महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-186
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दुर्योधनोपालम्भकोपितेन द्रोणेन पार्थदुर्योधनप्रशंसाधिक्षेपपूर्वकं रणाय निःसरणम्।। 1 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-186-1x |
ततो दुर्योधनो द्रोममभिगम्याब्रवीदिदम्। अमर्षवशमापन्नो जनयन्हर्षतेजसी।। | 5-186-1a 5-186-1b |
दुर्योधन उवाच। | 5-186-2x |
न मर्षणीयाः सङ्ग्रामे विश्रमन्तः श्रमान्विताः। सपत्ना ग्लानमनसो लब्धलक्षा विशेषतः।। | 5-186-2a 5-186-2b |
यत्तु मर्षितमस्माभिर्भवतः प्रियकाम्यया। त एते परिविश्रान्ताः पाण्डवा बलवत्तराः।। | 5-186-3a 5-186-3b |
सर्वथा परिहीनाः स्म तेजसा च बलेन च। भवता पाल्यमानास्ते विवर्धन्ते पुनःपुनः।। | 5-186-4a 5-186-4b |
दिव्यान्यस्त्राणि सर्वाणि ब्राह्मादीनि च यानि ह। तानि सर्वामि तिष्ठन्ति भवत्येव विशेषतः।। | 5-186-5a 5-186-5b |
न पाण्डवेया न वयं नान्ये लोके धनुर्धराः। युध्यमानस्य ते तुल्याः सत्यमेतद्ब्रवीमि ते।। | 5-186-6a 5-186-6b |
ससुरासुरगन्धर्वानिमाँलोकान्द्विजोत्तम। सर्वास्त्रविद्भवान्हन्याद्दिव्यैरस्त्रैर्न संशयः।। | 5-186-7a 5-186-7b |
स भवान्मर्षयत्येनांस्तव तुल्यानवेत्य च। शिष्यत्वं वा पुरस्कृत्य मम वा मन्दभाग्यताम्।। | 5-186-8a 5-186-8b |
सञ्जय उवाच। | 5-186-9x |
एवमुद्धर्षितो द्रोणः कोपितश्च सुतेन ते। समन्युरब्रवीद्राजन्दुर्योधनमिदं वचः।। | 5-186-9a 5-186-9b |
स्थविरः सन्परं शक्त्या घटे दुर्योधनाहवे। अतः परं मया कार्यं क्षुद्रं विजयगृद्धिना। अनस्त्रविदयं सर्वो हन्तव्योऽस्त्रविदा जनः।। | 5-186-10a 5-186-10b 5-186-10c |
0 | 5-186-11a |
यद्भवान्मन्यते चापि शुभं वा यदि वाऽशुभम्। तद्वै कर्ताऽस्मि कौरव्य वचनात्तव नान्यथा।। | 5-186-11a 5-186-11b |
निहत्य सर्वपाञ्चालान्युद्धे कृत्वा पराक्रमम्। विमोक्ष्ये कवचं राजन्सत्येनायुधमालभे।। | 5-186-12a 5-186-12b |
मन्यसे यच्च कौन्तेयमर्जुनं श्रान्तमाहवे। तस्य वीर्यं महाबाहो शृणु सत्येन कौरव।। | 5-186-13a 5-186-13b |
तं न देवा न गन्धर्वा न यक्षा न च राक्षसाः। उत्सहन्ते रणे जेतुं कुपितं सव्यसाचिनम्।। | 5-186-14a 5-186-14b |
खाण्डवे येन भगवान्प्रत्युद्यातः सुरेश्वरः। सायकैर्वारितश्चापि वर्षमाणो महात्मना।। | 5-186-15a 5-186-15b |
यक्षा नागास्तथा दैत्या ये चान्ये बलगर्विताः। निहताः पुरुषेन्द्रेण तच्चापि विदितं तव।। | 5-186-16a 5-186-16b |
गन्धर्वा घोषयात्रायां चित्रसेनादयो जिताः। यूयं तैर्ह्रियमाणाश्च मोक्षिता दृढधन्वना।। | 5-186-17a 5-186-17b |
निवातकवचाश्चापि देवानां शत्रवस्तथा। सुरैरवध्याः सङ्ग्रामे तेन वीरेण निर्जिताः।। | 5-186-18a 5-186-18b |
दानवानां सहस्राणि हिरण्यपुरवासिनाम्। विजिग्ये पुरुषव्याघ्रः स शक्यो मानुषैः कथम्।। | 5-186-19a 5-186-19b |
