महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-187
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द्रोणेन द्रुपदविराटादीनां वधः।। 1 ।। भीमेन निष्ठुरभाषणेन धृष्टद्युम्नमुद्योज्य द्रोणानीकाभिगमनम्।। 2 ।। चतुर्दशरात्रियुद्धसमाप्तिः।। 3 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-187-1x |
त्रिभागमात्रेषायां रात्र्यां युद्धमवर्तत। कुरूणां पाण्डवानां च संहृष्टानां विशाम्पते।। | 5-187-1a 5-187-1b |
अथ चन्द्रप्रभां मुष्णन्नादित्यस्य पुरःसरः। अरुणोऽभ्युदयाञ्चक्रे ताम्रीकृर्वन्निवाम्बरम्।। | 5-187-2a 5-187-2b |
`प्रकाशमकरोद्व्योम जगत्संरञ्जयन्निव'। प्राच्यां दिशि सहस्रांशोररुणेनारुणीकृतम्। तापनीयं यथा चक्रं भ्राजते रविमण्डलम्।। | 5-187-3a 5-187-3b 5-187-3c |
ततो रथाश्वांश्च मनुष्ययाना-- न्युत्सृज्य सर्वे कुरुपाण्डुयोधाः। दिवाकरस्याभिमुखं जपन्तः सन्ध्यागताः प्राञ्जलयो बभूवुः।। | 5-187-4a 5-187-4b 5-187-4c 5-187-4d |
ततो द्वैधीकृते सैन्ये द्रोणः सोमकपाण्डवान्। अभ्यद्रवत्सपाञ्चालान्दुर्योधनपुरोगमः।। | 5-187-5a 5-187-5b |
द्वैधीकृतान्कुरून्दृष्ट्वा माधवोऽर्जुनमब्रवीत्। सपत्नान्सव्यतः कुर्याः सव्यसाचिन्निमान्कुरून्।। | 5-187-6a 5-187-6b |
स माधवमनुज्ञाय कुरुष्वेति धनञ्जयः। द्रोणकर्णौ महेष्वासौ सव्यतः पर्यवर्तत।। | 5-187-7a 5-187-7b |
अभिप्रायं तु कृष्णस्य ज्ञात्वा परपुरञ्जयः। आजिशीर्षगतं पार्थं भीमसेनोऽभ्युवाच ह।। | 5-187-8a 5-187-8b |
भीमसेन उवाच। | 5-187-9x |
अर्जुनार्जुन बीभत्सो शृणुष्वैतद्वचो मम। यदर्थं क्षत्रिया सूते तस्य कालोऽयमागतः।। | 5-187-9a 5-187-9b |
अस्मिंश्चेदागते काले श्रेयो न प्रतिपत्स्यसे। असम्भावितरूपस्त्वं सुनृशंसं करिष्यसि।। | 5-187-10a 5-187-10b |
सत्यश्रीधर्मयशसां वीर्येणानृण्यमाप्नुहि। भिन्ध्यनीकं युधांश्रेष्ठ प्रतिज्ञां सफलां कुरु।। | 5-187-11a 5-187-11b |
सञ्जय उवाच। | 5-187-12x |
स सव्यसाची भीमेन चोदितः केशवेन च। कर्णद्रोणावतिक्रम्य समन्तात्पर्यवारयत्।। | 5-187-12a 5-187-12b |
तमाजिशीर्षमायान्तं दहन्तं क्षत्रियर्षभान्। पराक्रान्तं पराक्रम्य ततः क्षत्रियपुङ्गवाः। नाशक्नुवन्वारयितुं वर्धमानमिवानलम्।। | 5-187-13a 5-187-13b 5-187-13c |
अथ दुर्योधनः कर्णः शकुनिश्चापि सौबलः। अभ्यवर्षञ्छरव्रातैः कुन्तीपुत्रं धनञ्जयम्।। | 5-187-14a 5-187-14b |
