महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-194
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दृर्योधनचोदनया कृपेण द्रोणवधं श्रावितस्याश्वत्थाम्नः कोपोदयः।। 1 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-194-1x |
ततो द्रोणे हते राजन्कुरवः शस्त्रपीडिताः। हतप्रवीरा विध्वस्ता भृशं शोकपरायणाः।। | 5-194-1a 5-194-1b |
उदीर्णांश्च परान्दृष्ट्वा हर्षमाणान्पुनः पुनः। अश्रुपूर्णेक्षणास्त्रस्ता दीनास्त्वासन्विशाम्पते।। | 5-194-2a 5-194-2b |
विचेतसो हतोत्साहाः कश्मलाभिहतौजसः। आर्तस्वरेण महता पुत्रं ते पर्यवारयन्।। | 5-194-3a 5-194-3b |
वेषण्णवदना दीना वीक्षमाणा दिशो दश। अश्रुकण्ठा यथा दैत्या हिरण्याक्षे पुरा हते।। | 5-194-4a 5-194-4b |
स तैः परिवृतो राजा त्रस्तैः क्षुद्रमृगैरिव। अशक्नुवन्नवस्थातुमपायात्तनयस्तव।। | 5-194-5a 5-194-5b |
क्षुत्पिपासापरिम्लानास्ते योधास्तव भारत। आदित्येनेव सन्तप्ता भृशं विमनसोऽभवन्।। | 5-194-6a 5-194-6b |
भास्करस्येव पतनं समुद्रस्येव शोषणम्। विपर्यासं यथा मेरोर्वासवस्येव निर्जयम्।। | 5-194-7a 5-194-7b |
अप्रेक्षणीयं तद्दृष्ट्वा भारद्वाजस्य पातनम्। त्रस्तरूपतरा राजन्कौरवाः प्राद्रवन्भयात्।। | 5-194-8a 5-194-8b |
गान्धारराजः शकुनिस्त्रस्तस्त्रस्ततरैः सह। हतं रुक्मरथं श्रुत्वा प्राद्रवत्सहितो रथैः।। | 5-194-9a 5-194-9b |
वरूथिनीं वेगवतीं विद्रुतां सपताकिनीम्। परिगृह्य महासेनां सूतपुत्रोऽपयाद्भयात्।। | 5-194-10a 5-194-10b |
रथनागाश्वकलिलां पुरस्कृत्य तु वाहिनीम्। मद्राणामीश्वरः शल्यो वीक्षमाणोऽपयाद्भयात्।। | 5-194-11a 5-194-11b |
हतप्रवीरैर्भूयिष्ठैर्ध्वजैर्बहुपताकिभिः। वृतः शारद्वतोऽगच्छत्कष्टङ्कष्टमिति ब्रुवन्।। | 5-194-12a 5-194-12b |
भोजनीकेन शिष्टेन कलिङ्गारट्टबाह्लिकैः। कृतवर्मा वृतो राजन्प्रायात्सुजवनैर्हयैः।। | 5-194-13a 5-194-13b |
पदातिगणसंयुक्तस्त्रस्तो राजन्भयार्दितः। उलूकः प्राद्रवत्तत्र दृष्ट्वा द्रोणं निपातितम्।। | 5-194-14a 5-194-14b |
दर्शनीयो युवा चैव शौर्येण कृतलक्षणः। दुःशासनो भृशोद्विग्नः प्राद्रवद्गजसंवृतः।। | 5-194-15a 5-194-15b |
रथानामयुतं गृह्य त्रिसाहस्रं च दन्तिनाम्। वृषसेनो ययौ तूर्णं दृष्ट्वा द्रोणं निपातितम्।। | 5-194-16a 5-194-16b |
गजाश्वरथसंयुक्तो वृतश्चैव पदातिभिः। दुर्योधनो महाराज प्रायात्तत्र महारथः।। | 5-194-17a 5-194-17b |
संशप्तकगणाद्गृह्य हतशेषान्किरीटिना। सुशर्मा प्राद्रावद्राजन्दृष्ट्वा द्रोणं निपातितम्।। | 5-194-18a 5-194-18b |
गजान्रथान्समारुह्य व्युदस्य च हयाञ्जनाः। प्राद्रवन्सर्वतः सङ्ख्ये दृष्ट्वा रुक्मरथं हतम्।। | 5-194-19a 5-194-19b |
