महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-163
दिखावट
← द्रोणपर्व-162 | महाभारतम् सप्तमपर्व महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-163 वेदव्यासः |
द्रोणपर्व-164 → |
|
सात्यकिना सोमदत्तवधः।। 1 ।। द्रोणयुधिष्ठिरयुद्धम्।। 2 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-163-1x |
सोमदत्तं तु सम्प्रेक्ष्य विधुन्वानं महद्धनुः। सात्यकिः प्राह यन्तारं सोमदत्ताय मां वह।। | 5-163-1a 5-163-1b |
न ह्यहत्वा रणे शत्रुं सोमदत्तं महाबलम्। निवर्तिष्ये रणात्सूत सत्यमेतद्वचो मम।। | 5-163-2a 5-163-2b |
ततः सम्प्रैषयद्यन्ता सैन्धवांस्तान्मनोजवान्। तुरङ्गामाञ्छङ्खवर्णान्सर्वशब्दातिगान्रणे।। | 5-163-3a 5-163-3b |
तेऽवहन्युयुधानं तु मनोमारुतरंहसः। यथेन्द्रं हरयो राजन्पुरा दैत्यवधोद्यतम्।। | 5-163-4a 5-163-4b |
तमापतन्तं सम्प्रेक्ष्य सात्वतं रभसं रणे। सोमदत्तो महाबाहुरसम्भ्रान्तो न्यवर्तत।। | 5-163-5a 5-163-5b |
विमुञ्चञ्छरवर्षाणि पर्जन्य इव वृष्टिमान्। छादयामास शैनेयं जलदो भास्करं यथा।। | 5-163-6a 5-163-6b |
असम्भ्रान्तश्च समरे सात्यकिः कुरुपुङ्गवम्। छादयामास बाणौघैः समन्ताद्भरतर्षभ।। | 5-163-7a 5-163-7b |
सोमदत्तस्तुतं षष्ट्या विव्याधोरसि माधवम्। सात्यकिश्चापि तं राजन्नविध्यत्सायकैः शितैः।। | 5-163-8a 5-163-8b |
तावन्योन्यं शरैः कृत्तौ व्यराजेतां नरर्षभौ। सुपुष्पौ पुष्पसमये पुष्पिताविव किंशकौ।। | 5-163-9a 5-163-9b |
रुधिरोक्षितसर्वाङ्गौ कुरुवृष्णियशस्करौ। परस्परमवेक्षेतां दहन्ताविव लोचनैः।। | 5-163-10a 5-163-10b |
रथमण्डलमार्गेषु चरन्तावरिमर्दनौ। घोररूपौ हितावास्तां वृष्टिमन्ताविवाम्बुदौ।। | 5-163-11a 5-163-11b |
शरसम्भिन्नगात्रौ तु सर्वतः शखलीकृतौ। श्वाविधाविव राजेन्द्र दृश्येतां शरविक्षतौ।। | 5-163-12a 5-163-12b |
सुवर्णपुङ्खैरिषुभिराचितौ तौ व्यराजताम्। खद्योतैरावृतौ राजन्प्रावृषीव वनस्पती।। | 5-163-13a 5-163-13b |
सम्प्रदीपितसर्वाङ्गौ सायकैस्तैर्महारथौ। अदृश्येतां रणे क्रुद्धावुल्काभिरिव कुञ्जरौ।। | 5-163-14a 5-163-14b |
ततो युधि महारज सोमदत्तो महारथः। अर्धचन्द्रेम चिच्छेद माधवस्य महद्धनुः।। | 5-163-15a 5-163-15b |
अथैनं पञ्चविंशत्या सायकानां समार्पयत्। त्वरमाणस्त्वराकाले पुनश्च दशभिः शरैः।। | 5-163-16a 5-163-16b |
अथान्यद्धनुरादाय सात्यकिर्वेगवत्तरम्। पञ्चभिः सायकैस्तूर्णं सोमदत्तमविध्यत।। | 5-163-17a 5-163-17b |
ततोऽपरेण भल्लेन ध्वजं चिच्छेद काञ्चनम्। बाह्लीकस्य रणे राजन्सात्यकिः प्रहसन्निव।। | 5-163-18a 5-163-18b |
