महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-169
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सङ्कुलयुद्धम्।। 1 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-169-1x |
शतानीकं शरैस्तूर्णं निर्दहन्तं चमूं तव। चित्रसेनस्तव सुतो वारयामास भारत।। | 5-169-1a 5-169-1b |
नाकुलिश्चित्रसेनं तु विद्ध्वा पञ्चभिराशुगैः। स तु तं प्रतिविव्याध दशभिर्निशितैः शरैः।। | 5-169-2a 5-169-2b |
चित्रसेनो महाराज शतानीकं पुनर्युधि। नवभिर्निशितैर्बाणैराजघान स्तनान्तरे।। | 5-169-3a 5-169-3b |
नाकुलिस्तस्य विशिखैर्वर्म सन्नतपर्वभिः। गात्रात्सञ्चावयामास तदद्भुतमिवाभवत्।। | 5-169-4a 5-169-4b |
सोपेतवर्मा पुत्रस्ते विरराज भृशं नृप। उत्सृज्य काले राजेन्द्र निर्मोकमिव पन्नगः।। | 5-169-5a 5-169-5b |
ततोऽस्य निशितैर्बाणैर्ध्वजं चिच्छेद नाकुलिः। धनुश्चैव महाराज यतमानस्य संयुगे।। | 5-169-6a 5-169-6b |
स च्छिन्नधन्वा समरे विवर्मा च महारथः। धनुरन्यन्महाराज जग्राहारिविदारणम्।। | 5-169-7a 5-169-7b |
ततस्तूर्णं चित्रसेनो नाकुलिं नवभिः शरैः। विव्याध समरे क्रुद्धो भरतानां महारथः।। | 5-169-8a 5-169-8b |
शतानीकोऽथ सङ्क्रुद्धश्चित्रसेनस्य मारिष। जघान चतुरो वाहान्सारथिं च नरोत्तमः।। | 5-169-9a 5-169-9b |
अवप्लुत्य रथात्तस्माच्चित्रसेनो महारथः। नाकुलिं पञ्चविंशत्या शराणामार्दयद्बली।। | 5-169-10a 5-169-10b |
तस्य तत्कुर्वतः कर्म नकुलस्य सुतो रणे। अर्धचन्द्रेण चिच्छेद चापं रत्नविभूषितम्।। | 5-169-11a 5-169-11b |
स च्छिन्नधन्वा विरथो हताश्वो हतसारथिः। आरुरोह रथं तूर्णं हार्दिक्यस्य महात्मनः।। | 5-169-12a 5-169-12b |
द्रुपदं तु सहानीकं द्रोणप्रेप्सुं महारथम्। वृषसेनोऽभ्ययात्तूर्णं किरञ्शरशतैस्तदा।। | 5-169-13a 5-169-13b |
यज्ञसेनस्तु समरे कर्णपुत्रं महारथम्। षष्ट्या शराणां विव्याध बाह्वोरुरसि चानघ।। | 5-169-14a 5-169-14b |
वृषसेनस्तु सङ्क्रुद्धो यज्ञसेनं रथे स्थितम्। बहुभिः सायकैस्तीक्ष्णैराजघान स्तनान्तरे।। | 5-169-15a 5-169-15b |
तावुभौ शरनुन्नाङ्गौ शरकण्टकितौ रणे। व्यभ्राजेतां महाराज श्वाविधौ शललैरिव।। | 5-169-16a 5-169-16b |
रुक्मपुङ्खैः प्रसन्नाग्रैः शरैश्छिन्नतनुच्छदौ। रुधिरौघपरिक्लिन्नौ व्यभ्राजेतां महामृधे।। | 5-169-17a 5-169-17b |
तपनीयनिभौ चित्रौ कल्पवृक्षाविवाद्भुतौ। किंशुकाविव चोत्फुल्लौ व्यकाशेतां रणाजिरे।। | 5-169-18a 5-169-18b |
वृषसेनस्ततो राजन्द्रुपदं नवभिः शरैः। विद्ध्वा विव्याध सप्तत्या पुनरन्यैस्त्रिभिस्त्रिभिः।। | 5-169-19a 5-169-19b |
ततः शरसहस्राणि विमुञ्चन्विबभौ तदा। कर्णपुत्रो महाराज वर्षमाण इवाम्बुदः।। | 5-169-20a 5-169-20b |
[द्रुपदस्तु ततः क्रुद्धो वृषसेनस्य कार्मुकम्। द्विधा चिच्छेद भल्लेन पीतेन निशितेन च।। | 5-169-21a 5-169-21b |
सोऽन्यत्कार्मुकमादाय रुक्मबद्धं नवं दृढम्। तूणादाकृष्य विमलं भल्लं पीतं शितं दृढम्।। | 5-169-22a 5-169-22b |
कार्मुके योजयित्वा तं द्रुपदं सन्निरीक्ष्य च। आकर्णपूर्णं मुमुचे त्रासयन्सर्वसोमकान्।। | 5-169-23a 5-169-23b |
हृदयं तस्य भित्त्वा च जगाम वसुधातलम्। कश्मलं प्राविशद्राजा वृषसेनशराहतः।। | 5-169-24a 5-169-24b |
