महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-142
← द्रोणपर्व-141 | महाभारतम् सप्तमपर्व महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-142 वेदव्यासः |
द्रोणपर्व-143 → |
|
सात्यकिभूरिश्रवसोर्युद्धम्।। 1 ।। सात्यकिशिरच्छेदायोन्नमितस्य स्वङ्गभृतो भूरिश्रवोभुजस्यार्जुनेन सञ्छेदः।। 2 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-142-1x |
तमापतन्तं सम्प्रेक्ष्य सात्वतं युद्धदुर्मदम्। क्रोधाद्भूरिश्रवा राजन्सहसा समुपाद्रवत्।। | 5-142-1a 5-142-1b |
तमब्रवीन्महाराज कौरव्यः शिनिपुङ्गवम्। अद्य प्राप्तोऽपि दिष्ट्या मे चक्षुर्विषयमित्युत।। | 5-142-2a 5-142-2b |
चिराभिलषितं काममहं प्राप्स्यामि संयुगे। न हि मे मोक्ष्यसे जीवन्यदि नोत्सृजसे रणम्।। | 5-142-3a 5-142-3b |
अद्य त्वां समरे हत्वा नित्यं शूराभिमानिनम्। नन्दयिष्यामि दाशार्ह कुरुराजं सुयोधनम्।। | 5-142-4a 5-142-4b |
अद्य मद्बाणनिर्दग्धं पतितं धरणीतले। द्रक्ष्यतस्त्वां रणे वीरौ सहितौ केशवार्जुनौ।। | 5-142-5a 5-142-5b |
अद्य धर्मसुतो राजा श्रुत्वा त्वां निहतं मया। सव्रीडो भविता सद्यो येनासीह प्रवेशितः।। | 5-142-6a 5-142-6b |
अद्य मे विक्रमं पार्थो विज्ञास्यति धनञ्जयः। त्वयि भूमौ विनिहते शयाने रुधिरोक्षिते।। | 5-142-7a 5-142-7b |
चिराभिलषितो ह्येष त्वया सह समागमः। पुरा देवासुरे युद्धे शक्रस्य बलिना यथा।। | 5-142-8a 5-142-8b |
अद्य युद्धं महाघोरं तव दास्यामि सात्वत। ततो ज्ञास्यसि तत्त्वेन मद्वीर्यबलपौरुषम्।। | 5-142-9a 5-142-9b |
अद्य संयमनीं याता मया त्वं निहतो रणे। यथा रामानुजेनाजौ रावणिर्लक्ष्मणेन ह।। | 5-142-10a 5-142-10b |
अद्य कृष्णश्च पार्थश्च धर्मराजश्च माधव। हते त्वयि निरुत्साहारणं त्यक्ष्यन्त्यसंशयम्।। | 5-142-11a 5-142-11b |
अद्य तेऽपचितिं कृत्वा शितैर्माधव सायकैः। तत्स्त्रियो नन्दयिष्यामि ये त्वया निहता रणे।। | 5-142-12a 5-142-12b |
मच्चक्षुर्विषये प्राप्तो न त्वं माधव मोक्ष्यसे। सिंहस्य विषयं प्राप्तो यथा क्षुद्रमृगस्तथा।। | 5-142-13a 5-142-13b |
सञ्जय उवाच। | 5-142-14x |
युयुधानस्तु तं राजन्प्रत्युवाच हसन्निव। कौरवेय न सन्त्रासो विद्यते मम संयुगे।। | 5-142-14a 5-142-14b |
नाहं भीषयितुं शक्यो वाङ्मात्रेण तु केवलम्। स मां निहन्यात्सङ्ग्रामे यो मां कुर्यान्निरायुधम्।। | 5-142-15a 5-142-15b |
समास्तु शाश्वतीर्हन्याद्यो मां हन्याद्धि संयुगे। किं वृथोक्तेन बहुना कर्मणा तत्समाचर।। | 5-142-16a 5-142-16b |
शारदस्येव मेघस्य गर्जितं निष्फलं हिते। श्रुत्वा त्वद्गर्जितं वीर हास्यं हि मम जायते।। | 5-142-17a 5-142-17b |
