महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-132
दिखावट
← द्रोणपर्व-131 | महाभारतम् सप्तमपर्व महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-132 वेदव्यासः |
द्रोणपर्व-133 → |
|
भीमकर्णयोर्युद्धम्।। 1 ।।
धृतराष्ट्र उवाच। | 5-132-1x |
[स्वयं शिष्यो महेशस्य भृगूत्तमधनुर्धरः। शिष्यत्वं प्राप्तवान्कर्णस्तस्य तुल्योऽस्त्रविद्यया।। | 5-132-1a 5-132-1b |
तद्विशिष्टोऽपि वा कर्णः शिष्यः शिष्यगुणैर्युतः। कुन्तीपुत्रेण भीमेन निर्जितः स तु लीलया।।] | 5-132-2a 5-132-2b |
यस्मिञ्जयाशा महती पुत्राणां मम सञ्जय। तं भीमाद्विमुखं दृष्ट्वा किन्नु दुर्योधनोऽब्रवीत्।। | 5-132-3a 5-132-3b |
कथं च युयुधे भीमो वीर्यश्लाघी महाबलः।। | 5-132-4a |
कर्णो वा समरे तात किमकार्षीदतः परम्। भीमसेनं रणे दृष्ट्वा ज्वलन्तमिव पावकम्।। | 5-132-5a 5-132-5b |
सञ्जय उवाच। | 5-132-6x |
रथमन्यं समास्थाय विधिवत्कल्पितं पुनः। अभ्ययात्पाण्डवं कर्णो वातोद्धूत इवार्णवः।। | 5-132-6a 5-132-6b |
क्रुद्धमाधिरथिं दृष्ट्वा पुत्रास्तव विशाम्पते। भीमसेनममन्यन्त वैश्वानरमुखे हुतम्।। | 5-132-7a 5-132-7b |
चापशब्दं ततः कृत्वा तलशब्दं च भैरवम्। अभ्यद्रवत राधेयो भीमसेनरथं प्रति।। | 5-132-8a 5-132-8b |
पुनरेव तयो राजन्घोर आसीत्समागमः। वैकर्तनस्य शूरस्य भीमस्य च महात्मनः।। | 5-132-9a 5-132-9b |
संरब्धौ हि महाबाहू परस्परवधैषिणौ। अन्योन्यभीक्षाञ्चक्राते दहन्ताविव लोचनैः।। | 5-132-10a 5-132-10b |
क्रोधरक्रेक्षणौ तीव्रौ निःश्वसन्ताविवोरगौ। शूरावन्योन्यमासाद्य ततक्षतुररिन्दमौ।। | 5-132-11a 5-132-11b |
व्याघ्राविव सुसंरब्धौ श्येनाविव च शीघ्रगौ। शरभाविव सङ्क्रुद्धौ युयुधाते परस्परम्।। | 5-132-12a 5-132-12b |
ततो भीमः स्मरन्क्लेशानक्षद्यूते वनेऽपि च। विराटनगरे चैव दुःखं प्राप्तमरिन्दमः।। | 5-132-13a 5-132-13b |
राष्ट्राणां स्फीतरत्नानां हरणं च तवात्मजैः। सततं च परिक्लेशान्सपुत्रेण त्वया कृतान्।। | 5-132-14a 5-132-14b |
दग्धुमैच्छश्च यः कुन्तीं सपुत्रां त्वमनागसम्। कृष्णायाश्च परिक्लेशं सभामध्ये दुरात्मभिः।। | 5-132-15a 5-132-15b |
केशपक्षग्रहं चैव दुःशासनकृतं तथा। परुषाणि च वाक्यानि कर्णोनोक्तानि भारत।। | 5-132-16a 5-132-16b |
पतिमन्यं परीप्सस्व न सन्ति पतयस्तव। पतिता नरके पार्थाः सर्वे षण्डतिलोपमाः।। | 5-132-17a 5-132-17b |
समक्षं तव कौरव्य यदूचुः कौरवास्तदा। दासीभावेन कृष्णां च भोक्तुकामाः सुतास्तव।। | 5-132-18a 5-132-18b |
यच्चापि तान्प्रव्रजतः कृष्णाजिननिवासिनः। परुषाण्युक्तवान्कर्णः सभायां सन्निधौ तव।। | 5-132-19a 5-132-19b |
तृणीकृत्य च यत्पार्थांस्तव पुत्रो ववल्ग ह। विषमस्थान्समस्थो हि संरब्धो गतचेतनः।। | 5-132-20a 5-132-20b |
बाल्यात्प्रभृति चारिघ्नः स्वानि दुःखानि चिन्तयन्। निरविद्यत धर्मात्मा जीवितेन वृकोदरः।। | 5-132-21a 5-132-21b |
ततो विष्फार्य सुमहद्धेमपृष्ठं दुरासदम्। चापं भरतशार्दूलस्त्यक्तात्मा कर्णमभ्ययात्।। | 5-132-22a 5-132-22b |
स सायकयैर्जालैर्भीमः कर्णरथं प्रति। भानुमद्भिः शिलाधौतैर्भानोः प्राच्छादयत्प्रभां | 5-132-23a 5-132-23b |
