महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-173
दिखावट
← द्रोणपर्व-172 | महाभारतम् सप्तमपर्व महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-173 वेदव्यासः |
द्रोणपर्व-174 → |
|
द्रोणकर्णयोः सात्यकिधृष्टद्युम्नाक्ष्यां युद्धम्।। 1 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-173-1x |
विद्रुतं स्वबलं दृष्ट्वा वध्यमानं महात्मभिः। क्रोधेन महताऽविष्टः पुत्रस्तव विशाम्पते।। | 5-173-1a 5-173-1b |
अभ्येत्य सहसा कर्णं द्रोणं च जयतां वरम्। अमर्षवशमापन्नो वाक्यज्ञो वाक्यमब्रवीत्।। | 5-173-2a 5-173-2b |
भवद्ध्भामिह सङ्ग्रामः क्रुद्धाभ्यां सम्प्रवर्तितः। आहवे निहतं दृष्ट्वा सैन्धवं सव्यसाचिना।। | 5-173-3a 5-173-3b |
निहन्यमानां पाण्डूनां बलेन मम वाहिनीम्। भूत्वा तद्विजये शक्तावशक्ताविव पश्यतः।। | 5-173-4a 5-173-4b |
यद्यहं भवतोस्त्याज्यो न वाच्योऽस्मि तदैव हि। आवां पाण्डुसुतान्सङ्ख्ये जेष्याव इति मानदौ।। | 5-173-5a 5-173-5b |
तदैवाहं वचः श्रुत्वा भवद्ध्यामनुसम्पतम्। नाकरिष्यमिदं पार्थैर्वैरं योधविनाशनम्।। | 5-173-6a 5-173-6b |
यदि नाहं परित्याज्यो भवद्भ्यां पुरुषर्षभौ।। युध्यतामनुरूपेण विक्रमेण सुविक्रमौ।। | 5-173-7a 5-173-7b |
वाक्प्रतोदेन तौ वीरौ प्रणुन्नौ तनयेन ते। प्रावर्तयेतां सङ्ग्रामं घट्टिताविव पन्नगौ।। | 5-173-8a 5-173-8b |
ततस्तौ रथिनां श्रेष्ठौ सर्वलोकधनुर्धरौ। शैनेयप्रमुखान्पार्थानभिदुद्रुवत् रणे।। | 5-173-9a 5-173-9b |
तथैव सहिताः पार्थाः सर्वसैन्येन संवृताः। अभ्यवर्तन्त तौ वीरौ नर्दमानौ मुहुर्मुहुः।। | 5-173-10a 5-173-10b |
अथ द्रोणो महेष्वासो दशभिः शिनिपुङ्गवम्। अविध्यत्त्वरितं क्रुद्धः सर्वशस्त्रभृतां वरः।। | 5-173-11a 5-173-11b |
कर्णश्च दशभिर्बाणैः पुत्रश्च तव सप्तभिः। दशभिर्वृषसेनश्च सौबलश्चापि सप्तभिः। एते कौरव सङ्क्रन्दे शैनेयं पर्यवाकिरन्।। | 5-173-12a 5-173-12b 5-173-12c |
दृष्ट्वा च समरे द्रोणं निघ्नन्तं पाण्डवीं चमूम्। विव्यधुः सोमकास्तूर्णं समन्ताच्छरवृष्टिभिः।। | 5-173-13a 5-173-13b |
तत्र द्रोणोऽहरत्प्राणान्क्षत्रियाणां विशाम्पते। रश्मिभिर्भास्करो राजंस्तमांसीव समन्ततः।। | 5-173-14a 5-173-14b |
द्रोणेन वध्यमानानां पाञ्चालानां विशाम्पते। शुश्रुवे तुमुलः शब्दः क्रोशतामितरेतरम्।। | 5-173-15a 5-173-15b |
पुत्रानन्ये पितॄनन्ये भ्रातॄनन्ये च मातुलान्। भागिनेयान्वयस्यांश्च तथा सम्बन्धिबान्धवान्। उत्सृज्योत्सृज्य गच्छन्ति त्वरिता जीवितेप्सवः।। | 5-173-16a 5-173-16b 5-173-16c |
अपरे मोहिता मोहात्तमेवाभिमुखा ययुः। पाण्डवानां रणे योधाः परलोकं गताः परे।। | 5-173-17a 5-173-17b |
सा तथा पाण्वी सेना पीड्यमाना महात्मना। निशि सम्प्राद्रवद्राजन्नुत्सृज्योल्काः सहस्रशः।। | 5-173-18a 5-173-18b |
पश्यतो भीमसेनस्य विजयस्याच्युतस्य च। ययमोर्धर्मपुत्रस्य पार्षतस्य च पश्यतः।। | 5-173-19a 5-173-19b |
तमसा संवृते लोके न प्राज्ञायत किञ्चन। कौरवाणां प्रकाशेन दृश्यन्ते विद्रुताः परे।। | 5-173-20a 5-173-20b |