चिरकालेप्सितं लोके युद्धमद्यास्तु कौरव। त्वरते मे मतिस्तात तव युद्धाभिकाङ्क्षिणी। नाहत्वाऽहं निवर्तिष्ये त्वामद्य पुरुषाधम।। | 5-142-18a 5-142-18b 5-142-18c |
सञ्जय उवाच। | 5-142-19x |
अन्योन्यं तौ तथा वाग्भिस्तक्षन्तौ नरपुङ्गवौ। जिघांसू परमक्रुद्धभिजघ्नतुराहवे।। | 5-142-19a 5-142-19b |
समेतौ तौ महेष्वासौ शुष्मिणौ स्पर्धिनौ रणे। द्विरदाविव सङ्क्रुद्धौ वासितार्थे मदोत्कटौ।। | 5-142-20a 5-142-20b |
भूरिश्रवाः सात्यकिश्च ववर्षतुररिन्दमौ। शरवर्षाणि घोराणि मेघाविव परस्परम्।। | 5-142-21a 5-142-21b |
सौमदत्तिस्तु शैनेयं प्रच्छाद्येषुभिराशुगैः। जिघांसुर्भरतश्रेष्ठ विव्याध निशितैः शरैः।। | 5-142-22a 5-142-22b |
दशभिः सात्यकिं विद्ध्वा सौमदत्तिरथापरान्। मुमोच निशितान्बाणाञ्जिघांसुः शिनिपुङ्गवं।। | 5-142-23a 5-142-23b |
तानस्य विशिखांस्तीक्ष्णानन्तरिक्षे विशाम्पते। अप्राप्तानस्त्रमायाभिरग्रसत्सात्यकिः प्रभो।। | 5-142-24a 5-142-24b |
तौ पृथक्शस्त्रवर्षाभ्यामवर्षेतां परस्परम्। उत्तमाभिजनौ वीरौ कुरुवृष्मियशस्करौ।। | 5-142-25a 5-142-25b |
तौ नखैरिव शार्दूलौ दन्तैरिव महाद्विपौ। रथशक्तिभिरन्योन्यं विशिखैश्चाप्यकृन्तताम्।। | 5-142-26a 5-142-26b |
निर्भिदन्तौ हि गात्राणि विक्षरन्तौ च शोणितम्। व्यष्टम्भयेतामन्योन्यं प्राणद्यूताभिदेविनौ।। | 5-142-27a 5-142-27b |
एवमुत्तमकर्माणौ कुरुवृष्णियशस्करौ। परस्परमयुध्येतां वारणाविव यूथपौ।। | 5-142-28a 5-142-28b |
तावदीर्घेण कालेन ब्रह्मलोकपुरस्कृतौ। यियासन्तौ परं स्थानमन्योन्यं सञ्जगर्जतुः।। | 5-142-29a 5-142-29b |
सात्यकिः सौमदत्तिश्च शरवृष्ट्या परस्परम्। हृष्टवद्धार्तराष्ट्राणां पश्यतामभ्यवर्षताम्।। | 5-142-30a 5-142-30b |
सम्प्रैक्षन्त जनास्तौ तु युध्यमानौ युधाम्पती। यूथपौ वासिताहेतोः प्रयुद्धाविव कुञ्जरौ।। | 5-142-31a 5-142-31b |
`भूयोभूयः शरै राजंस्तक्षन्तौ क्रोधमूर्च्छितौ। अयुध्येतां महारङ्गे वने केसरिणाविव।। | 5-142-32a 5-142-32b |
मर्मज्ञाविव सङ्क्रुद्धौ जिघांसन्तौ जगर्जतुः। विमर्दन्तावथान्योन्यं बलवज्रधराविव।। | 5-142-33a 5-142-33b |
अथान्योन्यं पताकाश्च रथोपकरणानि च। सञ्चिच्छिदतुरायान्तौ बाणैः सन्नतपर्वभिः।। | 5-142-34a 5-142-34b |
पुनश्च शरवर्षाभ्यामन्योन्यमभिवर्षताम्। उभौ तु जघ्नतुस्तूर्णमितरेतरसारथी'।। | 5-142-35a 5-142-35b |
अन्योन्यस्य हयान्हत्वा धनुषी विनिकृत्य च। विरथावसियुद्धाय समेयातां महारणे।। | 5-142-36a 5-142-36b |
आर्षभे चर्मणी चित्रे प्रगृह्य विपुले शुभे। विकोशौ चाप्यसी कृत्वा समरे तौ विचेरतुः।। | 5-142-37a 5-142-37b |
