महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-110
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रणाङ्कणो पाञ्चजन्यस्वने श्रुते अश्रुतेच गाण्डीवघोषे अर्जुनस्य विपदमाशङ्कमानेन युधिष्ठिरेण सात्यकिम्प्रति अर्जुनवृत्तान्तपरिज्ञानाय गमनचोदना।। 1 ।।
धृतराष्ट्र उवाच। | 5-110-1x |
भारद्वाजं कथं युद्धे युयुधानो न्यवारयत्। सञ्जयाचक्ष्व तत्त्वेन परं कौतूहलं हि मे।। | 5-110-1a 5-110-1b |
सञ्जय उवाच। | 5-110-2x |
शृणु राजन्महाप्राज्ञ सङ्ग्रामं रोमहर्षणम्। द्रोणस्य पाण्डवैः सार्धं युयुधानपुरोगमैः।। | 5-110-2a 5-110-2b |
वध्यमानं बलं दृष्ट्वा युयुधानेन मारिष। अभ्यद्रवत्स्वयं द्रोणः सात्यकिं सत्यविक्रमम्।। | 5-110-3a 5-110-3b |
तमापतन्तं सहसा भारद्वाजं महारथम्। सात्यकिः पञ्चविंशत्या क्षुद्रकाणां समार्पयत्।। | 5-110-4a 5-110-4b |
द्रोणोऽपि युधि विक्रान्तो युयुधानं समाहितः। अविध्यत्पञ्चभिस्तूर्णं हेमपुङ्खैः शरैः शितैः।। | 5-110-5a 5-110-5b |
ते वर्म भित्त्वा सुदृढं द्विषत्पिशितभोजनाः। अभ्ययुर्धरणीं राजन्वल्मीकमिव पन्नगाः।। | 5-110-6a 5-110-6b |
दीर्घबाहुरभिक्रुद्धस्तोत्रार्दित इव द्विपः। द्रोणं पञ्चाशताऽविध्यन्नाराचैरग्निसन्निभैः।। | 5-110-7a 5-110-7b |
भारद्वाजो रणे विद्धो युयुधानेन सत्वरम्। सात्यकिं बहुभिर्बाणैर्यतमानमविध्यत।। | 5-110-8a 5-110-8b |
ततः क्रुद्धो महेष्वासो भूय एव महाबलः। सात्वतं पीडयामास व्रातेन नतपर्वणाम्।। | 5-110-9a 5-110-9b |
स वध्यमानः समरे भारद्वाजेन सात्यकिः। नान्वपद्यत कर्तव्यं किञ्चिदेव विशाम्पते।। | 5-110-10a 5-110-10b |
विषण्णवदनश्चापि युयुधानोऽभवन्नृप। भारद्वाजं रणे दृष्ट्वा विसृजन्तं शिताञ्शरान्।। | 5-110-11a 5-110-11b |
तं तु सम्प्रेक्ष्य ते पुत्राः सैनिकाश्च विशाम्पते। प्रहृष्टमनसो भूत्वा सिंहवद्व्यनदन्मुहुः।। | 5-110-12a 5-110-12b |
तं श्रुत्वा निनदं घोरं पीड्यमानं च माधवम्। युधिष्ठिरोऽब्रवीद्राजा सर्वसैन्यानि भारत।। | 5-110-13a 5-110-13b |
एष वृष्णिवरो वीरः सात्यकिः सत्यविक्रमः। ग्रस्यते युधि वीरेण भानुमानिव राहुणा। अभिद्रवत गच्छध्वं सात्यकिर्यत्र युध्यते।। | 5-110-14a 5-110-14b 5-110-14c |
अभिद्रवत गच्छद्वं सात्यकिर्यत्र युध्यते।। धृष्टद्युम्नं च पाञ्चाल्यमिदमाह जनाधिपः। `द्रोणं वारय सुक्षित्रं सात्यकिं मावधीद्द्विजः'।। | 5-110-15a 5-110-15b 5-110-15c |
अभिद्रव द्रुतं द्रोणं किमु तिष्ठसि पार्पत। न पश्यसि भयं द्रोणाद्धोरं नः समुपस्थितम्।। | 5-110-16a 5-110-16b |
