महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-152
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द्रोणेन सोपालम्भं दुर्योधनाश्वासनपूर्वकं रणाय निर्याणम्।। 1 ।।
धृतराष्ट्र उवाच। | 5-152-1x |
सिन्धुराजे हते तात समरे सव्यसाचिना। तथैव भूरिश्रवसि किमासीद्वो मनस्तदा।। | 5-152-1a 5-152-1b |
दुर्योधनेन च द्रोणस्तथोक्तः कुरसंसदि। किमुक्तवान्परं तस्मात्तन्ममाचक्ष्व सञ्जय।। | 5-152-2a 5-152-2b |
सञ्जय उवाच। | 5-152-3x |
निष्टानको महानासीत्सैन्यानां तव भारत। सैन्धवं निहतं दृष्ट्वा भूरिश्रवसमेव च।। | 5-152-3a 5-152-3b |
मन्त्रितं तव पुत्रस्य ते सर्वमवमेनिरे। येन मन्त्रैण निहताः शतशः क्षत्रियर्षभाः।। | 5-152-4a 5-152-4b |
द्रोणस्तु तद्वचः श्रुत्वा पुत्रस्य तव दुर्मनाः। मुहूर्तमिव च ध्यात्वा भृशमार्तोऽभ्यभाषत।। | 5-152-5a 5-152-5b |
द्रोण उवाच। | 5-152-6x |
दुर्योधन किमेवं मां वाक्शरैरुपकृन्तसि। अजय्यं सततं सङ्ख्ये ब्रुवाणं सव्यसाचिनम्।। | 5-152-6a 5-152-6b |
एतेनवार्जुनं ज्ञातुमलं कौरव संयुगे। यच्छिखण्ड्यवधीद्भीष्मं पाल्यमानः किरीटिना।। | 5-152-7a 5-152-7b |
अवध्यं निहतं दृष्ट्वा संयुगे देवदानवैः। तदैवाज्ञासिषमहं नेयमस्तीति भारती।। | 5-152-8a 5-152-8b |
यं पुंसां त्रिषु लोकेषु सर्वशूरममंस्म हि। तस्मिन्निपतिते भीष्मे कं शेषं पर्युपास्महे।। | 5-152-9a 5-152-9b |
यान्स्म तान्ग्लहते तात शकुनिः कुरुसंसदि। अक्षान्न तेऽक्षा निशिता बाणास्ते शत्रुतापनाः। | 5-152-10a 5-152-10b |
`अक्षांस्तु मन्यसे बाणाञ्छोभमानाञ्छिताञ्शरान्' त एते घ्नन्ति नस्तात विशिखाः पार्थचोदिताः। तांस्तदाऽऽख्यायमानस्त्वं विदुरेण न बुद्धवान्।। | 5-152-11a 5-152-11b 5-152-11c |
यास्ता विलपतश्चापि विदुरस्य महात्मनः। धीरस्य वाचो नाश्रौषीः क्षेमाय वदतः शिवाः।। | 5-152-12a 5-152-12b |
तदिदं वर्तते घोरमागतं वैशसं महत्। तस्यावमानाद्वाक्यस्य दुःशासनकृतेन च।। | 5-152-13a 5-152-13b |
योऽवमन्य वचः पथ्यं सुहृदामाप्तकारिणाम्। स्वमतं कुरुते मूढः स शोच्यो नचिरादिव।। | 5-152-14a 5-152-14b |
यच्च नः प्रेक्षमाणानां कृष्णामानाय्य तत्सभाम्। अनर्हन्तीं कुले जातां सर्वधर्मानुचारिणीम्।। | 5-152-15a 5-152-15b |
तस्याधर्मस्य गान्धारे फलं प्राप्तमिदं महत्। नोचेत्पापं परे लोके त्वमृच्छेथास्ततोऽधिकम्।। | 5-152-16a 5-152-16b |
यच्च तान्पाण्डवान्द्यूते विषमेण विजित्य ह। प्राव्राजयस्तदाऽरण्ये रौरवाजिनवाससः।। | 5-152-17a 5-152-17b |
पुत्राणामिव चैतेषां धर्ममाचरतां सदा। द्रुह्येत्को नु नरो लोके मदन्यो ब्राह्मणब्रुवः।। | 5-152-18a 5-152-18b |
पाण्डवानामयं कोपस्त्वया शकुनिना सह। आहृतो धृतराष्ट्रस्य सम्मते कुरु संसदि।। | 5-152-19a 5-152-19b |
दुःशासनेन संयुक्तः कर्णेन परिवर्धितः। क्षत्तुर्वाक्यमनादृत्य त्वयाऽब्यस्तः पुनः पुनः।। | 5-152-20a 5-152-20b |
`स हि नः क्रोधवृक्षश्च कृतमूलो महात्मनाम्। तस्य पुष्पफले राजन्नुपभुङ्क्ष्व महाबल'।। | 5-152-21a 5-152-21b |
यत्ताः सर्वे पराभूताः पर्यवारयतार्जुनम्। सिन्धुराजानमाश्रित्य स वो मध्ये कथं हतः।। | 5-152-22a 5-152-22b |
कथं त्वयि च कर्णे च कृपे शल्ये च जीवति। अश्वत्थाम्नि च कौरव्य निधनं सैन्धवोऽगमत्।। | 5-152-23a 5-152-23b |
युध्यन्तः सर्वराजानस्तेजस्विन उपासते। सिन्धुराजं परित्रातुं वो मध्ये कथं हतः।। | 5-152-24a 5-152-24b |
मय्येव हि विशेषेण तथा दुर्योधन त्वयि। आशंसत परित्राणमर्जुनात्स महीपतिः।। | 5-152-25a 5-152-25b |