तेषामस्त्राणि सर्वेषामुत्तमास्त्रविदां वरः। कदर्थीकृत्य राजेन्द्र शरवर्षैरवाकिरत्।। | 5-187-15a 5-187-15b |
अस्त्रैरस्त्राणि संवार्य लघुहस्तो धनञ्जयः। सर्वानविध्यन्निशितैर्दशभिर्दशभिः शरैः।। | 5-187-16a 5-187-16b |
उद्धूता रजसो वृष्टिः शरवृष्टिस्तथैव च। तमश्च घोरं शब्दश्च तदा समभवन्महान्।। | 5-187-17a 5-187-17b |
न द्यौर्न भूमिर्न दिशः प्राज्ञायन्त तथागते। सैन्येन रजसा मूढं सर्वमन्घमिवाभवत्।। | 5-187-18a 5-187-18b |
नैव ते न वयं राजन्प्राज्ञासिष्म परस्परम्। `शब्दमात्रेण जानीमो वयं ते च परस्परम्'। उद्देशेन हि तेन स्म समयुध्यन्त पार्थिवाः।। | 5-187-19a 5-187-19b 5-187-19c |
विरथा रथिनो राजन्समासाद्य परस्परम्। केशेषु समसज्जन्त कवचेषु भुजेषु च।। | 5-187-20a 5-187-20b |
हताश्वा हतसूताश्च निश्चेष्टा रथिनो हताः। जीवन्त इव तत्र स्म व्यदृश्यन्त भयार्दिताः।। | 5-187-21a 5-187-21b |
हतान्गजान्समाश्लिष्य पर्वतानिव वाजिनः। गतसत्वा व्यदृश्यन्त तथैव सह सादिभिः।। | 5-187-22a 5-187-22b |
ततस्त्वभ्यवसृत्यैव सङ्ग्रामादुत्तरां दिशम्। आतिष्ठदाहवे द्रोणो विधूमोऽग्निरिव ज्वलन्।। | 5-187-23a 5-187-23b |
तमाजिशीर्षादेकान्तमपक्रान्तं निशम्य तु। समकम्पन्त सैन्यानि पाण्डवानां विशाम्पते।। | 5-187-24a 5-187-24b |
भ्राजमानं श्रिया युक्तं ज्वलन्तमिव तेजसा। द्रोणं दृष्ट्वा परे त्रेसुश्चेरुर्मम्लुश्च भारत।। | 5-187-25a 5-187-25b |
आह्वयन्तं परानीकं प्रभिन्नमिव वारणम्। नैनमाशंसिरे जेतुं दानवा वासवं यथा।। | 5-187-26a 5-187-26b |
केचिदासन्निरुत्साहाः केचित्क्रुद्धा मनस्विनः। विस्मिताश्चाभवन्केचित्केचिद्वृष्टाऽभवन्युधि।। | 5-187-27a 5-187-27b |
हस्तैर्हस्ताग्रमपरे प्रत्यपिम्पन्नराधिपाः। अपरे दशनैरोष्ठानदशन्क्रोधमूर्च्छिताः।। | 5-187-28a 5-187-28b |
व्याक्षिपन्नायुधान्यन्ये ममृदुश्चापरे भुजान्। अन्ये चान्वपतन्द्रोणं त्यक्तात्मानो महौजसः।। | 5-187-29a 5-187-29b |
पाञ्चालास्तु विशेषेण द्रोणसायकपीडिताः। समसज्जन्त राजेन्द्र समरे भृशवेदनाः।। | 5-187-30a 5-187-30b |
ततो विराटद्रुपदौ द्रोणं प्रति ययू रणे। तथा चरन्तं सङ्ग्रामे भृशं समरदुर्जयम्।। | 5-187-31a 5-187-31b |
द्रुपदस्य ततः पौत्रास्त्रय एव विशाम्पते। चेदयश्च महेष्वासा द्रोणमेवाभ्ययुर्युधि।। | 5-187-32a 5-187-32b |