असौ द्रोणो महेष्वासो युयुधानेन संयुगे। क्रीडते सूत्रबद्धेन पक्षिणा बालको यथा।। | 5-110-17a 5-110-17b |
तत्रैव सर्वे गच्छन्तु भीमसेनपुरोगमाः। त्वयैव सहिताः सर्वे युयुधानरथं प्रति।। | 5-110-18a 5-110-18b |
पृष्ठतोऽनुगमिष्यामि त्वामहं सहसैनिकः। सात्यकिं मोक्षयस्वाद्य यमदंष्ट्रान्तरं गतम्।। सञ्जय उवाच। | 5-110-19a 5-110-19b 5-110-20x |
एवमुक्त्वा ततो राजा सर्वसैन्येन भारत। अभ्यद्रवद्रणे द्रोणं युयुधानस्य कारणात्।। | 5-110-20a 5-110-20b |
तत्रारावो महानासीद्द्रोणमेकं युयुत्सताम्। पाण्डवानां च भद्रं ते सृञ्जयानां च सर्वशः।। | 5-110-21a 5-110-21b |
ते समेत्य नरव्याघ्रा भारद्वाजं महारथम्। अभ्यवर्षञ्शरैस्तीक्ष्णैः कङ्कबर्हिणवाजितैः।। | 5-110-22a 5-110-22b |
स्मयन्नेव तु तान्वीरान्द्रोणः प्रत्यग्रहीत्स्वयम्। अतिथीनागतान्यद्वत्सलिलेनासनेन च।। | 5-110-23a 5-110-23b |
तर्पितास्ते शरैस्तस्य भारद्वाजस्य धन्विनः। आतिथेयं गृहं प्राप्य तर्प्यन्तेऽतिथयो यथा।। | 5-110-24a 5-110-24b |
भारद्वाजं च ते सर्वे न शेकुः प्रतिवीक्षितुम्। मध्यन्दिनमनुप्राप्तं सहस्रांशुमिव प्रभो।। | 5-110-25a 5-110-25b |
तांस्तु सर्वान्महेष्वासान्द्रोणः शस्त्रभृतां वरः। अतापयच्छरव्रातैर्गभस्तिभिरिवांशुमान्।। | 5-110-26a 5-110-26b |
वध्यमाना महाराज पाण्डवाः सृञ्जयास्तथा। त्रातारं नाध्यगच्छन्त पङ्कमग्ना इव द्विपाः।। | 5-110-27a 5-110-27b |
द्रोणस्य च व्यदृश्यन्त विसर्पन्तो महाशराः। गभस्तय इवार्कस्य प्रतपन्तः समन्ततः।। | 5-110-28a 5-110-28b |
तस्मिन्द्रोणेन निहताः पाञ्चालाः पञ्चविंशतिः। महारथाः समाख्याता धृष्टद्युम्नस्य सम्मताः।। | 5-110-29a 5-110-29b |
पाण्डूनां सर्वसैन्येषु पाञ्चालानां तथैव च। द्रोणं स्म ददृशुः शूरं विनिघ्नन्तं वरान्वरान्।। | 5-110-30a 5-110-30b |
केकयानां शतं हत्वा विद्राव्य च समन्ततः। द्रोणस्तस्थौ महाराज व्यादितास्य इवान्तकः।। | 5-110-31a 5-110-31b |
पाञ्चालान्सृञ्जयान्मत्स्यान्केकयांश्च नराधिप। द्रोणोऽजयन्महाबाहुः शतशोऽथ सहस्रशः।। | 5-110-32a 5-110-32b |
तेषां समभवच्छब्दो विद्धानां द्रोणसायकैः। वनौकसामिवारण्ये व्याप्तानां धृमकेतुना।। | 5-110-33a 5-110-33b |
तत्र देवाः सगन्धर्वाः पितरश्चाब्रुवन्नृप। एते द्रवन्ति पाञ्चालाः पाण्डवाश्च ससैनिकाः।। | 5-110-34a 5-110-34b |
तं तथा समरे द्रोणं निघ्नन्तं सौमकान्रणे। न चाप्यभिययुः केचिदपरे नैव विव्यधुः।। | 5-110-35a 5-110-35b |