ततः प्रहस्याधिरथिस्तूर्णमस्यञ्शिताञ्शरान्। व्यधमद्भीमसेनस्य शरजालानि पत्रिभिः।। | 5-132-24a 5-132-24b |
महारथो महाबाहुर्महाबाणैर्महाबलः। विव्याधाधिरथिर्भीमं नवभिर्निशितैस्तदा।। | 5-132-25a 5-132-25b |
स तोत्रैरिव मातङ्गो वार्यमाणः पतत्त्रिभः। अभ्यधावदसम्भ्रान्तः सूतपुत्रं वृकोदरः।। | 5-132-26a 5-132-26b |
तमापतन्तं वेगेन रभसं पाण्डवर्षभम्। कर्णः प्रत्युद्ययौ युद्धे मत्तो मत्तमिव द्विपम्।। | 5-132-27a 5-132-27b |
ततः प्रध्याप्य जलजं भेरीशतसमस्वनम्। अक्षुभ्यत बलं हर्षादुद्धूत इव सागरः।। | 5-132-28a 5-132-28b |
तदुद्धूतं बलं दृष्ट्वा नागाश्वरथपत्तिमत्। भीमः कर्णं समासाद्य च्छादयामास सायकैः।। | 5-132-29a 5-132-29b |
अश्वानृक्षसवर्णांश्च हंसवर्णैर्हयोत्तमैः। व्यामिश्रयद्रणे कर्णः पाण्डवं छादयञ्छरैः।। | 5-132-30a 5-132-30b |
ऋक्षवर्णान्हयान्कर्कैर्मिश्रान्मारुतरंहसः। निरीक्ष्य तव पुत्राणां हाहाकृतमभूद्बलम्।। | 5-132-31a 5-132-31b |
ते हया बह्वशोभन्त मिश्रिता वातरंहसः। सितासिता महाराज यथा व्योम्नि वलाहकाः।। | 5-132-32a 5-132-32b |
संरब्धौ क्रोधताम्राक्षौ प्रेक्ष्य कर्णवृकोदरौ। सन्त्रस्ताः समकम्पन्त त्वदीयानां महारथाः।। | 5-132-33a 5-132-33b |
यमराष्ट्रोपमं घोरमासीदायोधनं तयोः। दुर्दर्शं भरतश्रेष्ठ प्रेतराजपुत्रं यथा।। | 5-132-34a 5-132-34b |
समाजमिव तच्चित्रं प्रेक्षमाणा महारथाः। नालक्षयञ्जयं व्यक्तमेकस्यैव महारणे।। | 5-132-35a 5-132-35b |
तयोः प्रैक्षन्त सम्मर्दं सन्निकृष्टं महास्त्रयोः। तव दुर्मन्त्रिते राजन्सपुत्रस्य विशाम्पते।। | 5-132-36a 5-132-36b |
छादयन्तौ हि शत्रुघ्नावन्योन्यं सायकैः शितैः। शरजालावृतं व्योम चक्रातेऽद्भुतविक्रमौ।। | 5-132-37a 5-132-37b |
तावन्योन्यं जिघांसन्तौ शरैस्तीक्ष्णैर्महारथौ। प्रेक्षणीयतरावास्तां वृष्टिमन्ताविवाम्बुदौ।। | 5-132-38a 5-132-38b |
सुवर्णविकृतान्वाणान्विमुञ्चन्तावरिन्दमौ। भास्वरं व्योम चक्राते महोल्काभिरिव प्रभो।। | 5-132-39a 5-132-39b |
ताभ्यां मुक्ताः शरा राजन्गार्ध्रपत्राश्चकाशिरे। श्रेण्यः शरदि मत्तानां सारसनामिवाम्बरे।। | 5-132-40a 5-132-40b |
संसक्तं सूतपुत्रेण दृष्ट्वा भीममरिन्दमम्। अतिभारममन्येतां भीमे कृष्णधनञ्जयौ।। | 5-132-41a 5-132-41b |
तत्राधिरथिभीमाभ्यां शरैर्मुक्तैर्दृढं हताः। इषुपातमतिक्रम्य पेतुरश्वनरद्विपाः।। | 5-132-42a 5-132-42b |
पतद्भिः पतितैश्चान्यैर्गतासुभिरनेकशः। कृतो राजन्महाराज पुत्राणां ते जनक्षयः।। | 5-132-43a 5-132-43b |
मनुप्याश्वगजानां च शरीरैर्गतजीवितैः। क्षणेन भूमिः सञ्जज्ञे संवृता भरतर्षभ।। | 5-132-44a 5-132-44b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे द्वात्रिंशदधिकरशततमोऽध्यायः।। 132 ।। |
5-132-1 कुण्डलितौ द्वौ श्लोकौ झ. पुस्तके एव वर्तेते। भृगूत्तमधनुर्धरो रामः।। 5-132-31 कर्कैः श्वेतैरश्वैः।। 5-132-35 समाजं रङ्गं। एकस्यैव कस्यचित् नान्यस्य।। 5-132-132 द्वात्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-131 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-133 |