तेषां द्रुपदपौत्राणां त्रयाणां निशितैः शरैः। त्रिभिर्द्रोणोऽहरत्प्राणांस्ते हता न्यपतन्भुवि।। | 5-187-33a 5-187-33b |
ततो द्रोणोऽजयद्युद्धे चेदिकैकेयसृञ्जयान्। मात्स्यांश्चैवाजयत्कृत्स्नान्भारद्वाजो महारथान्।। | 5-187-34a 5-187-34b |
ततस्तु द्रुपदः क्रोधाच्छरवर्षमवासृजत्। द्रोणं प्रति महाराज विराटश्चैव संयुगे।। | 5-187-35a 5-187-35b |
तं निहत्येषुवर्षं तु द्रोणः क्षत्रियमर्दनः। तौ शरैश्छादयामास विराटद्रुपदावुभौ।। | 5-187-36a 5-187-36b |
द्रोणेन च्छाद्यमानौ तु क्रुद्धौ सङ्ग्राममूर्धनि। द्रोणं शरैर्विव्यधतुः परमं क्रोधमास्थितौ।। | 5-187-37a 5-187-37b |
तत द्रोणो महाराज क्रोधामर्षसमन्वितः। भल्लाभ्यां भृशतीक्ष्णाभ्यां चिच्छेद धनुषी तयोः।। | 5-187-38a 5-187-38b |
ततो विराटः कुपितः समरे तोमरान्दश। दश चिक्षेप च शरान्द्रोणस्य वधकाङ्क्षया।। | 5-187-39a 5-187-39b |
शक्तिं च द्रुपदो घोरामायसीं स्वर्णभूषिताम्। चिक्षेप भुजगेन्द्राभां क्रुद्धो द्रोणरथं प्रति।। | 5-187-40a 5-187-40b |
ततो भल्लैः सुनिशितैश्छित्त्वा तांस्तोमारान्दश। शक्तिं कनकवैदूर्यां द्रोणश्चिच्छेद सायकैः।। | 5-187-41a 5-187-41b |
ततो द्रोणः सुपीताभ्यां भल्लाभ्यामरिमर्दनः। द्रुपदं च विराटं च प्रेषयामास मृत्यवे।। | 5-187-42a 5-187-42b |
हते विराटे द्रुपदे केकयेषु तथैव च। तथैव चेदिमात्स्येषु पाञ्चालेषु तथैव च।। | 5-187-43a 5-187-43b |
हतेषु त्रिषु वीरेषु द्रुपदस्य च नप्तृषु। द्रोणस्य कर्म तद्दृष्ट्वा कोपदुःखसमन्वितः। शशाप रथिनां मध्ये धृष्टद्युम्नो महामनाः।। | 5-187-44a 5-187-44b 5-187-44c |
इष्टापूर्तात्तथा क्षात्राद्ब्राह्मण्याच्च स नश्यतु। द्रोणो यस्याद्य मुच्येत यं वा द्रोणः पराभवेत्।। | 5-187-45a 5-187-45b |
इति तेषां प्रतिश्रुत्य मध्ये सर्वधनुष्मताम्। आयाद्द्रोणं सहानीकाः पाञ्चाल्यऋ परवीरहा।। | 5-187-46a 5-187-46b |
पाञ्चालास्त्वेकतो द्रोणभ्यघ्नन्पाण्डवैः सह। दुर्योधनश्च कर्णश्च शकुनिश्चापि सौबलः। सोदर्याश्च यथा मुख्यास्तेऽरक्षन्द्रोणमाहवे।। | 5-187-47a 5-187-47b 5-187-47c |
रक्ष्यमाणं तथा द्रोणं सर्वैस्तैस्तु महारथैः। यतमानास्तु पाञ्चाला न शेकुः प्रतिवीक्षितुम्।। | 5-187-48a 5-187-48b |
तत्राक्रुध्यद्भीमसेनो धृष्टद्युम्नस्य मारिष। स एनं वाग्भिरुग्राभिस्ततक्ष पुरुषर्षभः।। | 5-187-49a 5-187-49b |