वर्तमाने तथा रौद्रे तस्मिन्वीरवरक्षये। अशृणोत्सहसा पार्थः पाञ्चजन्यस्य निःस्वनम्।। | 5-110-36a 5-110-36b |
पूरिते वासुदेवेन शङ्खराजे महात्मना। युध्यमानेषु वीरेषु सैन्धवस्याभिरक्षिषु।। | 5-110-37a 5-110-37b |
नदत्सु धार्तराष्ट्रेषु विजयस्य रथं प्रति। गाण्डीवस्य च निर्घोषे विप्रनष्टे समन्ततः।। | 5-110-38a 5-110-38b |
कश्मलाभिहतो राजा चिन्तयामास पाण्डवः। न नूनं स्वस्ति पार्थाय यथा नदति शङ्खराट्।। | 5-110-39a 5-110-39b |
कौरवाश्च यथा हृष्टा विनदन्ति मुहुर्मुहुः। `व्यक्तमद्य विनश्यन्ति सर्वलोकमहारथाः'।। | 5-110-40a 5-110-40b |
एवं सञ्चिन्तयित्वा तु व्याकुलेनान्तरात्मना। अजताशत्रुः कौन्तेयः सात्वतं प्रत्यभाषत।। | 5-110-41a 5-110-41b |
बाष्पगद्गदया वाचा मुह्यमानो मुहुर्मुहुः। कृत्यस्यानन्तरापेक्षी शैनेयं शिनिपुङ्गवम्।। | 5-110-42a 5-110-42b |
युधिष्ठिर उवाच। | 5-110-43x |
यः स धर्मः पुरा दृष्टः सद्भिः शैनेय शाश्वतः। साम्पराये सुहृत्कृत्ये तस्य कालोऽयमागतः।। | 5-110-43a 5-110-43b |
सर्वेष्वपि च योधेषु चिन्तयञ्शिनिपुङ्गव। त्वत्तः सुहृत्तमं कञ्चिन्नाभिजानामि सात्यके।। | 5-110-44a 5-110-44b |
यो हि प्रीतमना नित्यं यश्च नित्यमनुव्रतः। स कार्ये साम्पराये तु नियोज्य इति मे मतिः।। | 5-110-45a 5-110-45b |
यथा च केशवो नित्यं पाण्डवानानं परायणम्। तथा त्वमपि वार्ष्णेय कृष्णतुल्यपराक्रमः।। | 5-110-46a 5-110-46b |
सोऽहं भारं समाधास्ये त्वयि तं वोढुमर्हसि। अभिप्रायं च मे नित्यं न वृथा कर्तुमर्हसि।। | 5-110-47a 5-110-47b |
स त्वं भ्रातुर्वयस्यस्य गुरोरपि च संयुगे। कुरु कृच्छ्रे सहायार्थमर्जुनस्य नरर्षभ।। | 5-110-48a 5-110-48b |
त्वं हि सत्यव्रतः शूरो मित्राणामभयङ्करः। लोके विख्यायसे वीर कर्मभिः सत्यवागिति।। | 5-110-49a 5-110-49b |
यो हि शैनेय मित्रार्थे युध्यमानस्त्यजेत्तनुम्। पृथिवीं च द्विजातिभ्यो यो दद्यात्स समो भवेत्।। | 5-110-50a 5-110-50b |
श्रुताश्च बहवोऽस्माभी राजानो ये दिवं गताः। दत्त्वेमां पृथिवीं कृत्स्नां ब्राह्मणेभ्यो यथाविधि।। | 5-110-51a 5-110-51b |
`दीयमाना च बहुभिर्दास्यते च मुहुर्मही। न हि कश्चिद्रणे प्राणान्मित्रार्थे त्यक्तवानिह'।। | 5-110-52a 5-110-52b |
एवं त्वामपि धर्मात्मन्प्रयाचेऽहं कृताञ्जलिः। पृथिवीदानतुल्यं स्यादधिकं वा फलं विभो।। | 5-110-53a 5-110-53b |
एक एव सदा कृष्णो मित्राणामभयङ्करः। रणे सन्तजति प्राणान्द्वितीयस्त्वं च सात्यके।। | 5-110-54a 5-110-54b |