चरन्तौ विविधान्मार्गान्मण्डलानि च भागशः। मुहुराजघ्नतुः क्रुद्धावन्योन्यमरिमर्दनौ। सखङ्गौ चित्रवर्माणौ सनिष्काङ्गदभूषणौ।। | 5-142-38a 5-142-38b 5-142-38c |
भ्रान्तमुद्धान्तमाविद्धमाप्लुतं विप्लुतं सृतम्। सम्पातं समुदीर्णं च दर्शयन्तौ यशस्विनौ।। | 5-142-39a 5-142-39b |
असिभ्यां सम्प्रजहाते परस्परमरिन्दमौ। उभौ छिद्रैषिणौ वीरावुभौ चित्रं ववल्गतुः।। | 5-142-40a 5-142-40b |
दर्शयन्तावुभौ शिक्षां लाघवं सौष्ठवं तथा। रणे रणकृतां श्रेष्ठावन्योन्यं पर्यकर्षताम्।। | 5-142-41a 5-142-41b |
मुहूर्तमिव राजेन्द्र समाहत्य परस्परम्। पश्यतां सर्वसैन्यानां वीरावाश्वसतां पुनः।। | 5-142-42a 5-142-42b |
असिभ्यां चर्मणी चित्रे शतचन्द्रे नराधिप। निकृत्य पुरुषव्याघ्रौ बाहुयुद्धं प्रचक्रतुः।। | 5-142-43a 5-142-43b |
व्यूढोरस्कौ दीर्घभुजौ नियुद्धकुशलावुभौ। बाहुभिः समसज्जेतामायसैः परिधैरिव।। | 5-142-44a 5-142-44b |
तयो राजन्भुजाघातनिग्रहप्रग्रहास्तथा। शिक्षाबलसमुद्भूताः सर्वयोधप्रहर्षणाः।। | 5-142-45a 5-142-45b |
तयोर्नृवरयो राजन्समरे युध्यमानयोः। भीमोऽभवन्महाशब्दो वज्रपर्वतयोरिव।। | 5-142-46a 5-142-46b |
द्विपाविव विषाणाग्रैः शृङ्गैरिव महर्षभौ। भुजयोक्रावबन्धैश्च शिरोभ्यां चावघातनैः।। | 5-142-47a 5-142-47b |
पादावकर्षसन्धानैस्तोमराङ्कशलासनैः। पादोदरविबन्धैश्च भूमावुद्धमणैस्तथा।। | 5-142-48a 5-142-48b |
गतप्रत्यागताक्षेपैः पातनोत्थानसम्पुतैः। युयुधाते महात्मानौ कुरुसात्वतपुङ्गवौ।। | 5-142-49a 5-142-49b |
द्वात्रिंशत्कारणानि स्युर्यानि युद्धानि भारत। तान्यदर्शयतां तत्र युध्यमानौ महाबलौ।। | 5-142-50a 5-142-50b |
क्षीणायुधे सात्वते युध्यमाने ततोऽब्रवीदर्जुनं वासुदेवः। पश्यस्वैनं विरथं युध्यमानं रणे वरं सर्वधनुर्धराणाम्।। | 5-142-51a 5-142-51b 5-142-51c 5-142-51d |
`सिन्धुराजवधे सक्तं पार्थं कृष्णोऽब्रवीत्पुनः। सीदन्तं सात्यकिं पश्य पार्थैनं परिरक्ष च'।। | 5-142-52a 5-142-52b |
प्रविष्टो भारतीं भित्त्वा तव पाण्डव पृष्ठतः। योधितश्च महावीर्यैः सर्वैर्भारत भारतैः।। | 5-142-53a 5-142-53b |
धार्तराष्ट्राश्च ये मुख्या ये च मुख्या महारथाः। निहता वृष्णिवीरेण शतशोऽथ सहस्रशः।। | 5-142-54a 5-142-54b |
परिश्रान्तं युधां श्रेष्ठं सम्प्राप्तो भूरिदक्षिणः। युद्धाकाङ्क्षी समायान्तं नैतत्सममिवार्जुन।। | 5-142-55a 5-142-55b |
ततो भूरिश्रवाः क्रुद्धः सात्यकिं युद्धदुर्मदः। उद्यम्याभ्याहनद्राजन्मत्तो मत्तमिव द्विपम्।। | 5-142-56a 5-142-56b |
