महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-140
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सात्यकिना अलम्बुसदधः।। 1 ।।
धृतराष्ट्र उवाच। | 5-140-1x |
`दातव्यमद्य मन्येऽहं पाण्डवानां स्वकं पुनः। न विग्रहो हि बलिना श्रेयसे स्याद्यथातथा।। | 5-140-1a 5-140-1b |
पादयोः प्रणतेनापि भुक्त्वाऽप्युच्छिष्टमप्यरेः। अतोऽन्यद्वापि कृत्वैव जीव्यं लोके नरेण वै।। | 5-140-2a 5-140-2b |
जीवतैव परो लोकः साध्यते चैव सर्वथा। अजीवतस्तथैवासीन्न सुखं न परा गतिः।। | 5-140-3a 5-140-3b |
विनाशे सर्वथोत्पन्ने न बालो बुध्यते क्रियाम्। मिथ्याभिमानदग्धो हि न बुद्ध्येत कृताकृते'।। | 5-140-4a 5-140-4b |
अहन्यहनि मे दीप्तं यशः पतति सञ्जय। हता मे बहवो योधा मन्ये कालस्य पर्ययम्।। | 5-140-5a 5-140-5b |
धनञ्जयः सुसङ्क्रद्धः प्रविष्टो मामकं बलम्। रक्षितं द्रौणिकर्णाभ्यामप्रवेश्यं सुरैरपि।। | 5-140-6a 5-140-6b |
ताभ्यामूर्जितवीर्याभ्यामाप्यायितपराक्रमः। सहितः कृष्णभीमाभ्यां शिनीनामृषभेण च।। | 5-140-7a 5-140-7b |
तदाप्रभृति मां शोको दहत्यग्निरिवाशयम्। ग्रस्तानिव प्रपश्यामि भूमिपालान्ससैन्धवान्।। | 5-140-8a 5-140-8b |
अप्रियं सुमहत्कृत्वा सिन्धुराजः किरीटिनः। `क्रुद्धस्य देवराजस्य शक्रस्येव महाद्युतेः'। चक्षुर्विषयमापन्नः कथं जीवितमाप्नुयात्।। | 5-140-9a 5-140-9b 5-140-9c |
अनुमानाच्च पश्यामि नास्ति सञ्जय सैन्धवः। युद्धं तु तद्यथावृत्तं तन्ममाचक्ष्व तत्त्वतः।। | 5-140-10a 5-140-10b |
यच्च विक्षोभ्य महतीं सेनामालोड्य चासकृत्। एकः प्रविष्टः सङ्क्रुद्धो नलिनीमिव कुञ्जरः।। | 5-140-11a 5-140-11b |
तस्य मे वृष्णिवीरस्य ब्रूहि युद्धं यथातथम्। धनञ्जयार्थे यत्तस्य कुशलो ह्यसि सञ्जय ।। | 5-140-12a 5-140-12b |
सञ्जय उवाच। | 5-140-13x |
तथा तु वैकर्त नपीडितं तं भीमं प्रयान्तं पुरुषप्रवीरम्। समीक्ष्य राजन्नरवीरमध्ये शिनिप्रवीरोऽनुययौ रथेन।। | 5-140-13a 5-140-13b 5-140-13c 5-140-13d |
नदन्यथा वज्रधरस्तपान्ते ज्वलन्यथा जलदान्ते च सूर्यः। निघ्नन्नमित्रान्धनुषा दृढेन स कम्पयंस्तव पुत्रस्य सेनाम्।। | 5-140-14a 5-140-14b 5-140-14c 5-140-14d |
तं यान्तमश्वै रजतप्रकाशै-- रायोधने वीरतरं नदन्तम्। नाशक्नुवन्वारयितुं त्वदीयाः सर्वे रथा भारत माधवाग्र्यम्।। | 5-140-15a 5-140-15b 5-140-15c 5-140-15d |
अमर्षपूर्णस्त्वनिवृत्तयोधी शरासनी काञ्चनवर्मधारी। अलम्बुसः सात्यकिं माधवाग्र्य-- मवारयद्राजवरोऽभिपत्य।। | 5-140-16a 5-140-16b 5-140-16c 5-140-16d |
