महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-175
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घटोत्कचेन जटासुरसुतवधः।। 1 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-175-1x |
दृष्ट्वा घटोत्कचं राजन्सूतपुत्ररथं प्रति। आयान्तं तु तथायुक्तं जिघांसुं कर्णमाहवे। अब्रवीत्तत्र पुत्रस्ते दुःशासनमिदं वचः।। | 5-175-1a 5-175-1b 5-175-1c |
एतद्रक्षो रणे तूर्णं दृष्ट्वा कर्णस्य विक्रमम्। अभियाति द्रुतं कर्णं तद्वारय महारथम्।। | 5-175-2a 5-175-2b |
वृतः सैन्येन महता याहि यत्र महाबलः। कर्णो वैकर्तनो युद्धे राक्षसेन युयुत्सति।। | 5-175-3a 5-175-3b |
रक्ष कर्णं रणे यत्तो वृतः सैन्येन मानद। मा कर्णं राक्षसो घोरः प्रमादान्नाशयिष्यति।। | 5-175-4a 5-175-4b |
एतस्मिन्नन्तरे राजञ्जटासुरसुतो बली। दुर्योधनमुपागम्य प्राह प्रहरतां वरः।। | 5-175-5a 5-175-5b |
दुर्योधन तवामित्रान्प्रख्यातान्युद्धदुर्मदान्। पाण्डवान्हन्तुमिच्छामि त्वयाऽऽज्ञप्तः सहानुगान्।। | 5-175-6a 5-175-6b |
जटासुरो मम पिता रक्षसां ग्रामणीः पुरा। प्रयुज्य कर्म रक्षोघ्नं क्षुद्रैः पार्थैर्निपातितः।। | 5-175-7a 5-175-7b |
तस्यापचितिमिच्छामि शत्रुशोणितपूजया। शत्रुमांसैश्च राजेन्द्र मामनुज्ञातुमर्हसि।। | 5-175-8a 5-175-8b |
तमब्रवीत्ततो राजा प्रीयमाणः पुनःपुनः। द्रोणकर्मादिभिः सार्धं पर्याप्तोऽहं द्विषद्वधे।। | 5-175-9a 5-175-9b |
त्वं तु गच्छ मयाऽऽज्ञप्तो जहि युद्धे घटोत्कचम्। राक्षसं क्रूरकर्माणं रक्षोमानुषसम्भवम्।। | 5-175-10a 5-175-10b |
पाण्डवानां हितं नित्यं हस्त्यश्वरथघातिनम्। वैहायसगतं युद्धे प्रेषयेर्यमसादनम्।। | 5-175-11a 5-175-11b |
तथेत्युक्त्वा महाकायः समाहूय घटोत्कचम्। जाटासुरिर्भैमसेनिं नानाशस्त्रैरवाकिरत्।। | 5-175-12a 5-175-12b |
अलम्बलं च कर्णं च कुरुसैन्यं च दुस्तरम्। हैडिम्बिः प्रममाथैको महाबातोम्बुदानिव।। | 5-175-13a 5-175-13b |
ततो मायाबलं दृष्ट्वा रक्षस्तूर्णमलम्बलः। घटोत्कचं शरव्रातैर्नानालिङ्गैः समार्पयत्।। | 5-175-14a 5-175-14b |
विद्धा च बहुभिर्बाणैर्भैमसेनिं महाबलः। व्यद्रावयच्छरव्रातैः पाण्डवानामनीकिनीम्।। | 5-175-15a 5-175-15b |
तेन विद्राव्यमाणानि पाण्डुसैन्यानि भारत। निशीथे विप्रकीर्यन्ते वातनुन्ना घना इव।। | 5-175-16a 5-175-16b |
घटोत्कचशरैर्नुन्ना तथैव तव वाहिनी। निशीथे प्राद्रवद्राजन्नुत्सृज्योल्काः सहस्रशः।। | 5-175-17a 5-175-17b |
अलम्बलस्ततः क्रुद्धो भैमसेनिं महामृधे। आजघ्ने दशभिर्बाणैस्तोत्रैरिव महाद्विपम्।। | 5-175-18a 5-175-18b |
तिxशस्तस्य संवाहं सूतं सर्वायुधानि च। घटोत्कचः प्रचिच्छेद प्रणदंश्चातिदारुणम्।। | 5-175-19a 5-175-19b |
ततः कर्णं शरव्रातैः कुरूनन्यान्सहस्रशः। अलम्बलं चाभ्यवर्षन्मेघो मेरुमिवाचलम्।। | 5-175-20a 5-175-20b |
ततः सञ्चुक्षुभे सैन्यं कुरूणां राक्षसार्दितम्। उपर्युपरि चान्योन्यं चतुरङ्गं ममर्द ह।। | 5-175-21a 5-175-21b |
जाटासुरिर्महाराज विरथो हतसारथिः। घटोत्कचं रणे क्रुद्धो मुष्टिनाऽभ्यहनद्दृढम्।। | 5-175-22a 5-175-22b |
मुष्टिनाऽभ्याहतस्तेन प्रचचाल घटोत्कचः। क्षितिकम्पे यथा शैलः सवृक्षस्तृणगुल्मवान्।। | 5-175-23a 5-175-23b |