प्रत्यक्षं चैव ते सर्वं यथा बलमिदं तव। क्षपितं पाण्डुपुत्रेण चेष्टतां नो विशाम्पते।। | 5-186-20a 5-186-20b |
सञ्जय उवाच। | 5-186-21x |
तं तदाऽभिप्रशंसन्तमर्जुनं कुपितस्तदा। द्रोणं तव सुतो राजन्पुनरेवेदमब्रवीत्।। | 5-186-21a 5-186-21b |
अहं दुःशासनः कर्णः शकुनिर्मातुलश्च मे। हनिष्यामोऽर्जुनं सङ्ख्ये द्विधा कृत्वाऽद्य भारतीम्। `तिष्ठ स त्वं महाबाहो नित्यं शिष्यः प्रियस्तव'।। | 5-186-22a 5-186-22b 5-186-22c |
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा भारद्वाजो हसन्निव। अन्ववर्तत राजानं स्वस्ति तेऽस्त्विति चाब्रवीत्।। | 5-186-23a 5-186-23b |
को हि गाण्डीवधन्वानं ज्वलन्तमिव तेजसा। अक्षयं क्षपयेत्कश्चित्क्षत्रियः क्षत्रियर्षभम्।। | 5-186-24a 5-186-24b |
तं न वित्तपतिर्नेन्द्रो न यमो न जलेश्वरः। नासुरोरगरक्षांसि क्षपयेयुः सहायुधम्।। | 5-186-25a 5-186-25b |
मूढास्त्वेतानि भाषन्ते यानीमान्यात्थ भारत। युद्धे ह्यर्जुनमासाद्य स्वस्तिमान्को व्रजेद्गृहान्।। | 5-186-26a 5-186-26b |
त्वं तु सर्वाभिशङ्कित्वान्निष्ठुरः पापनिश्चयः। श्रेयसस्त्वद्धिते युक्तांस्तत्तद्वक्तुमिहेच्छसि।। | 5-186-27a 5-186-27b |
गच्छ त्वमपि कौन्तेयमात्मार्थे जहि माचिरम्। त्वमप्याशंससे योद्धुं कुलजः क्षत्रियो ह्यसि।। | 5-186-28a 5-186-28b |
इमान्किं क्षत्रियान्सर्वान्घातयिष्यस्यनागसः। त्वस्य मूलं वैरस्य तस्मादासादयार्जुनम्।। | 5-186-29a 5-186-29b |
एष ते मातुलः प्राज्ञः क्षत्रधर्ममनुव्रतः। दुर्द्युतदेवी गान्धारे प्रयात्वर्जुनमाहवे।। | 5-186-30a 5-186-30b |
एषोऽक्षकुशलो जिह्मो द्यूतकृत्कितवः शठः। देविता निकृतिप्रज्ञो युधि जेष्यति पाण्डवान्।। | 5-186-31a 5-186-31b |
त्वया कथितमत्यर्थं कर्णेन सह हृष्टवत्। असकृच्छून्यवन्मोहाद्वृतराष्ट्रस्य शृण्वतः।। | 5-186-32a 5-186-32b |
अहं च तात कर्णश्च भ्राता दुःशानश्च मे। पाण्डुपुत्रान्हनिष्यामः सहिताः समरे त्रयः।। | 5-186-33a 5-186-33b |
इति ते कत्थमानस्य श्रुतं संसदिसंसदि। अनुतिष्ठ प्रतिज्ञां तां सत्यवाग्भव तैः सह।। | 5-186-34a 5-186-34b |
एष ते पाण्डवः शत्रुरविशङ्कोऽग्रतः स्थितः। क्षत्रधर्ममवेक्षस्व श्लाघ्यस्तव वधो जयात्।। | 5-186-35a 5-186-35b |
दत्तं भुक्तमधीतं च प्राप्तमैश्वर्यमीप्सितम्। कृतकृत्योऽनृणश्चासि मा भैर्युध्यस्व पाण्डवम्।। | 5-186-36a 5-186-36b |
इत्युक्त्वा समरे द्रोणो न्यवर्तत यतः परे। द्वैधीकृत्य ततः सेनां युद्धं समभवत्तदा।। | 5-186-37a 5-186-37b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणवधपर्वणि चतुर्दशरात्रियुद्धे षडशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 186 ।। |
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