ततस्तस्मिन्परित्राणमलब्धवति फल्गुनात्। न किञ्चिदनुपश्यामि जीवितस्थानमात्मनः।। | 5-152-26a 5-152-26b |
मज्जन्तमिव चात्मानं धृष्टद्युम्नस्य संयुगे। पश्याम्यहत्वा पाञ्चालान्सह तेन शिखण्डिना।। | 5-152-27a 5-152-27b |
तन्मां किमभितप्यन्तं वाक्शरैरेव कृन्तसि। अशक्तः सिन्धुराजस्य भूत्वा त्राणाय भारत।। | 5-152-28a 5-152-28b |
सौवर्णं सत्यसन्धस्य ध्वजमक्लिष्टकर्मणः। अपश्यन्युधि भीष्मस्य कथमाशंससे जयम्।। | 5-152-29a 5-152-29b |
मध्ये महारथानां किं शेषं तत्र मन्यसे। हतो भूरिश्रवाश्चैव किं शेषं तत्र मन्यसे।। | 5-152-30a 5-152-30b |
कृप एव च दुर्धर्षो यदि जीवति पार्थिव। यो नागात्सिन्धुराजस्य वर्त्म तं पूजयाम्यहम्।। | 5-152-31a 5-152-31b |
यत्रापश्यं हतं भीष्मं पश्यतस्तेऽनुजस्य वै। दुःशासनस्य कौरव्य कुर्वाणं कर्म दुष्करम्।। | 5-152-32a 5-152-32b |
अवध्यकल्पं सङ्ग्रामे देवैरपि सवासवैः। न ते वसुन्धराऽस्तीति तदाहं चिन्तये नृप।। | 5-152-33a 5-152-33b |
इमानि पाण्डवानां च सृज्जयानां च भारत। अनीकान्याद्रवन्ते मां सहितान्यद्य भारत।। | 5-152-34a 5-152-34b |
नाहत्वा सर्वपाञ्चलान्कवचस्य विमोक्षणम्। कर्ताऽस्मि समरे कर्म धार्तराष्ट्र हितं तव।। | 5-152-35a 5-152-35b |
राजन्ब्रूयाः सुतं मे त्वमश्वत्थामानमाहवे। न सोमकाः प्रमोक्तव्या जीवितं परिरक्षता।। | 5-152-36a 5-152-36b |
यच्च पित्राऽनुशिष्टोऽसि तद्वचः परिपालय। आनृशंस्ये दमे सत्ये चार्जवे च स्थिरो भव।। | 5-152-37a 5-152-37b |
धर्मार्थकामकुशलो धर्मार्थावप्यपीडयन्। धर्मप्रधानकार्याणि कुर्याश्चेति पुनः पुनः।। | 5-152-38a 5-152-38b |
चक्षुर्मनोभ्यां सन्तोष्या विप्राः पूज्याश्च शक्तितः। न चैषां विप्रियं कार्यं ते हि वह्निशिखोपमाः।। | 5-152-39a 5-152-39b |
एष त्वहमनीकानि प्रविशाम्यरिसूदन। रणाय महते राजंस्त्वया वाक्शरपीडितः।। | 5-152-40a 5-152-40b |
त्वं च दुर्योधन बलं यदि शक्तोऽसि पालय। रात्रावपि च योद्धव्याः संरब्धाः कुरुसृञ्जयाः।। | 5-152-41a 5-152-41b |
एवमुक्त्वा ततः प्रायाद्द्रोणः पाण्वसृञ्जयान्। मुष्णन्क्षत्रियतेजांसि नक्षत्राणामिवांशुमान्।। | 5-152-42a 5-152-42b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे द्विपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।। 152 ।। |
5-152-3 निष्टानकः सव्यथः शब्दः।। 5-152-8 इयं सेना नास्तीत्यस्य नष्टेत्यर्थः।। 5-152-10 ग्लहते पातयति।। 5-152-16 नोचेदिति। परेलोकेऽधिकः पापिनां क्लेश इहत्वल्पेनैव भोगेन निस्तार इति भावः।। नेह चेत्परलोके यत्पापमिच्छेत्ततोऽधिकम् इति क. पाठः। न भवेत्परलोके यत्तप्तमिच्छेत्ततोऽधिकम्। इति ख. पाठः। नोचेत्पापं परं लोके त्वं मन्येथास्ततोऽधिकम् इति ङ.पाठः। नेह वै परलोकाय पापमिच्छेत पार्थिवः इति ट.ङ.पाठः।। 5-152-20 अभ्यस्त आवर्तितः।। 5-152-22 यस्तु शर्वाद्वरं लब्ध्वा पर्यवारयदर्जुनम्। सिन्धुराजः समाश्रित्य स वो मध्ये कथं हतः इति क.ख.पाठः। यत्ताः सर्वे पुरा भूत्वा अर्जुनं पर्यवारयन्। सिन्धुराजाः समाश्रित्य स वो मध्ये कथं हतः इति ट.पाठः। यत्तत्सर्वे परं भूत्वा पर्यवारयतार्जुनम्। सिन्धुराजानमाश्रित्य स वो मध्ये कथं हतः इति ङ. पाठः। यत्तत्सर्वे पराभूय पर्यवारयतार्जुनिम्। सिन्धुराजानमाश्रित्य स वो मध्ये कथं हतः इति ङ. पाठः।। 5-152-27 पश्याम्यहं वै पाञ्चालान्सह तेन शिखण्डिना इति क.ट.ङ.पाठः। धृष्टद्युम्नस्य किल्पिषे इति झ.पाठः।। 5-152-152 द्विपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।।
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