महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-032
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सङ्कुलयुद्धवर्णनम्।। 1 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-32-1x |
प्रतिघातं तु सैन्यस्य नामृष्यत वृकोदरः। सोऽभ्याहनद्गुरुं षष्ट्या कर्णं च दशभिः शरैः।। | 5-32-1a 5-32-1b |
तस्य द्रोणः शितैर्बाणैस्तीक्ष्णधारैरजिह्मगैः। जीवितान्तमभिप्रेप्सुर्मर्मण्याशु जघान ह।। | 5-32-2a 5-32-2b |
आनन्तर्यमभिप्रेप्सुः षड्विंशत्या शमार्पयत्। कर्णो द्वादशभिर्बाणैरश्वत्थामा च सप्तभिः।। | 5-32-3a 5-32-3b |
षङ्भिर्दुर्योधनो राजा तत एनमथाकिरत्। भीमसेनोऽपि तान्सर्वान्प्रत्यविध्यन्महाबलः।। | 5-32-4a 5-32-4b |
द्रोणं पञ्चाशतेषूणां कर्णं च दशभिः शरैः। दर्योधनं द्वादशभिर्दौणिमष्टाभिराशुगैः।। | 5-32-5a 5-32-5b |
आरावं तुमुलं कुर्वन्नभ्यवर्तत तान्रणे। तस्मिन्सन्त्यति प्रामान्मृत्युसाधारणीकृते।। | 5-32-6a 5-32-6b |
अजातशत्रुस्तान्योधान्भीमं त्रातेत्यचोदयत्। ते ययुर्भीमसेनस्य समीपममितौजसः।। | 5-32-7a 5-32-7b |
युयुधानप्रभृतयो माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ। ते समेत्य सुसंरब्धाः सहिताः पुरुषर्षभाः।। | 5-32-8a 5-32-8b |
महेष्वासवरैर्गुप्ता द्रोणानीकं बिभित्सवः। समापेतुर्महावीर्या भीमप्रभृतयो रथाः।। | 5-32-9a 5-32-9b |
तान्प्रत्यगृह्णादव्यग्रो द्रोणोऽपि रथिनां वरः। महारथानतिबलान्वीरान्समरयोधिनः।। | 5-32-10a 5-32-10b |
बाह्यं मृत्युभयं कृत्वा तावकान्पाण्डवा ययुः। सादिनः सादिनोऽब्यघ्नंस्तथैव रथिनो रथान्।। | 5-32-11a 5-32-11b |
असिशक्त्यृष्टिसङ्घातैर्युद्धमासीत्परश्वथैः। प्रकृष्टमसियुद्धं च बभूव कटुकोदयम्।। | 5-32-12a 5-32-12b |
कुञ्जराणां च सम्पाते युद्धमासीत्सुदारुणम्। अपतत्कुञ्जरादन्यो हयादन्यस्त्ववाक्शिराः।। | 5-32-13a 5-32-13b |
नरो बाणविनिर्भिन्नो रथादन्यश्च मारिष। तत्रान्यस्य च सम्पर्दे पतितस्य विवर्मणः।। | 5-32-14a 5-32-14b |
शिरः प्रध्वंसयामास वक्षस्याक्रम्य कुञ्जरः। अपरांश्चापरेऽमृद्रन्वारणाः पतितान्नरान्।। | 5-32-15a 5-32-15b |
विषाणैश्चावनिं गत्वा व्यभिन्दन्रथिनो बहून्। नरान्त्रैः केचिदपरे विषाणालग्नसंश्रयैः।। | 5-32-16a 5-32-16b |
बभ्रमुः समरे नागा मृद्रन्तः शतशो नरान्। कार्ष्णायसतनुत्राणान्नराश्वरथकुञ्जरान्।। | 5-32-17a 5-32-17b |
