महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-123
दिखावट
← द्रोणपर्व-122 | महाभारतम् सप्तमपर्व महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-123 वेदव्यासः |
द्रोणपर्व-124 → |
|
सात्यकिना दुःशासनपराजयः।। 1 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-123-1x |
ततो दुःशासनो राजञ्शैनेयं समुपाद्रवत्। किरञ्शरसहस्राणि पर्जन्य इव वृष्टिमान्।। | 5-123-1a 5-123-1b |
स विद्व्वा सात्यकिं षष्ट्या तथा षोडशभिः शरैः। नाकम्पयत्स्थितं युद्धे मैनाकमिव पर्वतम्।। | 5-123-2a 5-123-2b |
तं तु दुःशासनः शूरः सायकैरावृणोद्भृशम्। रथव्रातेन महता नानादेशोद्भवेन च।। | 5-123-3a 5-123-3b |
सर्वतो भरतश्रेष्ठ विसृजन्सायकान्बहून्। पर्जन्य इव घोषेण नादयन्वै दिशो दश।। | 5-123-4a 5-123-4b |
तमापतन्तमालोक्य सात्यकिः कौरवं रणे। अभिद्रुत्य महाबाहुश्छादयामास सायकैः।। | 5-123-5a 5-123-5b |
ते छाद्यमाना बाणौघैर्दुःशासनपुरोगमाः। प्राद्रवन्समरे भीतास्तव सैन्यस्य पश्यतः।। | 5-123-6a 5-123-6b |
तेषु द्रवत्सु राजेन्द्र पुत्रो दुःशानस्तव। तस्थौ व्यपेतभी राजन्सात्यकिं चार्दयच्छरैः।। | 5-123-7a 5-123-7b |
चतुर्भिर्वाजिनस्तस्य सारथिं च त्रिभिः शरैः। सात्यकिं च शतेनाजौ विद्ध्वा नादं मुमोच सः।। | 5-123-8a 5-123-8b |
ततः क्रुद्धो महाराज माधवस्तस्य संयुगे। रथं सूतं ध्वजं तं च चक्रेऽदृश्यमजिह्मगैः।। | 5-123-9a 5-123-9b |
स तु दुःशासनं शूरं सायकैरावृणोद्भृशम्। मशकं समनुप्राप्तमूर्णनाभिरिवोर्णया।। | 5-123-10a 5-123-10b |
त्वरन्समावृणोद्बाणैर्दुःशासनममित्रजित्।। दृष्ट्वा दुःशासनं राजा तथा शरशताचितम्। | 5-123-11a 5-123-11b |
त्रिगर्तांश्चोदयामास युयुधानरथं प्रति।। | 5-123-12a |
तेऽगच्छन्युयुधानस्य समीपं क्रुरकर्मणः। त्रिगर्तानां त्रिसाहस्रा रथा युद्धविशारदाः।। | 5-123-13a 5-123-13b |
ते तु तं रथवंशेन महता पर्यवारयन्। स्थिरां कृत्वा मतिं युद्धे भूत्वा संशप्तका मिथः।। | 5-123-14a 5-123-14b |
तेषां प्रयतमानानां शरवर्षाणि मुञ्चताम्। योधान्पञ्चशतान्मुख्यानग्र्यानीके व्यपोथयत्।। | 5-123-15a 5-123-15b |
तेऽपतन्निहतास्तूर्णं शिनिप्रवरसायकैः। महामारुतवेगेन भग्ना इव नगाद्द्रुमाः।। | 5-123-16a 5-123-16b |
नागैश्च बहुधा च्छिन्नैर्ध्वजैश्चैव विशाम्पते। हयैश्च कनकापीडैः पतितैस्तत्र मेदिनी।। | 5-123-17a 5-123-17b |
शैनेयशरसङ्कृत्तैः शोणितौघपरिप्लुतैः। अशोभत महाराज किंशुकैरिव पुष्पितैः।। | 5-123-18a 5-123-18b |
ते वध्यमानाः समरे युयुधानेन तावकाः। त्रातारं नाध्यगच्छन्त पङ्कमग्ना इव द्विपाः।। | 5-123-19a 5-123-19b |