भीमसेन उवाच। | 5-187-50x |
द्रुपदस्य कुले जातः सर्वास्त्रेष्वस्त्रवित्तमः। कः क्षत्रियो मन्यमानः प्रेक्षेतारिमवस्थितम्।। | 5-187-50a 5-187-50b |
पितृपुत्रवधं प्राप्य पुंस्त्वं को वा प्रहर्षयेत्। विशेषतस्तु शपथं शपित्वा राजसंसदि।। | 5-187-51a 5-187-51b |
एष वैश्वानर इव समिद्धः स्वेन तेजसा। शरचापेन्धनो द्रोणः क्षत्रं दहति तेजसा।। | 5-187-52a 5-187-52b |
पुरा करोति निःशेषां पाण्डवानामनीकिनीम्। स्थिताः पश्यत मे कर्म द्रोणमेव व्रजाम्यहम्।। | 5-187-53a 5-187-53b |
इत्युक्त्वा प्राविशत्क्रुद्धो द्रोणानीकं वृकोदरः। शरैः पूर्णायतोत्सृष्टौर्द्रावयंस्तव वाहिनीम्।। | 5-187-54a 5-187-54b |
धृष्टद्युम्नोऽपि पाञ्चाल्यः प्रविश्य महतीं चमूम्। आससाद रणे द्रोणं तदासीत्तुमुलं महत्।। | 5-187-55a 5-187-55b |
नैव नस्तादृशं युद्धं दृष्टपूर्वं न च श्रुतम्। यथा सूर्योदये राजन्समुत्पिञ्जोऽभवन्महान्।। | 5-187-56a 5-187-56b |
संसक्तान्येव चादृश्यन्रथवृन्दानि मारिष। हतानि च विकीर्णानि सरीराणि शरीरिणाम्।। | 5-187-57a 5-187-57b |
केचिदन्यत्र गच्छन्तः पथि चान्यैरुपद्रुताः। विमुखाः पृष्ठतश्चान्ये ताड्यन्ते पार्श्वतः परे।। | 5-187-58a 5-187-58b |
तथा संसक्तयुद्धं तदभवद्भृशदारुणम्। अथ सन्ध्यागतः सूर्यः क्षणेन समपद्यत।। | 5-187-59a 5-187-59b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणवधपर्वणि चतुर्दशरात्रियुद्धे सप्ताशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 187 ।। |
5-187-1 त्रिभागमात्रशेषायां मुहूर्तत्रयावशिष्टायाम्। तत्र सूर्योदयोत्तरं त्रयोदश्यां द्रोणस्य नाशः। त्रयोदश्यां शुक्लयि युद्धारम्भस्य--हेमन्ते प्रथमेमासे शुक्लपक्षे त्रयोदशीम्। प्रवृत्तं भारतं युद्धमिति भारतसावित्र्यामुक्तस्य चोपपत्तिः सिध्यति।। 5-187-44 शशाप शपथं कृतवान्।। 5-187-45 इष्टं यागहोमादि। आपूर्तं क्षेत्रारामादि। क्षात्रं द्रुपदकुलोत्पन्नत्वात्। ब्राह्मण्यं याजोपयाजयोर्ब्राह्मणयेस्तपसा ब्राह्मणरूपादग्नेश्च जातत्वात्। एतत्सर्वं तस्य नश्यतु। यस्य शत्रुर्द्रोणो मुच्येत मरणं न प्राप्नुयात्। यं वा मां वा. द्रोणो यदि पराभवेदिति।। 5-187-187 सप्ताशीत्याधिकशततमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-186 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-188 |