पतितान्पोथयाञ्चक्रुर्द्विपाः स्थूलनलानिव। गृध्रपत्राधिवासांसि शयनानि नारधिपाः।। | 5-32-18a 5-32-18b |
हीमन्तः कालसम्पर्कात्सुदुःस्वान्यनुशेरते। हन्ति स्मात्र पिता पुत्रं रथेनाभ्येत्य संयुगे।। | 5-32-19a 5-32-19b |
पुत्रश्च पितरं मोहान्निर्मर्यादमवर्तत। रथो भग्नो ध्वजश्छिन्नश्छत्रमुर्व्यों निपातितम्।। | 5-32-20a 5-32-20b |
युगार्धं च्छिन्नमादाय प्रदुद्राव तथा हयः। सासिर्बाहुर्निपतितः शिरश्छिन्नं सकुण्डलम्।। | 5-32-21a 5-32-21b |
गजेनाक्षिप्य बलिना रथः सञ्चूर्णितः क्षितौ। रथिना ताडितो नागो नाराचेनापतत्क्षितौ।। | 5-32-22a 5-32-22b |
सारोहश्चापतद्वाजी गेजेनाभ्याहतो भृशम्। निर्मर्यादं महद्युद्धमवर्तत सुदारुणम्।। | 5-32-23a 5-32-23b |
हा तात हा पुत्र सखे क्वासि तिष्ठ क्व धावसि। प्रहराहर जह्मेनं स्मितश्वेडितगर्जितैः। इत्येवमुच्चैरत्यर्थं श्रूयन्ते विविधा गिरः।। | 5-32-24a 5-32-24b 5-32-24c |
नरस्याश्वस्य नाग्स्य समसञ्जत शोणितम्। उपाशाम्यद्रजो भौमं भीरून्कश्मलमाविशत्।। | 5-32-25a 5-32-25b |
चक्रेण चक्रमासाद्य वीरो वीरस्य संयुगे। अतीतेषुपथे काले जहार गदया सिरः।। | 5-32-26a 5-32-26b |
असीत्केशपरामर्शो मुष्टियुद्धं च दारुणम्। नखैर्दन्तैश्च सूराणामद्वीपे द्वीपमिच्छताम्।। | 5-32-27a 5-32-27b |
तत्राच्छिद्यत शूरस्य सखङ्गो बाहुरुद्यतः। सधुनश्चापरस्यापि सशरः साङ्कुशस्तथा।। | 5-32-28a 5-32-28b |
आक्रोशदन्यमन्योऽत्र तथाऽन्यो विमुखोऽद्रवत्। अन्यः प्राप्तस्य चान्यस्य शिरः कायादपाहरत्।। | 5-32-29a 5-32-29b |
सशब्दमद्रवच्चान्यः शब्दादन्योऽत्रसद्भृशम्। स्वानन्योऽथ परानन्यो जघान निशितैः शरैः।। | 5-32-30a 5-32-30b |
गिरिशृङ्गोपमश्चात्र नाराचेन निपातितः। मातङ्गो न्यपतद्भूमौ नदीरोध इवोष्णगे।। | 5-32-31a 5-32-31b |
तथैव रथिनं नागः क्षरन्गिरिरिवारुजन्। अभ्यतिष्ठत्पदा भूमौ सहाश्वं सहसारथिम्।। | 5-32-32a 5-32-32b |
शूरान्प्रहरतो दृष्ट्वा कृताश्स्त्रान्रुधिरोक्षितान्। बहूनप्याविशन्मोहो भीरून्हृदयदुर्बलान्।। | 5-32-33a 5-32-33b |
सर्वमाविग्नमभवन्न प्राज्ञायत किञ्चन। सैन्येन रजसा ध्वस्तं निर्मर्यादमवर्तत।। | 5-32-34a 5-32-34b |
ततः सेनापतिः शीघ्रमयं क्राल इति ब्रुवन्। नित्याभित्वरितानेव त्वरयामास पाण्डवान्।। | 5-32-35a 5-32-35b |