सोमदत्तस्त्वसम्भ्रान्तो दृष्ट्वा केतुं निपातितम्। शैनेयं पञ्चविंशत्या सायकानां समाचिनोत्।। | 5-163-19a 5-163-19b |
सात्वतोऽपि रणे क्रुद्धः सोमदत्तस्य धन्विनः। धनुश्छिच्छेद भल्लेन क्षुरप्रेण शितेन ह।। | 5-163-20a 5-163-20b |
अथैनं रुक्मपुङ्खानां शतेन नतपर्वणाम्। आचिनोद्बहुधा राजन्भग्नदंष्ट्रमिव द्विपम्।। | 5-163-21a 5-163-21b |
अथान्यद्धनुरादाय सोमदत्तो महारथः। सात्यकिं छादयामास शरवृष्ट्या महाबलः।। | 5-163-22a 5-163-22b |
सोमदत्तं तु सङ्क्रुद्धो रणे विव्याध सात्यकिः। सात्यकिं शरजालेन सोमदत्तोऽप्यपीडयत्।। | 5-163-23a 5-163-23b |
दशभिः सात्वतस्यार्थे भीमोऽहन्बाह्लिकात्मजम्। सोमदत्तोप्यसम्भ्रान्तो भीममार्च्छच्छितैः शरैः।। | 5-163-24a 5-163-24b |
ततस्तु सात्वतस्यार्थे भीमसेनो नवं दृढम्। मुमोच परिघं घोरं सोमदत्तस्य वक्षसि।। | 5-163-25a 5-163-25b |
तमापतन्तं वेगेन परिघं घोरदर्शनम्। द्विधा चिच्छेद समरे प्रहसन्निव कौरवः।। | 5-163-26a 5-163-26b |
स पपात द्विधा च्छिन्न आयसः परिघो महान्। महीधरस्येव महच्छिखरं वज्रदारितम्।। | 5-163-27a 5-163-27b |
ततस्तु सात्यकी राजन्सोमदत्तस्य संयुगे। धनुश्चिच्छेद भल्लेन हस्तावापं च पञ्चभिः।। | 5-163-28a 5-163-28b |
ततश्चतुर्भिश्च शरैस्तूर्णं तांस्तुरगोत्तमान्। समीपं प्रेषयामास प्रेतराजस्य भारत।। | 5-163-29a 5-163-29b |
सारथेश्च शिरः कायाद्भल्लेन नतपर्वणा। जहार नरशार्दूलः प्रहसञ्छिनिपुङ्गवः।। | 5-163-30a 5-163-30b |
ततः शरं महाघोरं ज्वलन्तमिव पावकम्। मुमोच सात्वतो राजन्स्वर्णपुङ्गं शिलाशितम्।। | 5-163-31a 5-163-31b |
स विमुक्तो बलवता शैनेयेन शरोत्तमः। घोरस्तस्योरसि विभो निपपाताशु भारत।। | 5-163-32a 5-163-32b |
सोऽतिविद्धो महाराज सात्वतेन महारथः। सोमदत्तो महाबाहुर्निपपात ममार च।। | 5-163-33a 5-163-33b |
तं दृष्ट्वा निहतं तत्र सोमदत्तं महारथाः। महता शरवर्षेण युयुधानमुपाद्रवन्।। | 5-163-34a 5-163-34b |
छाद्यमानं शरैर्दृष्ट्वा युयुधानं युधिष्ठिरः। पाण्डवाश्च महाराज सह सर्वैः प्रभद्रकैः। महत्या सेनया सार्धं द्रोणानीकमुपाद्रवन्।। | 5-163-35a 5-163-35b 5-163-35c |
ततो युधिष्ठिरः क्रुद्धस्तावकानां महाबलम्। शरैर्विद्रावयामास भारद्वाजस्य पश्यतः।। | 5-163-36a 5-163-36b |
सैन्यानि द्रावयन्तं तु द्रोणो दृष्ट्वा युधिष्ठिरम्। अभिदुद्राव वेगेन क्रोधसंरक्तलोचनः।। | 5-163-37a 5-163-37b |
ततः सुनिशितैर्बाणैः पार्थं विव्याध सप्तभिः। युधिष्ठिरोऽपि सङ्क्रुद्धः प्रतिविव्याध पञ्चभिः।। | 5-163-38a 5-163-38b |