विक्रान्तस्य च वीरस्य युद्धे प्रार्थयतो यशः। शूर एव सहायः स्यान्नेतरः प्राकृतो जनः।। | 5-110-55a 5-110-55b |
ईदृशे तु परामर्दे वर्तमानस्य माधव। त्वदन्यो हि रणे गोप्ता विजयस्य न विद्यते।। | 5-110-56a 5-110-56b |
श्लाघन्नेव हि कर्माणि शतशस्तव पाण्डवः। मम सञ्चनयन्हर्षं पुनः पुनरकीर्तयत्।। | 5-110-57a 5-110-57b |
लघुहस्तश्चित्रयोधी तथा लघुपराक्रमः। प्राज्ञः सर्वास्त्रविच्छूरो मुह्यते न च संयुगे।। | 5-110-58a 5-110-58b |
महास्कन्धो महोरस्को महाबाहुर्महाहनुः। महाबलो महावीर्यः स महात्मा महारथः।। | 5-110-59a 5-110-59b |
शिष्यो मम सखा चैव प्रियोऽस्याहं प्रियश्च मे। युयुधानः सहायो मे प्रमथिष्यति कौरवान्।। | 5-110-60a 5-110-60b |
अस्मदर्थं च राजेन्द्र सन्नह्येद्यदि केशवः। रामो वाप्यनिरुद्धो वा प्रद्युम्नो वा महारथः।। | 5-110-61a 5-110-61b |
गदो वा मारणो वापि साम्वो वा सह वृष्णिभिः। सहायार्थं महाराज सङ्ग्रामोत्तममूर्धनि।। | 5-110-62a 5-110-62b |
तथाप्यहं नरव्याघ्रं शैनेयं सत्यविक्रमम्। साहाय्ये विनियोक्ष्यामि नास्ति मेऽन्योहि तत्समः।। | 5-110-63a 5-110-63b |
इति द्वैतवने तात मामुवाच धनञ्जयः। परोक्षे त्वद्गुणांस्तथ्यान्कथयन्नार्यसंसदि।। | 5-110-64a 5-110-64b |
तस्य त्वमेवं सङ्कल्पं न वृथा कर्तुमर्हसि। धनञ्जयस्य वार्ष्णेय मम भीमस्य चोभयोः।। | 5-110-65a 5-110-65b |
यच्चापि तीर्थानि चरन्नगच्छं द्वारकां प्रति। तत्राहमपि ते भक्तिमर्जुनं प्रति दृष्टवान्।। | 5-110-66a 5-110-66b |
न तन्सौहृदनन्येपु मया शैनेय लक्षितम्। यथा त्वमस्मान्भजसे वर्तमानानुपप्लवे।। | 5-110-67a 5-110-67b |
सोऽभिजात्या च भक्त्या च सख्यस्याचार्यकस्य च। सौहृदस्य च वीर्यस्य कुलीनत्वस्य माधव।। | 5-110-68a 5-110-68b |
सत्यस्य च महावाहो अनुकम्पार्थमेव च। अनुरूपं महेप्वास कर्म त्वं कर्तुमर्हसि।। | 5-110-69a 5-110-69b |
सुयोधनो हि सहसा गतो द्रोणेन दंशितः। पूर्वमेवानुयातास्ते कौरवाणां महारथाः।। | 5-110-70a 5-110-70b |
सुमहान्निनदश्चैव श्रूयते विजयं प्रति। स शैनेय जवेनाशु गन्तुमर्हसि मानद।। | 5-110-71a 5-110-71b |
भीमसेनो वयं चैव संयत्ताः सहसैनिकाः। द्रोणमावारयिष्यामो यदि त्वां प्रतियोत्स्यते।। | 5-110-72a 5-110-72b |
पश्य शैनेय सैन्यानि द्रवमाणानि संयुगे। महान्तं चरणे शब्दं दीर्यमाणां च भारतीम्।। | 5-110-73a 5-110-73b |
महामारुतवेगेन समुद्रमिव पर्वसु। धार्तराष्टबलं तात विक्षिप्तं सव्यसाचिना।। | 5-110-74a 5-110-74b |
