महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-068
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नारदेन सृञ्जयम्प्रति भरतचरितकथनम्।। 1 ।।
नारद उवाच। | 5-68-1x |
दौष्यन्ति भरतं चापि मृतं सृञ्जय शुश्रुम। कर्माण्यसुकराण्यन्यैः कृतवान्यः शिशुर्वने।। | 5-68-1a 5-68-1b |
हिमावदातान्यः सिंहान्नखदंष्ट्रायुधान्बली। निर्वीर्यांस्तरसा कृत्वा विचकर्ष बबन्ध च।। | 5-68-2a 5-68-2b |
क्रूरांश्चोग्रतरान्व्याघ्रान्दमित्वा चाकरोद्वशे। मनःशिला इव शिलाः संयुक्ता जतुराशिभिः।। | 5-68-3a 5-68-3b |
त्रायलादींश्चातिबलवान्सुप्रतीकान्गजानपि। दंष्ट्रासु गृह्य विमुखाञ्शुष्कास्यानकरोद्वशे।। | 5-68-4a 5-68-4b |
महिषानप्यतिबलो बलिनो विचकर्ष ह। सिंहानां च सुदृप्तानां शतान्याकर्षयद्बलात्।। | 5-68-5a 5-68-5b |
बलिनः सृमरान्खङ्गान्नानासत्त्वानि चाप्युत। कृच्छ्रप्राणान्वने बद्ध्वा दमयित्वाप्यवासृजत्।। | 5-68-6a 5-68-6b |
तं सर्वदमनेत्याहुर्द्विजास्तेनास्य कर्मणा। तं प्रत्यषेधज्जननी मा सत्वानि व्यनीनशः।। | 5-68-7a 5-68-7b |
सोऽश्वमेधशतेनेजे यमुनामनु वीर्यवान्। त्रिशतैश्च सरस्वत्यां गङ्गामनु चतुःशतैः।। | 5-68-8a 5-68-8b |
सौऽश्वमेधसहस्रेण राजसूयशतेन च। पुनरीजे महायज्ञैः समाप्तवरदक्षिणैः।। | 5-68-9a 5-68-9b |
अग्निष्टोमातिरात्राणामुक्थ्यविश्वजितां च सः। वाजपेयसहस्रामां सहस्रैश्च सुसंवृतैः।। | 5-68-10a 5-68-10b |
इष्ट्वा शाकुन्तलो राजा तर्पयित्वा द्विजान्धनैः। सहस्रं यत्र पद्मानां कण्वाय भरतो ददौ। जाम्बूनदस्य शुद्धस्य कनकस्य महायशाः।। | 5-68-11a 5-68-11b 5-68-11c |
यस्य यूपाः सतव्यामाः परिणाहेन काञ्चनाः। समागम्य द्विजैः सार्धे सेन्द्रैर्देवैः समुच्छ्रिताः।। | 5-68-12a 5-68-12b |
अलङ्कृतान्राजमानान्सर्वरत्नैर्मनोहरैः। हैरण्यान्द्विरदानश्वान्रथानुष्ट्रानजाविकान्।। | 5-68-13a 5-68-13b |
दासी दासं धनं धान्यं गाः सवत्साः पयस्विनीः। ग्रामान्गृहांश्च क्षेत्राणि विविधांश्च परिच्छदान्।। | 5-68-14a 5-68-14b |
कोटीशतायुतांश्चैव ब्राह्मणेभ्यो ह्यमन्यत। चक्रवर्ती ह्यदीनात्मा जितारिर्ह्यजितः परैः।। | 5-68-15a 5-68-15b |
स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया। पुत्रात्पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः। अयज्वानमदक्षिण्यमभि श्वैत्येत्युदाहरत्।। | 5-68-16a 5-68-16b 5-68-16c |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि षोडशराजकीये अष्टषष्टितमोऽध्यायः।। 68 ।। |
5-68-1 शुचिर्वने इति क.ङ.पाठः।। 5-68-3 क्रुरानिति। यथा मनःशिलामयाः शिलाः जतुराशिभिर्लाभापुज्जैर्युक्तास्तत्सदृशान् रक्तबिन्दुयुक्तान् रक्तपीतवर्णान् व्याघ्रविशेषान् वशेऽकरोदित्यर्थः। शिलाः प्रभुत्वाज्जनकाशिनः इति क. पाठः।। 5-68-12 व्यामो हस्तचतुष्टयम्। परिणाहेन दैर्घ्येण ।। 5-68-68 अष्टषष्टितमोऽध्यायः।।
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