महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-062
दिखावट
← द्रोणपर्व-061 | महाभारतम् सप्तमपर्व महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-062 वेदव्यासः |
द्रोणपर्व-063 → |
|
नारदेन सृञ्जयम्प्रति मान्धातृचरिताभिधानम्।। 1 ।।
नारद उवाच। | 5-62-1x |
मान्धतारं यौवनाश्वं मृतं सृञ्जय शुश्रुम। यं देवावश्विनौ गर्भे पितुः पार्श्वे चकर्षतुः।। | 5-62-1a 5-62-1b |
मृगयां विचरन्राजा तृषितः क्लान्तवाहनः। धूमं दृष्ट्वाऽगमत्सत्रं पृषदाज्यमवाप सः।। | 5-62-2a 5-62-2b |
तं दृष्ट्वा युवनाश्वस्य जठरे रविसन्निभम्। गर्भं निरूहतुर्देवावश्विनौ भिषजां वरौ।। | 5-62-3a 5-62-3b |
तं दृष्ट्वा पितुरुत्सङ्गे शयानं देववर्चसम्। अन्योन्यमब्रुवन्देवाः कमयं धास्यतीति वै।। | 5-62-4a 5-62-4b |
मामेवायं धयत्वङ्ग इति ह स्माह वासवः। ततोङ्गुलिभ्यो हीन्द्रस्य प्रादुरासीत्पयोऽमृतम्।। | 5-62-5a 5-62-5b |
मां धास्यतीति कारण्याद्यदिन्द्रो ह्यन्वकम्पयत्। तस्मात्तु मान्धातेत्येवं नाम तस्याद्भुतं कृतम्।। | 5-62-6a 5-62-6b |
ततस्तु धारां पयसो घृतस्य च महात्मनः। तस्यास्ये यौवनाश्वस्य पाणिरिन्द्रस्य चास्रवत्।। | 5-62-7a 5-62-7b |
अपिबत्पाणिमिन्द्रस्य स चाप्यह्गाऽभ्यवर्धत। सोऽभवद्द्वादशसमो द्वादशाहेन वीर्यवान्।। | 5-62-8a 5-62-8b |
इमां च पृथिवीं कृत्स्नामेकाह्ना स व्यजीजयत्। धर्मात्मा धृतिमान्वीरः सत्यसन्धो जितेन्द्रियः।। | 5-62-9a 5-62-9b |
जनमेजयं सुधन्वानं गयं पूरुं बृहद्रथम्। असितं च नृगं चैव मान्धाता मानवोऽजयत्।। | 5-62-10a 5-62-10b |
उदेति च यतः सूर्यो यत्र च प्रतितिष्ठति। तत्सर्वं यौवनाश्वस्य मान्धातुः क्षेत्रमुच्यते।। | 5-62-11a 5-62-11b |
सोऽश्वमेधशतैरिष्ट्वा राजसूयशतेन च। अददद्रोहितान्मत्स्यान्ब्राह्मणेभ्यो विशाम्पते।। | 5-62-12a 5-62-12b |
हैरण्यान्योजनोत्सेधानायताञ्शतयोजनम्। बहुप्रकारान्सुस्वादून्भक्ष्यभोज्यान्नपर्वतान्।। | 5-62-13a 5-62-13b |
अतिरिक्तं ब्राह्मणेभ्यो भुञ्जानो हीयते जनः।। | 5-62-14a |
भक्ष्यान्नपाननिचयाः शुशुभुस्त्वन्नपर्वताः। घृतहदाः सूपपङ्का दधिफेनां गुडोदकाः।। | 5-62-15a 5-62-15b |
रुरुधुः पर्वतान्नद्यो मधुक्षीरवहाः शुभाः। देवासुरा नरा यक्षा गन्धर्वोरगपक्षिणः।। | 5-62-16a 5-62-16b |
विप्रास्तत्रागताश्चासन्वेदवेदाङ्गपारगाः। ब्राह्मणा ऋषयश्चापि नासंस्तत्राविपश्चितः।। | 5-62-17a 5-62-17b |
समुद्रान्तां वसुमतीं वसुपूर्णां तु सर्वतः। स तां ब्राह्मणसात्कृत्वा जगाम स्वान्गृहान्प्रति।। | 5-62-18a 5-62-18b |
`राजाऽपि विविधैरिष्ट्वा यज्ञैर्विविधदक्षिणैः'। गतः पुण्यकृतां लोकान्व्याप्य स्वयशसा दिशः।। | 5-62-19a 5-62-19b |
स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया। पुत्रात्पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः। अयज्वानमदक्षिण्यमभि श्वैत्येत्युदाहरत्।। | 5-62-20a 5-62-20b 5-62-20c |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि षोडशराजकीये द्विषष्टितमोऽध्यायः।। 62 ।। |
5-62-6 तस्मान्मान्धातरित्येवं इति क.पाठः।। 5-62-8 द्वादशसमो द्वादशवार्षिकः। शय इति पाठे द्वादशहस्तः। व्यजीजयद्विजितवान्।। 5-62-13 रोहितान् लोहितभूप्रदेशान्पद्मरागखनिमतो वा मत्स्यान्देशविशेषान्। हैरण्यान् स्वर्णाकरयुक्तान्। जनोत्सेधान् जनेषु उत्सेध उच्छ्रायो येषां तान्। मत्स्यदेशोत्पन्ने हि नद्यावद्यापि परम्परया पूर्वापरौ समुद्रौ गच्छत इति तेषामुच्छ्रितत्वं प्रसिद्धम्। रोहितानश्वान् इति क.ङ.पाठः।। 5-62-14 अतिरिक्तमवशिष्टं भुञ्जानो जन एव हीयते तत्वन्नमित्यर्थः।। 5-62-62 द्विषष्टितमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-061 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-063 |