कुर्वन्तः शासनं तस्य पाण्डवा बाहुशालिनः। सरो हंसा इवापेतुर्घ्नन्तो द्रोणरथं प्रति।। | 5-32-36a 5-32-36b |
गृह्णीताद्रवतान्योन्यं विभीता विनिकृन्तत। इत्यासीत्तुमुलः शब्दो दुर्धर्षस्य रथं प्रति।। | 5-32-37a 5-32-37b |
ततो द्रोणः कृपः कर्णो द्रौणी राजा जयद्रथः। विन्दानुविन्दावावन्त्यौ शल्यश्चैतान्न्यवारयन्।। | 5-32-38a 5-32-38b |
ते त्वार्यधर्मसंरब्धा दुर्निवारा दुरासदाः। शरार्ता न जहुर्द्रोणं पाञ्चालाः पाण्डवै सह।। | 5-32-39a 5-32-39b |
ततो द्रोणोऽतिसंक्रुद्धो विसृजञ्शतशः शरान्। चेदिपाञ्चालपाण्डूनामकरोत्कदनं महत्।। | 5-32-40a 5-32-40b |
तस्य ज्यातलनिर्घोषः शुश्रुवे दिक्षं मारिष। वज्रसंह्रादसङ्काशस्त्रासयन्मानवान्बहून्।। | 5-32-41a 5-32-41b |
एतस्मिन्नन्तरे जिष्णुर्जित्वा संशप्तकान्बहून्। अभ्ययात्तत्र यत्रासौ द्रोणः पाण्डून्प्रमर्दति।। | 5-32-42a 5-32-42b |
ताञ्शरौघान्महावर्ताञ्शोणितोदान्महाहदान्। तीर्णः संशप्तकान्हत्वा प्रत्यदृश्यत फल्गुनः।। | 5-32-43a 5-32-43b |
तस्य कीर्तिमतो लक्ष्म सूर्यप्रतिमतेजसः। दीप्यमानमपश्याम तेजसा वानरध्वजम्।। | 5-32-44a 5-32-44b |
संशप्तकसमुद्रं तमुच्छोष्यास्त्रगभस्तिभिः। स पाण्डवयुगान्तार्कः कुरूनप्यभ्यतीतपत्।। | 5-32-45a 5-32-45b |
प्रददाह कुरून्सर्वानर्जुनः शस्त्रतेजसा। युगान्ते सर्वभूतानि धूमकेतुरिवोत्थितः।। | 5-32-46a 5-32-46b |
तेन बाणसहस्रौधैर्गजाश्वरथयोधिनः। ताड्यमानाः क्षितिं जग्मुर्मुक्तकेशाःशरार्दिताः।। | 5-32-47a 5-32-47b |
केचिदार्तस्वनं चक्रुर्विनेशुरपरे पुनः। पार्थबाणहताः केचिन्निपेतुर्विगतासवः।। | 5-32-48a 5-32-48b |
तेषामुत्पतितान्कांश्चित्पतितांश्च पराङ्मुखान्। न जघानार्जुनो योधान्योधव्रतमनुस्मरन्।। | 5-32-49a 5-32-49b |
ते विकीर्णरथाश्चित्राः प्रायशश्च पराङ्मुखः। कुरवः कर्णकर्णेति हाहेति च विचुक्रुशुः।। | 5-32-50a 5-32-50b |
तमाधिरथिराक्रन्दं विज्ञाय शरणैषिणाम्। मा भैष्टेति प्रतिश्रुत्य ययावभिमुखोऽर्जुनम्।। | 5-32-51a 5-32-51b |
स भारतरथश्रेष्ठः सर्वभारतहर्षणः। प्रादुश्चक्रे तदाग्नेयमस्त्रमस्त्रविदां वारः।। | 5-32-52a 5-32-52b |
तस्य दीप्तशरौघस्य दीप्तचापधरस्य च। `वारुणेन तदस्त्रेण विधूयाथ धनञ्जयः'। शरौघाञ्शरजालेन विदुधाव धनञ्जयः।। | 5-32-53a 5-32-53b 5-32-53c |
तथैवाधिरथिस्तस्य बाणाज्ज्वलिततेजसः। अस्त्रमस्त्रेण संवार्य प्राणदद्विसृजञ्शरान्।। | 5-32-54a 5-32-54b |