ततस्ते पर्यवर्तन्त सर्वे द्रोणरथं प्रति। भयात्पतगराजस्य गर्तानीव महोरगाः।। | 5-123-20a 5-123-20b |
हत्वा पञ्चशतान्योधाञ्छरैराशीविषोपमैः। प्रायात्स शनकैर्वीरो धनञ्जयरथं प्रति।। | 5-123-21a 5-123-21b |
तं प्रयान्तं नरश्रेष्ठं पुत्रो दुःशासनस्तव। विव्याध नवभिस्तूर्णं शरैः सन्नतपर्वभिः।। | 5-123-22a 5-123-22b |
स तु तं प्रतिविव्याध पञ्चभिर्निशितैः शरैः। रुक्मपुङ्खैर्महेष्वासो गार्ध्रपत्रैरजिह्मगैः।। | 5-123-23a 5-123-23b |
सात्यकिं तु महाराज प्रहसन्निव भारत। दुःशासनस्त्रिभिर्विद्ध्वा पुनर्विव्याध पञ्चभिः।। | 5-123-24a 5-123-24b |
शैनेयस्तव पुत्रं तु हत्वा पञ्चभिराशुगैः। धनुश्चास्य रणे छित्त्वा विस्मयन्नर्जुनं ययौ।। | 5-123-25a 5-123-25b |
ततो दुःशासनः क्रुद्धो वृष्णिवीराय गच्छते। सर्वपारशवीं शक्तिं विससर्ज जिघांसया।। | 5-123-26a 5-123-26b |
तां तु शक्तिं तदा घोरां तव पुत्रस्य सात्यकिः। चिच्छेद शतधा राजन्निशितैः कङ्कपत्रिभिः।। | 5-123-27a 5-123-27b |
अथान्यद्धनुरादाय पुत्रस्तव जनेश्वर। सात्यकिं च शरैर्विद्ध्वा सिंहनादं ननाद च।। | 5-123-28a 5-123-28b |
सात्यकिस्तु रणे क्रुद्धो मोहयित्वा सुतं तव। शरैरग्निशिखाकारैराजघान स्तनान्तरे।। | 5-123-29a 5-123-29b |
त्रिभिरेव महाभागः शरैः सन्नतपर्वभिः। सर्वायसैस्तीक्ष्णवक्त्रैः पुनर्विव्याध चाष्टभिः।। | 5-123-30a 5-123-30b |
दुःशासनस्तु विंशत्या सात्यकिं प्रत्यविध्यत। सात्वतोऽपि महाराज तं विव्याध स्तनान्तरे।। | 5-123-31a 5-123-31b |
त्रिभिरेव महाभागः शरैः सन्नतपर्वभिः। ततोऽस्य वाहान्निशितैः शरैर्जघ्ने महारथः।। | 5-123-32a 5-123-32b |
सारथिं च सुराङ्क्रुद्धः शरैः सन्नतपर्वभिः। धनुरेकेन भल्लेन हस्तावापं च पञ्चभिः।। | 5-123-33a 5-123-33b |
ध्वजं च रथशक्तिं च भल्लाभ्यां परमस्त्रिवित्। चिच्छेद विशिखैस्तीक्ष्णैस्तथोभौ पार्ष्णिसारथी।। | 5-123-34a 5-123-34b |
स च्छिन्नधन्वा विरथो हताश्वो हतसारथिः। त्रिगर्तसेनापतिना स्वरथेनापवाहितः।। | 5-123-35a 5-123-35b |
तमभिद्रुत्य शैनेयो मुहूर्तमिव भारत। न जघान महाबाहुर्भीमसेनवचः स्मरन्।। | 5-123-36a 5-123-36b |
भीमसेनेन तु वधः सुतानां तव भारत। प्रतिज्ञातः सभामध्ये सर्वेषामेव संयुगे।। | 5-123-37a 5-123-37b |
ततो दुःशासनं जित्वा सात्यकिः संयुगे प्रभो। जगाम त्वरितो राजन्येन यातो धनञ्जयः।। | 5-123-38a 5-123-38b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे त्रयोविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 123 ।। |
द्रोणपर्व-122 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-124 |