महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-098
दिखावट
← द्रोणपर्व-097 | महाभारतम् सप्तमपर्व महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-098 वेदव्यासः |
द्रोणपर्व-099 → |
|
द्रोणसात्यक्योर्युद्धम्।। 1 ।।
धृतराष्ट्र उवाच। | 5-98-1x |
बाणे तस्मिन्निकृत्ते तु धृष्टद्युम्ने च मोक्षिते। तेन वृष्णिप्रवीरेण युयुधानेन सञ्जय।। | 5-98-1a 5-98-1b |
अमर्षितो महेष्वासः सर्वशस्त्रभृतां वरः। नरव्याघ्रं शिनेः पौत्रं द्रोणः किमकरोद्युधि।। | 5-98-2a 5-98-2b |
सञ्जय उवाच। | 5-98-3x |
सम्प्रस्रुतक्रोधविषो व्यादितास्यशरासनः। तीक्ष्णधारेषुदशनः सितनाराचदंष्ट्रवान्।। | 5-98-3a 5-98-3b |
संरम्भामर्षताम्राक्षो महोरग इव श्वसन्। नरवीरः प्रमुदितः शोणैरश्वैर्महाजवैः।। | 5-98-4a 5-98-4b |
उत्पतद्भिरिवाकाशे क्रामद्भिरिव पर्वतम्। रुक्मपुङ्खाञ्शरानस्यन्युयुधानमुपाद्रवत्।। | 5-98-5a 5-98-5b |
शरपातमहावर्षं रथघोषबलाहकम्। कार्मुकैरावृतं राजन्नाराचबहुविद्युतम्।। | 5-98-6a 5-98-6b |
शक्तिखङ्गाशनिधरं क्रोधवेगसमुत्थितम्। द्रोणमेघमनावार्यं हयमारुतचोदितम्।। | 5-98-7a 5-98-7b |
दृष्ट्वैवाभिपतन्तं तं शूरः परपुरञ्जयः। उवाच सूतं शैनेयः प्रहसन्युद्धदुर्मदः।। | 5-98-8a 5-98-8b |
एनं वै ब्राह्मणं शूरं स्वकर्मण्यनवस्थितम्। आश्रयं धार्तराष्ट्रस्य धर्मराजभयावहम्।। | 5-98-9a 5-98-9b |
शीघ्रं प्रजवितैरश्वैः प्रत्युद्याहि प्रहृष्टवत्। आचार्यं राजपुत्राणां सततं शूरमानिनम्।। | 5-98-10a 5-98-10b |
सञ्जय उवाच। | 5-98-11x |
`एवमुक्तस्ततः सूतः सात्यकस्यावहद्रथम्'। ततो रजतसङ्काशा माधवस्य हयोत्तमाः। द्रोणस्याभिमुखाः शीघ्रमगच्छन्वातरंहसः।। | 5-98-11a 5-98-11b 5-98-11c |
ततस्तौ द्रोणशैनेयौ युयुधाते परन्तपौ। शरैरनेकसाहस्रैस्ताडयन्तौ परस्परम्।। | 5-98-12a 5-98-12b |
इषुजालावृतं व्योम चक्रतुः पुरुषर्षभौ। पूरयामासतुर्वीरावुभौ दश दिशः शरैः। मेघाविवातपापाये धाराभिरितरेतरम्।। | 5-98-13a 5-98-13b 5-98-13c |
न स्म सूर्यस्तदा भाति न ववौ च समीरणः। हषुजालावृतं घोरमन्धकारं समन्ततः।। | 5-98-14a 5-98-14b |
अनाधृष्यमिवान्येषां शूराणामभवत्तदा। अन्धकारीकृते लोके द्रोणशैनेययोः शरैः।। | 5-98-15a 5-98-15b |
तयोः शीघ्रास्त्रविदुषोर्द्रोणसात्वतयोस्तदा। नान्तरं शरवृष्टीनां ददृशे नरसिंहयोः।। | 5-98-16a 5-98-16b |
इषूणां सन्निपातेन शब्दो धाराभिघातजः। शुश्रुवे शक्रमुक्तानामशनीनामिव स्वनः।। | 5-98-17a 5-98-17b |
नाराचैर्व्यतिविद्धानां शराणां रूपमाबभौ। आशीविषविदष्टानां सर्पाणामिव भारत।। | 5-98-18a 5-98-18b |
तयोर्ज्यातलनिर्घोषः शुश्रुवे युद्धशौण्डयोः। अजस्रं शैलशृङ्गाणां वज्रेणाहन्यतामिव।। | 5-98-19a 5-98-19b |
उभयोस्तौ रथौ राजंस्ते चाश्वास्तौ च सारथी। रुक्मपुङ्खैः शरैछन्नाश्चित्ररूपा बभुस्तदा।। | 5-98-20a 5-98-20b |