सोऽतिविद्धो महाबाहुः सृक्विणी परिसंलिहन्। युधिष्ठिरस्य चिच्छेद ध्वजं कार्मुकमेव च।। | 5-163-39a 5-163-39b |
स च्छिन्नधन्वा त्वरितस्त्वराकाले नृपोत्तमः। अन्यदादत्त वेगेन कार्मुकं समरे दृढम्।। | 5-163-40a 5-163-40b |
ततः शरसहस्रेण द्रोणं विव्याध पार्थिवः। साश्वसूतध्वजरथं तदद्भुतमिवाभवत्।। | 5-163-41a 5-163-41b |
ततो मुहूर्तं व्यथितः शरपातप्रपीडितः। निषसाद रथोपस्थे द्रोणो भरतसत्तम।। | 5-163-42a 5-163-42b |
प्रतिलभ्य ततः संज्ञां मुहूर्ताद्द्विजसत्तमः। क्रोधेन महताऽऽविष्टो वायव्यास्त्रमवासृजत्।। | 5-163-43a 5-163-43b |
असम्भ्रान्तस्ततः पार्थो वायव्येनैव वीर्यवान्। तदस्त्रमस्त्रेण रणे स्तम्भयामास भारत।। | 5-163-44a 5-163-44b |
चिच्छेद च धनुर्दीर्घं ब्राह्मणस्य च पाण्डवः। ततोऽन्यद्धनुरादत्त द्रोणः क्षत्रियमर्दनः। तदप्यस्य शितैर्भल्लैश्चिच्छेद कुरुपुङ्गवः।। | 5-163-45a 5-163-45b 5-163-45c |
ततोऽब्रवीद्वासुदेवः कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम्।। | 5-163-46a |
युधिष्ठिर महाबाहो यत्त्वां वक्ष्यामि तच्छ्रणु। उपारमस्व युद्धे त्वं द्रोणाद्भरतसत्तम।। | 5-163-47a 5-163-47b |
यतते हि सदा द्रोणो ग्रहणे तव संयुगे। नानुरूपमहं मन्ये युद्धमस्य त्वया सह।। | 5-163-48a 5-163-48b |
योऽस्य सृष्टो विनाशाय स एवैनं हनिष्यति। परिवर्ज्य गुरुं याहि यत्र राजा सुयोधनः।। | 5-163-49a 5-163-49b |
राजा राज्ञा हि योद्धव्यो नाराज्ञा युद्धमिष्यते। तत्र त्वं गच्छ कौन्तेय हस्त्यश्वरथसंवृतः।। | 5-163-50a 5-163-50b |
यावन्मात्रेण च मया सहायेन धनञ्जयः। भीमश्च रथशार्दूलो युध्यते कौरवैः सह।। | 5-163-51a 5-163-51b |
वासुदेववचः श्रुत्वा धर्मराजो युधिष्ठिरः। मुहूर्तं चिन्तयित्वा तु ततो दारुणमाहवम्।। | 5-163-52a 5-163-52b |
प्रायाद्द्रुतममित्रघ्नो यत्र भीमो व्यवस्थितः। विनिघ्नंस्तावकान्योधान्व्यादितास्य इवान्तकः।। | 5-163-53a 5-163-53b |
रथघोषेण महता नादयन्वसुधातलम्। पर्जन्य इव धर्मान्ते नादयन्वै दिशो दश। भीमस्य निघ्नतः शत्रून्पार्ष्णिं जाग्रह पाण्डवः।। | 5-163-54a 5-163-54b 5-163-54c |
द्रोणोऽपि पाण्डुपाञ्चालान्व्यधमद्रजनीमुखे। `नादयंस्तलघोषेण तव सैन्यानि मारिष'।। | 5-163-55a 5-163-55b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि चतुर्दशरात्रियुद्धे त्रिषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः।। 163 ।। |
5-163-18 बाह्लीकस्य सोमदत्तस्य।। 5-163-163 त्रिषष्ठ्यधिकशततमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-162 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-164 |