सारथिस्तमपोवाह स्मरन्सारथिचेष्टितम्। तस्मिन्प्रभग्ने राजेन्द्र पाञ्चालानां महारथे।।] | 5-169-25a 5-169-25b |
ततस्तु द्रुपदानीकं शरैश्छिन्नतनुच्छदम्। सम्प्राद्रवद्रणाद्राजन्निशीथे भैरवे सति।। | 5-169-26a 5-169-26b |
प्रदीपैरपरित्यक्तैर्ज्वलद्भिस्तैः समन्ततः। व्यराजद्वसुधा तत्र वीताभ्रा द्यौरिव ग्रहैः।। | 5-169-27a 5-169-27b |
तथाङ्गदैर्निपतितैर्व्यराजत वसुन्धरा। प्रावृट्काले महाराज विद्युद्भिरिव तोयदः।। | 5-169-28a 5-169-28b |
ततः कर्णसुतात्त्रस्ताः सोमका विप्रदुद्रुवुः। यथेन्द्रभयवित्रस्ता दानवास्तारकामये।। | 5-169-29a 5-169-29b |
तेनार्द्यमानाः समरे द्रवमाणाश्च सोमकाः। व्यराजन्त महाराज प्रदीपैरवभासिताः।। | 5-169-30a 5-169-30b |
तांस्तु निर्जित्य समरे कर्णपुत्रो व्यरोचत। मध्यन्दिनमनुप्राप्तो घर्मांशुरिव भारत।। | 5-169-31a 5-169-31b |
तेषु राजसहस्रेषु तावकेषु परेषु च। एक एव ज्वलंस्तस्थौ वृषसेनः प्रतापवान्।।। | 5-169-32a 5-169-32b |
स विजित्य रणे शूरान्सोमकानां महारथान्। जगाम त्वरितस्तत्र यत्र राजा युधिष्ठिरः।। | 5-169-33a 5-169-33b |
प्रतिविन्ध्यमथ क्रुद्धं प्रदहन्तं रणे रिपून्। दुःशासनस्तव सुतः प्रत्यगच्छन्महारथः।। | 5-169-34a 5-169-34b |
तयोः समागमो राजंश्चित्ररूपो बभूव ह। व्यपेतजलदे व्योम्नि बुधभास्करयोरिव।। | 5-169-35a 5-169-35b |
प्रतिविन्ध्यं तु समरे कुर्वाणां कर्म दुष्करम्। `अपूजयन्महाराज तव सैन्ये महारथाः'। दुःशासनस्त्रिभिर्बाणैर्ललाटे समविध्यत।। | 5-169-36a 5-169-36b 5-169-36c |
सोऽतिविद्धो बलवता तव पुत्रेण धन्विना। विरराज महाबाहुः सशृङ्ग इव पर्वतः।। | 5-169-37a 5-169-37b |
दुःशासनं तु समरे प्रतिविन्ध्यो महारथः। नवभिः सायकैर्विद्धा पुनर्विव्याध सप्तभिः।। | 5-169-38a 5-169-38b |
तत्र भारत पुत्रस्ते कृतवान्कर्म दुष्करम्। प्रतिविन्ध्यहयानुग्रैः पातयामास सायकैः।। | 5-169-39a 5-169-39b |
सारथिं चास्य भल्लेन ध्वजं च समपातयत्। रथं च तिलशो राजन्व्यधमत्तस्य धन्विनः।। | 5-169-40a 5-169-40b |
पताकाश्च सतूणीरा रश्मीन्योक्राणि च प्रभो। चिच्छेद तिलशः क्रुद्धःशरैः सन्नतपर्वभिः।। | 5-169-41a 5-169-41b |
विरथः स तु धर्मात्मा धनुष्पाणिरवस्थितः। अयोधयत्तव सुतं किरञ्शरशतान्बहून्।। | 5-169-42a 5-169-42b |
क्षुरप्रेण धनुस्तस्य चिच्छेद तनयस्तव। अथैनं दशभिर्बाणेश्छिन्नधन्वानमार्दयत्।। | 5-169-43a 5-169-43b |
तं दृष्ट्वा विरथं तत्र भ्रातरोऽस्य महारथाः। अन्ववर्तन्त सङ्ग्रामे महत्या सेनया सह।। | 5-169-44a 5-169-44b |
आप्लुतः स ततो यानं सुतसोमस्य भास्वरम्। धनुर्गृह्य महाराज विव्याध तनयं तव।। | 5-169-45a 5-169-45b |
ततस्तु तावकाः सर्वे परिवार्य सुतं तव। अभ्यवर्तन्त वेगेन महत्या सेनया वृताः।। | 5-169-46a 5-169-46b |
ततः प्रववृते युद्धं तव तेषां च भारत। निशीथे दारुणे काले यमराष्ट्रविवर्धनम्।। | 5-169-47a 5-169-47b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि चतुर्दशरात्रियुद्धे एकोनसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 169 ।। |
5-169-1 कुण्डलिताः पञ्च श्लोकाः घ.ङ.झ.पुस्तकेष्वेव सन्ति।।
द्रोणपर्व-168 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-170 |