महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-177
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बकादिबन्धुवधाद्भीमे चिरवैरिणा अलायुधराक्षसेन सुयोधनादायोधनाक्ष्यनुज्ञामुपलक्ष्य घटोत्कचं प्रत्यभिगमनम्।। 1 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-177-1x |
तस्मिंस्तथा वर्तमाने कर्णराक्षसयोर्मृधे। अलायुधो राक्षसेन्द्रो वीर्यवानभ्यवर्तत।। | 5-177-1a 5-177-1b |
महत्या सेनया युक्तो दुर्योधनमुपागमत्। राक्षसानां विरूपाणां सहस्रैः परिवारितः। नानारूपधरैर्वीरैः पूर्ववैरमनुस्मरन्।। | 5-177-2a 5-177-2b 5-177-2c |
तस्य ज्ञातिर्हि विक्रान्तो ब्राह्मणादो बको हतः। किर्णीरश्च महातेजा हिडिम्बश्च सखा तदा।। | 5-177-3a 5-177-3b |
स दीर्घकालाध्युपितं पूर्ववैरमनुस्मरन्। विज्ञायैतन्निशायुद्धं जिघांसुर्भीममाहवे।। | 5-177-4a 5-177-4b |
स मत्त इव मातङ्गः सङ्क्रुद्व इव चोरगः। दुर्योधनमिदं वाक्यमब्रवीद्युद्वलालसः।। | 5-177-5a 5-177-5b |
विदितं ते महाराज यथा भीमेन राक्षसाः। हिडिम्बबककिर्मीरा निहता मम बान्धवाः।। | 5-177-6a 5-177-6b |
परामर्शश्च कन्याया हिडिम्बायाः कृतः पुरा। किमन्यद्राक्षसानन्यानस्मांश्च परिभूय ह।। | 5-177-7a 5-177-7b |
तमहं सगणं राजन्सवाजिरथकुञ्जरम्। हैडिम्बिं च सहामात्यं हन्तुमभ्यागतः स्वयम्।। | 5-177-8a 5-177-8b |
अद्य कुन्तीसुतान्सर्वान्वासुदेवपुरोगमान्। हत्वा सम्भक्षयिष्यामि सर्वैरनुचरैः सह।। | 5-177-9a 5-177-9b |
निवारय बलं सर्वं वयं योत्स्याम पाण्डवान्।। | 5-177-10a |
तस्यैतद्वचनं श्रुत्वा हृष्टो दुर्योधनस्तदा। प्रतिपूज्याब्रवीद्वाक्यं भ्रातृभिः परिवारितः।। | 5-177-11a 5-177-11b |
त्वां पुरस्कृत्य सगणं वयं योत्स्यामहे परान्। न हि वैरान्तमनसः स्थास्यन्ति मम सैनिकाः।। | 5-177-12a 5-177-12b |
एवमस्त्विति राजानमुक्त्वा राक्षसपुङ्गवः। अभ्ययात्त्वरितो भैमिं सहितः पुरुषादकैः।। | 5-177-13a 5-177-13b |
दीप्यमानेन वपुषा रथेनादित्यवर्चसा। तादृशेनैव राजेन्द्र यादृशेन घटोत्कचः।। | 5-177-14a 5-177-14b |
तस्याप्यतुलनिर्घोपो बहुतोरणचित्रितः। ऋक्षचर्मावनद्वाङ्गो नल्वमात्रो महारथः।। | 5-177-15a 5-177-15b |
तस्यापि तुरगाः शीघ्रा हस्तिकायाः खरस्वनाः। शतं युक्ता महाकाया मांसशोणितभोजनाः।। | 5-177-16a 5-177-16b |
तस्यापि रथनिर्घोपो महामेघरवोपमः। स्यापि सुमहच्चापं दृढज्यं कनकोज्ज्वलम्।। तस्याप्यक्षसमा बाणा रुक्म पुङ्खाः शिलाशिताः। सोऽपि वीरो महाबाहुर्यथैव स घटोत्कचः।। | 5-177-17a 5-177-17b 5-177-18c 5-177-18d |
तस्यापि गोमायुबलाभिगुप्तो बभूव केतुर्ज्वलनार्कतुल्यः। स चापि रूपेण घटोत्कचस्य श्रीमत्तमो ह्यन्तकसन्निकाशः।। | 5-177-19a 5-177-19b 5-177-19c 5-177-19d |
दीप्ताङ्गदो दीप्तकिरीटमाली बद्धस्रगुष्णीषनिबद्धखङ्गः। गदी भुशुण्डी मुसली हली च शरासनी वारणतुल्यवर्ष्मा।। | 5-177-20a 5-177-20b 5-177-20c 5-177-20d |
रथेन तेनानलवर्चसा तदा विद्रावयन्पाण्डववाहिनीं ताम्। रराज सह्ख्ये परिवर्तमानो विद्युन्माली मेघ इवान्तरिक्षे।। | 5-177-21a 5-177-21b 5-177-21c 5-177-21d |
ते चापि सर्वप्रवरा नरेन्द्रा महाबला वर्मिमश्चर्मिणश्च। हर्षान्विता युयुधुस्तस्य राजन् समन्ततः पाण्डवयोधवीराः।। | 5-177-22a 5-177-22b 5-177-22c 5-177-22d |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि चतुर्दशरात्रियुद्धे सप्तसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 177 ।। |
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