महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-141
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सात्यकेरर्जुनदर्शनं भूरिश्रवसा समागमश्च।। 1 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-141-1x |
तमुद्यतं महाबाहुं दुःशासनरथं प्रति। त्वरितं त्वरणीयेषु धनञ्जयजयैषिणम्।। | 5-141-1a 5-141-1b |
त्रिगर्तानां महेष्वासाः सुवर्णविकृतध्वजाः। सेनासमुद्रमाविष्टमनन्तं पर्यवारयन्।। | 5-141-2a 5-141-2b |
अथैनं रथवंशेन सर्वतः सन्निवार्य ते। अवाकिरञ्छरव्रातैः क्रुद्धाः परमधन्विनः।। | 5-141-3a 5-141-3b |
अजयद्राजपुत्रांस्तान्भ्राजमानान्महारणे। एकः पञ्चाशतं शत्रून्सात्यकिः सत्यविक्रमः।। | 5-141-4a 5-141-4b |
सम्प्राप्य भारतीमध्यं तलघोषसमाकुलम्। असिशक्तिगदापूर्णमप्लुवं सागरं यथा।। | 5-141-5a 5-141-5b |
`अथैनमनुवृत्तास्तु त्रिगर्ताः सहिताः पुनः। तीव्रेण रथवंशेन महता पर्यवारयन्। विकर्षन्तोऽतिमात्राणि चापानि भरतर्षभ'।। | 5-141-6a 5-141-6b 5-141-6c |
तत्राद्भुतमपश्याम शैनेयचरितं रणे। प्रतीच्यां दिशि तं दृष्ट्वा प्राच्यां पश्यामि लाघवात्।। | 5-141-7a 5-141-7b |
उदीचीं दक्षिणां प्राचीं प्रतीचीं विदिशस्तथा। पुनर्मध्यगतो वीर आहवे युद्धदुर्मदः।। | 5-141-8a 5-141-8b |
एकः पर्यचरन्रङ्गे बहुधा स महाबलः। नृत्यन्निवाचरच्छूरो यथा रथशतं तथा।। | 5-141-9a 5-141-9b |
तद्दृष्ट्वा चरितं तस्य सिंहविक्रान्तगामिनः। त्रिगर्ताः सन्न्यवर्तन्त सन्तप्ताः स्वजनं प्रति।। | 5-141-10a 5-141-10b |
तमन्ये शूरसेनानां शूराः सङ्ख्ये न्यवारयन्। नियच्छन्तः शरव्रातैर्मत्तं द्विपमिवाङ्कुशैः।। | 5-141-11a 5-141-11b |
तैर्व्यवाहरदार्यात्मा मुहूर्तादेव सात्यकिः। ततः कलिङ्गैर्युयुधे सोऽचिन्त्यबलविक्रमः।। | 5-141-12a 5-141-12b |
तां च सेनामतिक्रम्य कलिङ्गानां दुरत्ययाम्। अथ पार्थं महाबाहुर्धनञ्जयमुपासदत्।। | 5-141-13a 5-141-13b |
तरन्निव जले श्रान्तो यथा स्थलमुपेयिवान्। तं दृष्ट्वा पुरुषव्याघ्रं युयुधानः समाश्वसत्।। | 5-141-14a 5-141-14b |
तमायान्तमभिप्रेक्ष्य केशवः पार्थमब्रवीत्। असावायाति शैनेयस्तव पार्थ पदानुगः।। | 5-141-15a 5-141-15b |
एष शिष्यः सखा चैव तव सत्यपराक्रमः। सर्वान्योधांस्तृणीकृत्य विजिग्ये पुरुषर्षभः।। | 5-141-16a 5-141-16b |
एष कौरवयोधानां कृत्वा घोरमुपद्रवम्। तव प्राणैः प्रियतमः किरीटिन्नेति सात्यकिः।। | 5-141-17a 5-141-17b |
एष द्रोणं तथा भोजं कृतवर्माणमेव च। कदर्थीकृत्य विशिखैः फल्गुनाभ्येति सात्यकिः।। | 5-141-18a 5-141-18b |
धर्मराजप्रियान्वेषी हत्वा योधान्वरान्वरान्। शूरश्चैव कृतास्त्रश्च फल्गुनाभ्येति सात्यकिः।। | 5-141-19a 5-141-19b |
कृत्वा सुदुष्करं कर्म सैन्यमध्ये महाबलः। तव दर्शनमन्विच्छन्पाण्डवाभ्येति सात्यकिः।। | 5-141-20a 5-141-20b |