ततो जलदनिर्घोषः समीपे नृपसत्तम। हाहाकारो महानासीत्सैन्यानां भरतर्षभ। यदुद्यम्य महाबाहुः सात्यकिं न्यहनद्भुवि।। | 5-142-57a 5-142-57b 5-142-57c |
रथस्थयोर्द्वयोर्युद्धे क्रुद्धयोर्योधमुख्ययोः। केशवार्युनयो राजन्समरे प्रेक्षमाणयोः।। | 5-142-58a 5-142-58b |
अथ कृष्णो महाबाहुरर्जुनं प्रत्यभाषत। पश्य वृष्ण्यन्धकव्याघ्रं सौमदत्तिवशं गतम्।। | 5-142-59a 5-142-59b |
परिश्रान्तं गतं भूमौ कृत्वा कर्म सुदुष्करम्। तवान्तेवासिनं वीरं पालयार्जुन सात्यकिम्।। | 5-142-60a 5-142-60b |
न वशं यज्ञशीलस्य गच्छेदेष वरोऽर्जुन। त्वत्कृते पुरुषव्याघ्र तदाऽऽशु क्रियतां विभो।। | 5-142-61a 5-142-61b |
सञ्जय उवाच। | 5-142-62x |
स सिंह इव मातङ्गं विकर्षन्भूरिदक्षिणः। व्यरोचत कुरुश्रेष्ठः सात्वतप्रवरं युधि।। | 5-142-62a 5-142-62b |
अथाब्रवीद्धृष्टमना वासुदेवं धनञ्जयः। पश्य वृष्णिप्रवीरेण क्रीडन्तं कुरुपुङ्गवम्। महाद्विपेनेव वने मत्तेन हरियूथपम्।। | 5-142-63a 5-142-63b 5-142-63c |
`मामेव च महाबाहो परियान्ति महारथाः। यथाशक्ति यतन्तो मां योधयन्तो जनार्दन।। | 5-142-64a 5-142-64b |
ध्रुवं च योधयाम्येताञ्छिद्रान्वेषणतत्परान्। रक्षामि सात्यकिं चैव सौमदत्तिवशं गतम्।। | 5-142-65a 5-142-65b |
अप्राप्तोऽयं मया कृष्म हन्तुं भूरिश्रवा रणे। अन्येन तु समासक्तं मम नोत्सहते मनः।। | 5-142-66a 5-142-66b |
अवश्यं च मया कृष्ण वृष्णिवीरस्य रक्षणम्। मदर्थं युध्यमानस्य कार्यं प्राणैरपि प्रभो।। | 5-142-67a 5-142-67b |
अधर्मो वाऽस्तु धर्मो वा मम माधव माधवः। परेण निहतो मा स्म प्राणान्हासीन्महारथः।। | 5-142-68a 5-142-68b |
सञ्जय उवाच। | 5-142-69x |
एवमुक्त्वाऽर्जुनः कृष्णं परानाशु शितैः शरैः। छादयामास सङ्क्रुद्धः परे चापि धनञ्जयम्।। | 5-142-69a 5-142-69b |
एवं स्म युध्यते वीरः सात्यकिं च मुहुर्मुहुः। प्रेक्षते स्म नरव्याघ्रो भूरिश्रवसमेव च'।। | 5-142-70a 5-142-70b |
तथा तु कृष्यमाणं तं दृष्ट्वा सात्यकिमाहवे। वासुदेवस्तदा वाक्यं भूयोऽप्यर्जुनमब्रवीत्।। | 5-142-71a 5-142-71b |
पश्य वृष्ण्यन्धकव्याघ्रं सौमदत्तिवंशं गतम्। तव शिष्यं महाबाहो धनुष्यनवमं त्वया।। | 5-142-72a 5-142-72b |
अनित्यो विक्रमः पार्थ यत्र भूरिश्रवा रणे। विशेषयति वार्ष्णेयं सात्यकिं सत्यविक्रमम्।। | 5-142-73a 5-142-73b |
`बहुभिर्महारथैरेष पराक्रान्तैर्युयुत्सुभिः। युद्ध्वा भृशं परिश्रान्तः क्षीणायुधरपरिच्छदः'।। | 5-142-74a 5-142-74b |
सञ्जय उवाच। | 5-142-75x |
एवमुक्तो महाराज वासुदेवेन पाण्डवः। मनसा पूजयामास भूरिश्रवसमाहवे।। | 5-142-75a 5-142-75b |