निर्मलानामजिह्मानां नाराचानां विशाम्पते। निर्मुक्ताशीविपाभानां सम्पातोऽभूत्सुदारुणः।। | 5-98-21a 5-98-21b |
उभयोः पतिते छत्रे तथैव पतितौ ध्वजौ। `निकृन्ततोः शरैस्तीक्ष्णैर्द्रोणसात्यकयो रणे'।। | 5-98-22a 5-98-22b |
उभौ रुधिरसिक्ताङ्गावुभौ च विजयैषिणौ। स्रवद्भिः शोणितं गात्रैः प्रस्रुताविव वारणौ। अन्योन्यमभ्यविध्येतां जीवितान्तकरैः शरैः।। | 5-98-23a 5-98-23b 5-98-23c |
गर्जितोत्कृष्टसन्नादाः शङ्खदुन्दुभिनिःस्वनाः। उपारमन्महाराज व्याजहार न कश्चन।। | 5-98-24a 5-98-24b |
तुष्णींभूतान्यनौकानि योधा युद्धादुपारमन्। ददर्श द्वैरथं ताभ्यां जातकौतूहलो जनः।। | 5-98-25a 5-98-25b |
रथिनो हस्तियन्तारो हयारोहाः पदातयः। अवैक्षन्ताचलैर्नेत्रैः परिवार्य नरर्षभौ।। | 5-98-26a 5-98-26b |
हस्त्यनीकान्यतिष्ठन्त तथानीकानि वाजिनाम्। तथैव रथवाहिन्यः प्रतिव्यूह्य व्यवस्थिताः।। | 5-98-27a 5-98-27b |
मुक्ताविद्रुमचित्रैश्च मणिकाञ्चनभूषितैः। ध्वजैराभरणैश्चित्रैः कवचैश्च हिरण्मयैः।। | 5-98-28a 5-98-28b |
वैजयन्तीपताकाभिः परिस्तोमाङ्गकम्बलैः। विमलैर्निशितैः शस्त्रैर्हयानां च प्रकीर्णकैः।। | 5-98-29a 5-98-29b |
जातरूपमयीभिश्च राजतीभिश्च मूर्धसु। गजानां कुम्भमालाभिर्दन्तवेष्टैश्च भारत।। | 5-98-30a 5-98-30b |
सबलाकाः सखद्योताः सैरावतशतहदाः। अदृश्यन्तोष्णपर्याये मेघानामिव वागुराः।। | 5-98-31a 5-98-31b |
अपश्यन्नस्मदीयाश्च ते च यौधिष्ठिराः स्थिताः। तद्युद्धं युयुधानस्य द्रोणस्य च महात्मनः।। | 5-98-32a 5-98-32b |
विमानाग्रगता देवा ब्रह्मसोमपुरोगमाः। सिद्धचारणसङ्खाश्च विद्याधरमहोरगाः।। | 5-98-33a 5-98-33b |
`गन्धर्वा दानवा यक्षा राक्षसाप्सरसः खगाः'। गतप्रत्यागताक्षेपैश्चितैरस्त्रविघातिभिः। विविधैर्विस्मयं जग्मुस्तयोः पुरुषसिंहयोः।। | 5-98-34a 5-98-34b 5-98-34c |
हस्तलाघवमस्त्रेषु दर्शयन्तौ महाबलौ। अन्योन्यमभिविध्येतां शरैस्तौ द्रोणसात्यकी।। | 5-98-35a 5-98-35b |
ततो द्रोणस्य दाशार्हः शरांश्चिच्छेद संयुगे। पत्रिभिः सुदृढैराशु धनुश्चैव महाद्युतेः।। | 5-98-36a 5-98-36b |
निमेषान्तरमात्रेण भारद्वाजोऽपरं धनुः। सज्यं चकार तदपि चिच्छेदास्य स सात्यकिः।। | 5-98-37a 5-98-37b |
ततस्त्वरन्पुनर्द्रोणो धनुर्हस्तो व्यतिष्ठत। सज्यं सज्यं धनुश्चास्य चिच्छेद निशिथैः शरैः।। | 5-98-38a 5-98-38b |
एवमेकशतं छिन्नं धनुषां दृढधन्विना। न चान्तरं तयोर्दृष्टं सन्धाने च्छेदनेऽपि च।। | 5-98-39a 5-98-39b |
ततोऽस्य संयुगे द्रोणो दृष्ट्वा कर्मातिमानुषम्। युयुधानस्य राजेन्द्र मनसैतदचिन्तयत्।। | 5-98-40a 5-98-40b |
एतदस्त्रबलं रामे कार्तवीर्ये धनञ्जये। भीष्मे च पुरुषव्याघ्रे यदिदं सात्वतां वरे।। | 5-98-41a 5-98-41b |
तं चास्य मनसा द्रोणः पूजयामास विक्रमम्। लाघवं वासवस्येव सम्प्रेक्ष्य द्विजसत्तमः।। | 5-98-42a 5-98-42b |