रथैर्विपरिधावद्भिर्मनुष्यैश्च हयैश्च ह। सैन्यं रजःसमुद्भूतमेतत्सम्परिवर्तते।। | 5-110-75a 5-110-75b |
संवृतः सिन्धुसौवीरैर्नखरप्रासयोधिभिः। अत्यन्तोपचितैः शूरैः फल्गुनः परवीरहा।। | 5-110-76a 5-110-76b |
नैतद्बलमसंवार्यं शक्यो जेतुं जयद्रथः। एते हि सैन्धवस्यार्थे सर्वे सन्त्यक्तजीविताः।। | 5-110-77a 5-110-77b |
शरशक्तिध्वजवरं हयनागसमाकुलम्। पश्यैतद्धार्तराष्ट्राणामनीकं सुदुरासदम्।। | 5-110-78a 5-110-78b |
शृणु दुन्दुभिनिर्घोषं शङ्खशब्दांश्च पुष्कलान्। सिंहनादरवांश्चैव रथनेमिस्वनांस्तथा।। | 5-110-79a 5-110-79b |
नागानां शृणु शब्दं च पत्तीनां च सहस्रशः। सादिनां द्रवतां चैव शृणु कम्पयतां महीम्।। | 5-110-80a 5-110-80b |
पुरस्तात्सैन्धवानीकं द्रोणानीकं च पृष्ठतः। बहुत्वाद्धि नरव्याघ्र देवेन्द्रमपि पीडयेत्।। | 5-110-81a 5-110-81b |
अपर्यन्ते बले मग्नो जह्यादपि च जीवितम्। तस्मिंश्च निहते युद्धे कथं जीवेत मादृशः।। | 5-110-82a 5-110-82b |
सर्वथा समनुप्राप्तः सुकृच्छ्रं त्वयि जीवति। श्यामो युवा गुडाकेशो दर्शनीयश्च पाण्डवः।। | 5-110-83a 5-110-83b |
लघ्वस्त्रश्चित्रयोधी च प्रविष्टस्यात भारतीम्। सूर्योदये महाबाहुर्दिवसश्चातिवर्तते।। | 5-110-84a 5-110-84b |
तन्न जानामि वार्ष्णेय यदि जीवति वा न वा। कुरूणां चापि तत्सैन्यं सागरप्रतिमं महत्।। | 5-110-85a 5-110-85b |
एक एव च बीभत्सुः प्रविष्टस्तात भारतीम्। अविपह्यां महाबाहुः सुरैरपि महाहवे।। | 5-110-86a 5-110-86b |
न हि मे वर्तते बुद्धिरद्य युद्धे कथञ्चन। द्रोणोऽपि रभसो युद्धे मम पीडयते बलम्।। | 5-110-87a 5-110-87b |
प्रत्यक्षं ते महाबाहो यथाऽसौ चरति द्विजः। युगपच्च समेतानां कार्याणां त्वं विचक्षणः। महार्थं लघुसंयुक्तं कर्तुमर्हसि मानद।। | 5-110-88a 5-110-88b 5-110-88c |
तस्य मे सर्वकार्येषु कार्यमेतन्मतं महत्। अर्जुनस्य परित्राणां कर्तव्यमिति संयुगे।। | 5-110-89a 5-110-89b |
नाहं शोचामि दाशार्हं गोप्तारं जगतः पतिम्। स हि शक्तो रणे तात त्रीँल्लोकानपि सङ्गतान्।। | 5-110-90a 5-110-90b |
विजेतुं पुरुषव्याघ्रः सत्यमेतद्ब्रवीमि ते। किम्पुनर्धार्तराष्ट्रस्य बलमेतत्सुदुर्बलम्।। | 5-110-91a 5-110-91b |
अर्जुनस्त्वेष वार्ष्णेय पीडितो बहुभिर्युधि। प्रजह्यात्समरे प्राणांस्तस्माद्विन्दामि कश्मलम्।। | 5-110-92a 5-110-92b |
तस्य त्वं पदवीं गच्छ गच्छेयुस्त्वादृशा यथा। तादृशस्येदृशे काले मादृशेनाभिनोदितः।। | 5-110-93a 5-110-93b |
रणे वृष्णिप्रवीराणां द्वावेवातिरथौ स्मृतौ। प्रद्युम्नश्च महाबाहुस्त्वं च सात्वत विश्रुतः।। | 5-110-94a 5-110-94b |