बहूनेकरथेनाजौ योधयित्वा महारथान्। आचार्यप्रमुखान्पार्थ प्रयात्येष स सात्यकिः।। | 5-141-21a 5-141-21b |
स्वबाहुबलमाश्रित्य विदार्य च वरूथिनीम्। प्रेषितो धर्मराजेन पार्थैषोऽभ्येति सात्यकिः।। | 5-141-22a 5-141-22b |
प्रियः शिष्यश्च ते पार्थ त्वया तुल्यपराक्रमः। विद्राव्यं महतीं सेनामेष ह्यायाति सात्यकिः।। | 5-141-23a 5-141-23b |
यस्य नास्ति समो योधः कौरवेषु कथञ्चन। सोऽयमायाति कौन्तेय सात्यकिर्युद्धदुर्मदः।। | 5-141-24a 5-141-24b |
कुरुसैन्याद्विमुक्तो वै सिंहो मध्याद्गवामिव। निहत्य बहुलाः सेनाः पार्थैषोऽब्येति सात्यकिः।। | 5-141-25a 5-141-25b |
एष राजसहस्राणां वक्त्रैः पङ्कजसन्निभैः। आस्तीर्य वसुधां पार्थ क्षिप्रमायाति सात्यकिः।। | 5-141-26a 5-141-26b |
एष दुर्योधनं जित्वा भ्रातृभिः सहितं रणे। निहत्य जलसन्धं च क्षिप्रमायाति सात्यकिः।। | 5-141-27a 5-141-27b |
रुधिरौघवतीं कृत्वा नदीं शोणितकर्दमाम्। तृणवद्व्यस्य कौरव्यानेष ह्यायाति सात्यकिः।। | 5-141-28a 5-141-28b |
सञ्जय उवाच। | 5-141-29x |
ततः प्रहृष्टः कौन्तेयः केशवं वाक्यमब्रवीत्। न मे प्रियं महाबाहो यन्मामभ्येति सात्यकिः।। | 5-141-29a 5-141-29b |
न हि जानामि वृत्तान्तं धर्मराजस्य केशव। सात्वतेन विहीनः स यदि जीवति वा न वा।। | 5-141-30a 5-141-30b |
एतेन हि महाबाहो रक्षितव्यः स पार्थिवः। तमेष कथमुत्सृज्य मम कृष्ण पदानुगः।। | 5-141-31a 5-141-31b |
राजा द्रोणाय चोत्सृष्टः सैन्धवश्चानिपातितः। प्रत्युद्याति च शैनेयमेष भूरिश्रवा रणे।। | 5-141-32a 5-141-32b |
सोऽयं गुरुतरो भारः सैन्धवार्थे समाहितः। ज्ञातव्यश्च हि मे राजा रक्षितव्यश्च सात्यकिः।। | 5-141-33a 5-141-33b |
जयद्रथश्च हन्तव्यो लम्बते च दिवाकरः। श्रान्तश्चैष महाबाहुरल्पप्राणश्च साम्प्रतम्।। | 5-141-34a 5-141-34b |
परिश्रान्ता हयाश्चास्य हययन्ता च माधव। न च भूरिश्रवाः श्रान्तः ससहायश्च केशव।। | 5-141-35a 5-141-35b |
अपीदानीं भवेदस्य क्षेममस्मिन्समागमे। कच्चिन्न सागरं तीर्त्वा सात्यकिः सत्यविक्रमः। गोष्पदं प्राप्य सीदेत महौजाः शिनिपुङ्गवः।। | 5-141-36a 5-141-36b 5-141-36c |
अपि कौरवमुख्येन कृतास्त्रेण महात्मना। समेत्य भूरिश्रवसा स्वस्तिमान्सात्यकिर्भवेत्।। | 5-141-37a 5-141-37b |
व्यतिक्रममिमं मन्ये धर्मराजस्य केशव। आचार्याद्भयमुत्सृज्य यः प्रैषयत सात्यकिम्।। | 5-141-38a 5-141-38b |
ग्रहणं धर्मराजस्य खगः श्येन इवामिषम्। नित्यमाशंसते द्रोणः कच्चित्स्यात्कुशली नृपः।। | 5-141-39a 5-141-39b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे एकचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 141 ।। |
5-141-1 तुरणीयेषु कृत्येषु।। 5-141-141 एकचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।।
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