ततः स परिघाभेन द्विट्सङ्घघ्नेन बाहुना। जाटासुरिं भैमसेनिरवधीन्मुष्टिना भृशम्।। | 5-175-24a 5-175-24b |
तं प्रमथ्य ततः क्रुद्धस्तूर्णं हैडिम्बिराक्षिपत्। दोर्भ्यामिन्द्रध्वजाभाभ्यां निष्पिपेष च भूतले।। | 5-175-25a 5-175-25b |
जाटासुरिर्मोक्षयित्वा आत्मानं च घटोत्कचात्। पुनरुत्थाय वेगेन घटोत्कचमुपाद्रावत्।। | 5-175-26a 5-175-26b |
अलम्बलोऽपि विक्षिप्य समुत्क्षिप्य च राक्षसम्। घटोत्कचं रणे रोषान्निष्पिपेष च भूतले।। | 5-175-27a 5-175-27b |
तयो समभवद्युद्धं गर्जतोरतिकाययोः। घटोत्कचालम्बलयोस्तुमुलं रोमहर्षणम्।। | 5-175-28a 5-175-28b |
विशेषयन्तावन्योन्यं मायाभिरतिमायिनौ। युयुधाते महावीर्याविन्द्रवैरोचनाविव।। | 5-175-29a 5-175-29b |
पावकाम्बुनिधी भूत्वा पुनर्गरुडतक्षकौ। पुनर्मेघमहाबत्तौ पुनर्वज्रमहाचलौ।। | 5-175-30a 5-175-30b |
पुनः कुञ्जरशार्दूलौ पुनः स्वर्भानुभास्करौ। एवं मायाशतसृजावन्योन्यवधकाङ्क्षिणौ। भृशं चित्रमयुध्येतामलम्बलघटोत्कचौ।। | 5-175-31a 5-175-31b 5-175-31c |
परिघैश्च गदाभिश्च प्रासमुद्ररपट्टसैः। मुसलैः पर्वताग्रैश्च तावन्योन्यं विजघ्नतुः।। | 5-175-32a 5-175-32b |
हयाभ्यां च गजाभ्यां च रथाभ्यां च पदातिभिः। युयुधाते महामायौ राक्षसप्रवरौ युधि।। | 5-175-33a 5-175-33b |
ततो घटोत्कचो राजन्नलम्बलवधेप्सया। उत्पतात भृशं क्रुद्धः श्येनवन्निपपात च।। | 5-175-34a 5-175-34b |
गृहीत्वा च महाकायं राक्षसेन्द्रमलम्बलम्। उद्यम्य न्यवधीद्भूमौ मयं विष्णुरिवाहवे।। | 5-175-35a 5-175-35b |
ततो घटोत्कचः खङ्गमुद्वृत्याद्भुतदर्शनम्। रौद्रस्य कायाद्वि शिरो भीमं विकृतदर्शनम्।। | 5-175-36a 5-175-36b |
स्फुरतस्तस्य समरे नदतश्चातिभैरवम्। निचकर्त महाराज शत्रोमितविक्रमः।। | 5-175-37a 5-175-37b |
शिरस्तच्चापि सङ्गृह्य केशेषु रुधिरोक्षितम्। ययौ घटोत्कचस्तूर्णं दुर्योधनरथं प्रति।। | 5-175-38a 5-175-38b |
`द्रोणकर्णकृपान्योधानतीत्य सुमहाबलः'। अभ्येत्य च महाबाहुः स्मयमानः स राक्षसः।। | 5-175-39a 5-175-39b |
शिरो रथेऽस्य निक्षिप्य विकृताननमूर्धजम्। प्राणदद्भैरवं नादं प्रावृषीव वलाहकः।। | 5-175-40a 5-175-40b |
अब्रवीच्च ततो राजन्दुर्योधनमिदं वचः।। | 5-175-41a |
एष ते निहतो बन्धुस्त्वया दृष्टोऽस्य विक्रमः। पुनर्द्रष्टासि कर्णस्य निष्ठामेतां तथाऽऽत्मनः।। | 5-175-42a 5-175-42b |
स्वधर्ममर्थं कामं च त्रितयं योऽभिवाञ्छति। रिक्तपाणिर्न पश्येत राजानं ब्राह्मणं स्त्रियम्। तिष्ठस्व तावत्सुप्रीतो यावत्कर्णं वधाम्यहम्।। | 5-175-43a 5-175-43b 5-175-43c |
सञ्जय उवाच। | 5-175-44x |
एवमुक्त्वा ततः प्रायात्कर्णं प्रति नरेश्वरः। किरञ्छरगणांस्तीक्ष्णान्रुषितो रणमूर्धनि।। | 5-175-44a 5-175-44b |
ततः समभवद्युद्धं घोररूपं भयानकम्। विस्मापनं महाराज नरराक्षसयोर्मृधे।। | 5-175-45a 5-175-45b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि चतुर्दशरात्रियुद्धे पञ्चसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 175 ।। |
5-175-8 अपचिनिं निष्कृतिम्।। 5-175-42 निष्ठां नाशम्।। 5-175-175 पञ्चसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।।
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