तुतोषास्त्रविदां श्रेष्ठस्तथा देवाः सवासवाः। न तामालक्षयामासुर्लघुतां शीघ्रचारिणः।। | 5-98-43a 5-98-43b |
देवाश्च युयुधानस्य गन्धर्वाश्च विशाम्पते। सिद्धचारणसङ्घाश्च विदुर्द्रोणस्य कर्म तत्।। | 5-98-44a 5-98-44b |
ततोऽन्यद्धनुरादाय द्रोणः क्षत्रियमर्दनः। अस्त्रैरस्त्रविदां श्रेष्ठो योधयामास भारत।। | 5-98-45a 5-98-45b |
तस्यास्त्राण्यस्त्रमायाभिः प्रतिहत्य स सात्यकिः। जघान निशितैर्बाणैस्तदद्भुतमिवाभवत्।। | 5-98-46a 5-98-46b |
तस्यातिमानुषं कर्म दृष्ट्वाऽन्यैरसमं रणे। युक्तं योगेन योगज्ञास्तावकाः समपूजयन्।। | 5-98-47a 5-98-47b |
यदस्त्रमस्यति द्रोणस्तदेवास्यति सात्यकिः। तमाचार्योऽथ सम्भ्रान्तोऽयोधयच्छत्रुतापनः।। | 5-98-48a 5-98-48b |
ततः क्रुद्धो महाराज धनुर्वेदस्य पारगः। वधाय युयुधानस्य दिव्यमस्त्रमुदैरयत्।। | 5-98-49a 5-98-49b |
तदाग्नेयं महाघोरं रिपुघ्नमुपलक्ष्य सः। दिव्यमस्त्रं महेष्वासो वारुणं समुदैरयत्।। | 5-98-50a 5-98-50b |
हाहाकारो महानासीद्दृष्ट्वा दिव्यास्त्रधारिणौ। न विचेरुस्तदाऽऽकाशे भूतान्याकाशगान्यपि।। | 5-98-51a 5-98-51b |
अस्त्रे ते वारुणाग्नेये यदा बाणैः समाहिते। न यावदभ्यपद्येतां व्यावर्तदथ भास्करः।। | 5-98-52a 5-98-52b |
ततो युधिष्ठिरो राजा भीमसेनश्च पाण्डवः। नकुलः सहदेवश्च पर्यरक्षन्त सात्यकिम्।। | 5-98-53a 5-98-53b |
धृष्टद्युम्नमुखैः सार्धं विराटश्च सकेकयः। मत्स्याः साल्वेयसेनाश्च द्रोणमाजग्मुरञ्जसा।। | 5-98-54a 5-98-54b |
दुःशासनं पुरस्कृत्य राजपुत्राः सहस्रशः। द्रोणमभ्युपपद्यन्त सपत्नैः परिवारितम्।। | 5-98-55a 5-98-55b |
रजसा संवृते लोके शरजालसमावृते।। सर्वमाविग्नमभवन्न प्राज्ञायत किञ्चन। | 5-98-56a 5-98-56b |
सैन्येन रजसा ध्वस्ते निर्मर्यादमवर्तत।। `तेनान्तरेण पार्थस्तु रणे जित्वा महारिपून्। | 5-98-57a 5-98-57b |
अतिक्रान्तस्तदा युद्धं कृत्वा पर्यवतस्थिवान्'।। | 5-98-58a 5-98-58b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे अष्टनवतितमोऽध्यायः।। 98 ।। |
<F.N> 5-98-16 अन्तरमवच्छेदः।। 5-98-27 रथवाहिन्यो रथसेनाः।। 5-98-29 वैजयन्ती विलक्षणाभिः पताकाभिः। परिस्तोमैर्वर्णकम्बलैः। अङ्गकम्बलैः सूक्ष्मकम्बलैः।। 5-98-31 ऐरावतमिन्द्रधनुः। ऐरावतोभ्रमातङ्गै इत्युपक्रम्य नपुंसकं महेन्द्रस्य ऋजुदीर्घशरासने इति मेदिनी।। उष्णस्य पर्याये अपगमे वागुराः जालानि समूहा इतियावत्।। 5-98-34 प्रत्यागतं निवर्तनम्। आक्षेपः प्रहरणम्।। 5-98-43 आलक्षयामासुर्लक्षितवन्तः।। 5-98-44 विदुर्नेत्यनुषज्यते।। 5-98-47 योगेन युक्त्या।। 5-98-52 न यावदभ्यपद्येतां यावदेव न पराभूते। व्यावर्तत् मध्याह्नतः परावृत्तोऽभूत्।। 5-98-98 अष्टनवतितमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-097 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-099 |