अस्त्रे नारायणसमः सङ्कर्षणसमो बले। वीरतायां नरव्याघ्र धनञ्जयसमो ह्यसि।। | 5-110-95a 5-110-95b |
भीष्मद्रोणावतिक्रम्य सर्वयुद्धविशारदम्। त्वामेव पुरुषव्याघ्रं लोके सन्तः प्रचक्षते।। | 5-110-96a 5-110-96b |
`सदेवासुरगन्धर्वान्सकिन्नरमहोरगान्। योधयेच्च जगत्सर्वं विजयेत रिपून्बहून्।। | 5-110-97a 5-110-97b |
इति ब्रुवन्ति लोकेषु जनास्तव गुणांस्तथा। समागमेषु सर्वेषु पृथगेव च सर्वदा'। नाशक्यं विद्यते लोके सात्यकेरिति माधव।। | 5-110-98a 5-110-98b 5-110-98c |
तत्त्वां यदभिवक्ष्यामि तत्कुरुष्व महाबल।। | 5-110-99a |
सम्भावना हि लोकस्य मम पार्थस्य चोभयोः। नान्यथा तां महाबाहो सम्प्रकर्तुमिहार्हसि।। | 5-110-100a 5-110-100b |
परित्यज्य प्रियान्प्राणान्रणे चर विभीतवत्। न हि शैनेय दाशार्हा रणे रक्षन्ति जीवितम्।। | 5-110-101a 5-110-101b |
अयुद्धमनवस्थानं सङ्ग्रामे च पलायनम्। भीरूणामसतां मार्गे नैष दाशार्हसेवितः।। | 5-110-102a 5-110-102b |
तवार्जुनो गुरुस्तात धर्मात्मा शिनिपुङ्गच। वासुदेवो गुरुश्चापि तव पार्थस्य धीमतः।। | 5-110-103a 5-110-103b |
कारणद्वयमेतद्धि जानंस्त्वामहमब्रुवम्। मावमंस्था वचो मह्यं गुरुस्तव गुरोर्ह्यहम्।। | 5-110-104a 5-110-104b |
वासुदेवमतं चैव मम चैवार्जुनस्य च। सत्यमेतन्मयोक्तं ते याहि यत्र धनञ्जयः।। | 5-110-105a 5-110-105b |
एतद्वचनमाज्ञाय मम सत्यपराक्रम। प्रविशैतद्बलं तात धार्तराष्ट्रस्य दुर्मतेः।। | 5-110-106a 5-110-106b |
प्रविश्य च यथान्यायं सङ्गम्य च महारथैः। यथार्हमात्मनः कर्म रणे सात्वत दर्शय।। | 5-110-107a 5-110-107b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे दशाधिकशततमोऽध्यायः।। 110 ।। |
5-110-29 तस्मिन्नवसरे।। 5-110-42 कृत्यस्य जयद्रथवधस्यानन्तरापेक्षी अविघ्नाकाङ्क्षी।। 5-110-43 यः स धर्मो मैत्रीलक्षणः। साम्पराये आपत्काले।। 5-110-47 वयस्यस्य स्रिग्धस्य। सहायार्थं सहायरूपप्रयोजनम्।। 5-110-67 उपप्लुवे विमर्दे।। 5-110-68 सख्यादेरनुरूपमित्यनेनान्वयः।। 5-110-69 सत्यस्याङ्गीकारस्य। अनुकम्पार्थमर्जुनानुपालननिमित्तम्।। 5-110-79 श्रूयते हि रणं प्रति इति क.पाठः।। 5-110-88 महार्थं महान्तमर्थम्। लघुसंयुक्तमविलम्बसम्पन्नम्।। 5-110-101 विभीतवदभीतः।। 5-110-102 अनबस्थानमस्थैर्यम्।। 5-110-110 दशाधिकशततमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-109 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-111 |