द्रवमाणं तु तत्सैन्यं द्रोणकर्णौ महारथौ। जघ्नतुः पृष्ठतो राजन्किरन्तौ सायकान्बहून्।। | 5-173-21a 5-173-21b |
पाञ्चालेषु प्रभग्नेषु क्षीयमाणेषु सर्वतः। जनार्दनो दीनमानाः प्रत्यभाषत फल्गुनम्।। | 5-173-22a 5-173-22b |
द्रोणकर्णौ महेष्वासावेतौ पार्षतसात्यकी। पाञ्चालांश्चैव सहितौ जघ्नतुः सायकैर्भृशम्।। | 5-173-23a 5-173-23b |
एतयोः शरवर्षेण प्रभग्ना नो महारथाः। वार्यमाणापि कौन्तेय पृतना नावतिष्ठते।। | 5-173-24a 5-173-24b |
तां तु विद्रवतीं दृष्ट्वा ऊचतुः केशवार्जुनौ। मा विद्रवत वित्रस्ता भयं त्यजत पाण्डवाः।। | 5-173-25a 5-173-25b |
तावावां सर्वसैन्यैश्च व्यूहैः सम्यगुदायुधैः। द्रोणं च सूतपुत्रं च प्रयतावः प्रबाधितुम्।। | 5-173-26a 5-173-26b |
एतौ हि बलिनौ शूरौ कृतास्त्रौ जितकाशिनौ। उपेक्षितौ बलं तूर्णं नाशयेतां निशामिमाम्।। | 5-173-27a 5-173-27b |
सञ्जय उवाच। तयोः संवदतोरेवं भीमकर्मा महाबलः। | 5-173-28a 5-173-28b |
आयाद्वृकोदरः शीघ्रं पुनरावर्त्य वाहिनीम्।। वृकोदरमथायान्तं दृष्ट्वा तत्र जनार्दनः। | 5-173-29a 5-173-29b |
पुनरेवाब्रवीद्राजन्हर्षयन्निव पाण्डवम्।। एष भीमो रणश्लाघी वृतः सोमकपाण्डवैः। | 5-173-30a 5-173-30b |
अभ्यवर्तत वेगेन द्रोणकर्णौ महारथौ।। एतेन सहितो युद्ध्य पाञ्चालैश्च महारथैः। | 5-173-31a 5-173-31b |
आश्वासनार्थं सैन्यानां सर्वेषां पाण्डुनन्दन।। ततस्तौ पुरुषव्याघ्रावुभौ माधवपाण्डवौ। | 5-173-32a 5-173-32b |
द्रोणकर्णौ समासाद्य धिष्ठितौ रणमूर्धनि।। | 5-173-33a |
सञ्जय उवाच। | 5-173-33x |
ततस्तत्पुनरावृत्तं युधिष्ठिरबलं महत्। ततो द्रोणश्च कर्णश्च परान्ममृदतुर्युधि।। | 5-173-33b 5-173-33b |
स सम्प्रहारस्तुमुलो निशि प्रत्यभवन्महान्। यथा सागरयो राजंश्चन्द्रोदयविरुद्धयोः।। | 5-173-34a 5-173-34b |
तत उत्सृज्य पाणिभ्यां प्रदीपांस्तव वाहिनी। युयुधे पाण्डवैः सार्धमुन्मत्तवदसङ्कुला।। | 5-173-35a 5-173-35b |
रजसा तमसा चैव संवृते भृशदारुणे। केवलं नामगोत्रेण प्रायुध्यन्त जयैषिणः।। | 5-173-36a 5-173-36b |
अश्रूयन्त हि नामानि श्राव्यमाणानि पार्थिवैः। प्रहरद्भिर्महाराज स्वयंवर इवाहवे।। | 5-173-37a 5-173-37b |
निःशब्दमासीत्सहसा पुनः शब्दो महानभूत्। क्रुद्धानां युध्यमानानां जीयतां जयतामपि।। | 5-173-38a 5-173-38b |
यत्रयत्र स्म दृश्यन्ते प्रदीपाः कुरुसत्तम। तत्रतत्र स्म शूरास्ते निपतन्ति पतङ्गवत्।। | 5-173-39a 5-173-39b |
तथा संयुध्यमानानां विगाढाऽऽसीन्महानिशा। पाण्डवानां च राजेन्द्र कौरवाणां च सर्वशः।। | 5-173-40a 5-173-40b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि चतुर्दशरात्रियुद्धे त्रिसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 173 ।। |
5-173-8 घट्टितौ मर्दितौ।। 5-173-12 सङ्क्रन्दे युद्धे।। 5-173-23 सात्यकी इति द्वितीयान्तम्।। 5-173-173 त्रिसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-172 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-174 |