सङ्क्रुद्धः साश्वयन्तारमाशुगैः। दुर्जयं भिन्नमर्माणमनयद्यमसादनम्।। | 5-133-40a 5-133-40b |
बाढं हतं क्षितौ क्षुण्णं वेष्टमानं यथोरगम्। रुदन्नार्तस्तव सुतं कर्णश्चक्रे प्रदक्षिणम्।। | 5-133-41a 5-133-41b |
स तु तं विरथं कृत्वा स्मयन्नत्यन्तवैरिणम्। समाचिनोद्बाणगणैः शतघ्नीभिश्च शङ्कुभिः।। | 5-133-42a 5-133-42b |
तथाप्यतिरथः कर्णो भिद्यमानोऽस्य सायकैः। न जहौ समरे भीमं क्रुद्धरूपं परन्तपः।। | 5-133-43a 5-133-43b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे त्रयस्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 133 ।। |
5-133-4 प्राणदुरोदरे प्राणद्युते।। 5-133-133 त्रयस्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः।।
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