विकर्षन्सात्वतां श्रेष्ठं क्रीडमान इवाहवे। स हर्षयति मां भूयः कुरूणां नन्दिवर्धनः।। | 5-142-76a 5-142-76b |
प्रवरं वृष्णिवीराणां यन्निहन्त्येष सात्यकिम्। महाद्विपमिवारण्ये कर्षन्निव हरिर्भृशम्।। | 5-142-77a 5-142-77b |
एवं तु मनसा राजन्पार्थः सम्पूज्य कौरवम्। `अयुध्यतारिभिर्वीरस्तं च सम्प्रेक्षते मुहुः'।। | 5-142-78a 5-142-78b |
अथ कोशाद्विनिष्कृष्य खङ्गं भूरिश्रवाः शितम्। मूर्धजेषु च जग्राह पदा चोरस्याताडयत्। `आक्रम्य चाप्यथोद्यम्य सहासिं सुभुजो भुजम्।। | 5-142-79a 5-142-79b 5-142-79c |
शुशुभे स भुजस्तस्य तपनीयविभूषणः। मध्ये रथसमूहस्य इन्द्रध्वज इवोच्छ्रितः।। | 5-142-80a 5-142-80b |
हाहाकृतमभूत्सर्वं पाण्डवानां महद्बलम्। तावकाश्च मुदा युक्ताः सिंहनादं विचुक्रुशुः।। | 5-142-81a 5-142-81b |
निमीलिताक्षास्त्वभवञ्जनाः सङ्ग्रामभीरवः। तथा भूरिश्रवोग्रस्ते सात्वते नष्टविक्रमे।। | 5-142-82a 5-142-82b |
वासुदेवं महाबाहुरर्जुनः प्रत्यभाषत। सैन्धवे सक्तदृष्टित्वान्न तं पश्यामि माधवम्।। | 5-142-83a 5-142-83b |
एष त्वसुकरं कर्म यादवार्थे करोम्यहम्। मम शिष्यो ममार्थाय युध्यते मम शत्रुभिः। तं कृष्ण मोक्षयिष्यामि दावात्सिंहशिशुं यथा'।। | 5-142-84a 5-142-84b 5-142-84c |
सञ्जय उवाच। | 5-142-85x |
इत्युक्त्वा वचनं कुर्वन्वासुदेवस्य पाण्डवः। ततः क्षुरप्रं निशितं गाण्डीवे समयोजयत्।। | 5-142-85a 5-142-85b |
पार्थबाहुविसृष्टः स महोल्केव नभश्च्युता। सखङ्गं यज्ञशीलस्य बाहुं दक्षिणमच्छिनत्।। | 5-142-86a 5-142-86b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे द्विचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 142 ।। |
5-142-2 उतात्यर्थम्।। 5-142-16 शाश्वतीः समाः सर्वकालम्। तुरवधारणे। नित्यमेव असौ हन्यात्। जय एव तस्येत्यर्थः।। 5-142-29 ब्रह्मलोकपुरस्कृतौ ब्राह्मणसमूह सत्कृतौ।। 5-142-45 भुजाघातो भुजस्फोटः। निग्रहो हस्तधारणम्। प्रग्रहो गलहस्तकः।। 5-142-47 भुजयोक्त्रावबन्धैर्बाहुपाशवेष्टनैः। अवघातनैस्ताडनैः।। 5-142-48 पादशब्दः प्रत्येकं सम्बध्यते। पादावकर्षैश्चरणावकर्षणैः। पादसन्धानैश्चरणच्छन्दितकैः। तोमरैरतिस्फोटनैः। अङ्कुशैरवलुञ्चनैः। पादोदरविबन्धैः पादाभ्यामुदरक्रोडीकरणैः। उद्भ्रमणैः परिवर्तनैः।। 5-142-49 गतैर्गमनैः प्रत्यागतैरावर्तनैः। आक्षेपैरास्फालनैः। पातनैर्भूमिप्रापणैः उत्थानैः उत्पतनैः। सम्प्लुतैः विष्फारानुबन्धैः।। 5-142-55 समर नुरूपम्।। 5-142-56 अभ्याहनदास्फालितवान्।। 5-142-142 द्विचत्वारिशदधिकशततमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-141 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-143 |