तयोरभूद्भारत सम्प्रहारो यथाविधो नैव बभूव कश्चित्। प्रेक्षन्त एवाहवशोभिनौ तौ योधास्त्वदीयाश्च परे च सर्वे।। | 5-140-17a 5-140-17b 5-140-17c 5-140-17d |
आविध्यदेनं दशभिः पृषत्कै-- रलम्बुसो राजवरः प्रसह्य। अनागतानेव तु तान्पृषत्कां-- श्चिच्छेद बाणैः शिनिपुङ्गवोऽपि।। | 5-140-18a 5-140-18b 5-140-18c 5-140-18d |
पुनः स बाणैस्त्रिभिरग्निकल्पै-- राकर्णपूर्णैर्निशितैः सपुङ्खैः। विव्याध देहावरणं विदार्य ते सात्यकेराविविशुः शरीरम्।। | 5-140-19a 5-140-19b 5-140-19c 5-140-19d |
तैः कायमस्याग्न्यनिलप्रभावै-- र्विदार्य बाणैर्निशितैर्ज्वलद्भिः। आजघ्निवांस्तान्रजतप्रकाशा-- नश्वांश्चतुर्भिश्चतुरः प्रसह्य।। | 5-140-20a 5-140-20b 5-140-20c 5-140-20d |
तथा तु तेनाभिहतस्तरस्वी नप्ता शिनेश्चक्रधरप्रभावः। अलम्बुसस्योत्तमवेगवद्भि-- रश्वांशअचतुर्भिर्निजघान बाणैः।। | 5-140-21a 5-140-21b 5-140-21c 5-140-21d |
अथास्य सूतस्य शिरो निकृत्य भल्लेन कालानलसन्निभेन। सकुण्डलं पूर्मशशिप्रकाशं भ्राजिष्णु वक्त्रं निचकर्त देहात्।। | 5-140-22a 5-140-22b 5-140-22c 5-140-22d |
निहत्य तं पार्थिवपुत्रपौत्रं सङ्ख्ये यदूनामृषभः प्रमाथी। ततोऽन्वयादर्जुनमेव वीरः सैन्यानि राजंस्तव सन्निवार्य।। | 5-140-23a 5-140-23b 5-140-23c 5-140-23d |
अन्वागतं वृष्णिवीरं समीक्ष्य तथारिमध्ये परिवर्तमानम्। घ्नन्तं कुरूणामिषुभिर्बलानि पुनःपुनर्वायुमिवाभ्रपूगान्।। | 5-140-24a 5-140-24b 5-140-24c 5-140-24d |
ततोऽवहन्सैन्धवाः साधुदान्ता गोक्षीरकुन्देन्दुहिमप्रकाशाः। सुवर्णजालावतताः सदश्वा यतोयतः कामयते नृसिंहः।। | 5-140-25a 5-140-25b 5-140-25c 5-140-25d |
अथात्मजास्ते सहिताऽभिपेतु-- रन्ये च योधास्त्वरितास्त्वदीयाः। कृत्वा मुखं भारतयोधमुख्यं दुःशासनं त्वत्सुतमाजमीढ।। | 5-140-26a 5-140-26b 5-140-26c 5-140-26d |
ते सर्वतः सम्परिवार्य सङ्ख्ये शैनेयमाजघ्नुरनीकसाहाः। स चापि तान्प्रवरः सात्वतानां न्यवारयद्बाणजालेन वीरः।। | 5-140-27a 5-140-27b 5-140-27c 5-140-27d |
निवार्य तांस्तूर्णममित्रघाती नप्ता शिनेः पत्रिभिरग्निकल्पैः। दुःशासनस्याभिजघान वाहा-- ञ्जवीयसस्तन्मनसोऽपि बाणैः।। | 5-140-28a 5-140-28b 5-140-28c 5-140-28d |
ततोऽर्जुनो हर्षमवाप सङ्ख्ये कृष्णश्च दृष्ट्वा पुरुषप्रवीरम्।। | 5-140-29a 5-140-29b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 140 ।। |
5-140-17 प्रेक्षन्तः प्रेक्षकाः। बभूवेत्येतत् बहुवचनतया परिणतमनुषज्यते।। 5-140-18 प्रसह्य अनादृत्य।। 5-140-140 चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।।
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