धृष्टद्युम्नश्च भीमश्च सात्यकिश्च महारथः। विव्यधुः कर्णमासाद्य त्रिभिस्त्रिभिरजिह्मगैः।। | 5-32-55a 5-32-55b |
अर्जुनास्त्रं तु राधेयः संवार्य शरवृष्टिभिः। तेषां त्रयाणां चापानि चिच्छेद विशिखैस्त्रिभिः।। | 5-32-56a 5-32-56b |
ते निकृत्तायुघाः शूरा निर्विषा भुजगा इव। रथशक्तीः समुत्क्षिप्य भृशं सिंहा इवानदन्।। | 5-32-57a 5-32-57b |
ता भुजाग्रैर्महावेगा निसृष्टा भुजगोपमाः। दीप्यमाना महाशक्त्यो जग्मुराधिरथिं प्रति।। | 5-32-58a 5-32-58b |
ता निकृत्य शरव्रातैस्त्रिभिस्त्रिभिरजिह्मगैः। ननाद बलवान्कर्णः पार्थाय विसृजञ्शरान्।। | 5-32-59a 5-32-59b |
अर्जुनश्चापि राधेयं विद्ध्वा सप्तभिराशुगैः। कर्णादवरजं बाणैर्जघान निशितैः शरैः।। | 5-32-60a 5-32-60b |
ततः शत्रुंजयं हत्वा पार्थः षङ्भिरजिह्मगैः। जहार सद्यो भल्लेन विपाटस्य शिरो रथात्।। | 5-32-61a 5-32-61b |
पश्यतां धार्तराष्ट्राणामेकेनैव किरीटिना। प्रमुखे सूतपुत्रस्य सोदर्या निहतास्त्रयः।। | 5-32-62a 5-32-62b |
ततो भीमः समुत्पत्य स्वरथाद्वैनतेयवत्। वरासिना कर्णपक्षाञ्जधान दश पञ्च च।। | 5-32-63a 5-32-63b |
पुनस्तु रथमास्थाय धनुरादाय चापरम्। विव्याध दशभिः कर्णं सूतमश्वांश्च पञ्चभिः।। | 5-32-64a 5-32-64b |
धृष्टद्युम्नोऽप्यसिवरं चर्म चादाय भास्वरम्। जघान चन्द्रवर्माणं बृहत्क्षत्रं च नैषधम्।। | 5-32-65a 5-32-65b |
ततः स्वरथमास्थाय पाञ्चाल्योऽन्यच्च कार्मुकम्। आदाय कर्णं विव्याध त्रिसप्तत्या नदन्रणे।। | 5-32-66a 5-32-66b |
शैनेयोऽप्यन्यदादाय धनुरिन्दुसमद्युतिः। सूतपुत्रं चतुःषष्ट्या विद्ध्वा सिंह इवानदत्।। | 5-32-67a 5-32-67b |
भल्लाभ्यां साधु मुक्ताभ्यां छित्त्वा कर्णस्य कार्मुकम्। पुनः कर्णं त्रिभिर्बाणैर्बाह्वोरुरसि चार्पयत्।। | 5-32-68a 5-32-68b |
ततो दुर्योधनो द्रोणो राजा चैव जयद्रथः। निम़ज्जमानं राधेयमुज्जह्रुः सात्यकार्णवात्।। | 5-32-69a 5-32-69b |
पत्त्यश्वरथमातङ्गास्त्वदीयाः शतशोऽपरे। कर्णमेवाभ्यधावन्त त्रास्यमानाः प्रहारिणः।। | 5-32-70a 5-32-70b |
धृष्टद्युम्नश्च भीमश्च सौभद्रोऽर्जुन एव च। नकुलः सहदेवश्च सात्यकिं जुगुपू रणे।। | 5-32-71a 5-32-71b |
एवमेष महारौद्रः क्षयार्थं सर्वधन्विनाम्। तावकानां परेषां च त्यक्त्वा प्राणानभूद्रणः।। पदातिरथनागाश्वा गजाश्वरथपत्तिभिः। रथिनो नागपत्त्यश्वैरथ पत्तीरथ द्विपैः।। | 5-32-72a 5-32-72b 5-32-73c 5-32-73d |
अश्वैरश्वा गजैर्नागा रथिनो रथिभिः सह। संयुक्ताः समदृश्यन्त पत्तयश्चापि पत्तिभिः।। एवं सुकलिलं युद्धमासीत्क्रव्यादहर्षणम्। महद्भिस्तैरभीतानां यमराष्ट्रविवर्धनम्।। | 5-32-74a 5-32-74b 5-32-75c 5-32-75d |
ततो हता नररथवाजिकुञ्जरै रनेकशो द्विपरथपत्तिवाजिनः। गजैर्गजा रथिभिरुदायुधा रथा। हयैर्हयाः पत्तिगणैश्च पत्तयः।। | 5-32-76a 5-32-76b 5-32-76c 5-32-76d |
रथैर्द्विपा द्विरदवरैर्महाहया हयैर्नरा वररथिभिश्च वाजिनः। निरस्तजिह्वादशनेक्षणाः क्षितौ क्षयं गताः प्रमथितवर्मभूषणाः।। | 5-32-77a 5-32-77b 5-32-77c 5-32-77d |
तथा परैर्बहुकरणैर्वरायुधै- र्हता गताः प्रतिभयदर्शनाः क्षितिम्। विपोथिता हयगजपादताडिता भृशाकुला रथमुखनेमिभिः क्षताः।। | 5-32-78a 5-32-78b 5-32-78c 5-32-78d |
प्रमोदने श्वापदपक्षिरक्षसां जनक्षये वर्तति तत्र दारुणे। महाबलास्ते कुपिताः परस्परं निषूदयन्तः प्रविचेरुरोजसा।। | 5-32-79a 5-32-79b 5-32-79c 5-32-79d |
ततो बले भृशलुलिते परस्परं निरीक्षमाणे रुधिरौघसम्प्लुते। दिवाकरेऽस्तंगिरिमास्थिते शनै रुभे प्रयाते शिबिराय भारत।। | 5-32-80a 5-32-80b 5-32-81c 5-32-81d |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि संशप्तकवधपर्वणि द्वादशदिवसयुद्धावहारे द्वात्रिंशोऽध्यायः।। 32 ।। |
5-32-6 मृत्युसाधारणीकृते मरणतुल्यावस्थां गमिते।। 5-32-12 कटुकस्य परुषस्योदयो यत्र।। 5-32-16 अविनं गत्वा अभित्य। विषाणालग्नसंश्रयैः दन्तलग्नैकदेशैः।। 5-32-18 गृध्रपक्षाधिवासांसि गृध्रपक्षास्तरणानि।। 5-32-25 समसज्जत घनतामगमत्।। 5-32-26 अतीतः इषुपथः शरावकाशो यत्र।। 5-32-27 द्वीपमाश्रयम्।। 5-32-29 आक्रोशत् आहूतवान्।। 5-32-32 क्षरन्मदमिति शेषः। रथिनं तथैव सहसारथिं अर्थाद्रथं च पदा आरुजन् भूमौ अभ्यतिष्ठदित्यन्वयः।। 5-32-37 विभीता अभीताः। दुर्धर्षस्य द्रोणस्य।। 5-32-39 आर्यधर्मेण संरब्धाः सोद्यमाः।। 5-32-53 विदुधाव खण्डितवान्।। 5-32-61 विघातस्य शिर इति क.पाठः।। 5-32-72 प्राणांस्त्यक्त्वा युध्यतामिति शेषः।। 5-32-75 अभीतानामभिमुखागतानां भयहीनानां वा।। 5-32-78 बहुकरणैरनेकप्रक्रियैः। रथमुखानां रथमुख्यानां नेमिभिश्चक्रान्तैः।। 5-32-32 द्वात्रिंशोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-031 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-033 |