त्वरयन्तः पितॄनन्ये भ्रातॄनन्येऽथ मातुलान्। पुत्रानन्ये वयस्यांश्च प्राद्रवन्कुरवस्तदा।। | 5-194-20a 5-194-20b |
चोदयन्तश्च सैन्यानि स्वस्त्रीयांश्च तथाऽपरे। सम्बन्धिनस्तथाऽन्ये च प्राद्रवन्त दिशो दश।। | 5-194-21a 5-194-21b |
प्रकीर्णकेशा विध्वस्ता न द्वावेकत्र धावतः। नेदमस्तीति मन्वाना हतोत्साहा हतौजसः।। | 5-194-22a 5-194-22b |
उत्सृज्य कवचानन्ये प्राद्रवंस्तावका विभो। अन्योन्यं ते समाक्रोशन्यैनिका भरतर्षभ।। | 5-194-23a 5-194-23b |
तिष्ठतिष्ठेति न च ते स्वयं तत्रावतस्थिरे। धुर्यानुन्मुच्य च रथाद्धतसूतात्स्वलङ्कृतान्। अधिरुह्य हयान्योधाः क्षिप्रं पद्भिरचोदयन्।। | 5-194-24a 5-194-24b 5-194-24c |
द्रमाणे तथा सैन्ये त्रस्तरूपे हतौजसि। प्रतिस्रोत इव ग्राहो द्रोणपुत्रः परानियात्।। | 5-194-25a 5-194-25b |
तस्यासीत्सुमहद्युद्धं शिखण्डिप्रमुखैर्गणैः। प्रभद्रकैश्च पाञ्चालैश्चेदिभिश्च सकेकयैः।। | 5-194-26a 5-194-26b |
हत्वा बहुविधाः सेनाः पाण्डूनां युद्धदुर्मदः। कथञ्चित्सङ्कटान्मुक्तो मत्तद्विरदविक्रमः।। | 5-194-27a 5-194-27b |
द्रवमाणं बलं दृष्ट्वा पलायनकृतक्षणम्। दुर्योधनं समासाद्य द्रोणपुत्रोऽब्रवीदिदम्।। | 5-194-28a 5-194-28b |
किमियं द्रवते सेना त्रस्तरूपेव भारत। द्रवमाणां च राजेन्द्र नावस्थापयसे रणे।। | 5-194-29a 5-194-29b |
त्वं चापि न यथा पूर्वं प्रकृतिस्थो नराधिप। कर्णप्रभृतयश्चेमे नावतिष्ठन्ति पार्थिव।। | 5-194-30a 5-194-30b |
अन्येष्वपि च युद्धेषु नैव सेनाऽद्रवत्तदा। कच्चित्क्षेमं महाबाहो तव सैन्यस्य भारत।। | 5-194-31a 5-194-31b |
कस्पिन्निदं हते राजन्रथसिंहे बलं तव। एतामवस्थां संप्राप्तं तन्ममाचक्ष्व कौरव।। | 5-194-32a 5-194-32b |
तत्तु दुर्योधनः श्रुत्वा द्रोणपुत्रस्य भाषितम्। घोरमप्रियमाख्यातुं नाशक्नोत्पार्थिवर्षभः।। | 5-194-33a 5-194-33b |
भिन्ना नौरिव ते पुत्रो मग्नः शोकमहार्णवे। बाष्पेणापिहितो दृष्ट्वा द्रोणपुत्रं रथे स्थितम्।। | 5-194-34a 5-194-34b |
ततः शारद्वतं राजा सव्रीडमिदमब्रवीत्। शंसात्र भद्रं ते सर्वं यथा सैन्यमिदं द्रुतम्।। | 5-194-35a 5-194-35b |
अथ शारद्वतो राजन्नार्तिमार्च्छन्पुनःपुनः। शशंस द्रोणपुत्राय यथा द्रोणो निपातितः।। | 5-194-36a 5-194-36b |
कृप उवाच। | 5-194-37x |
वयं द्रोणं पुरस्कृत्य पृथिव्यां प्रवरं रथम्। प्रावर्तयाम सङ्ग्रामं पाञ्चालैरेव केवलम्।। | 5-194-37a 5-194-37b |
ततः प्रवृत्ते सङ्ग्रमे विमिश्राः कुरुसोमकाः। अन्योन्यमभिगर्जन्तः शस्त्रैर्देहानपातयन्।। | 5-194-38a 5-194-38b |
वर्तमाने तथा युद्धे क्षीयमाणेषु संयुगे। धार्तराष्ट्रेषु सङ्क्रुद्धः पिता तेऽस्त्रमुदैरयत्।। | 5-194-39a 5-194-39b |
ततो द्रोणो ब्राह्ममस्त्रं विकुर्वाणो नरर्षभः। व्यहनच्छात्रवान्भल्लैः शतशोऽथ सहस्रशः।। | 5-194-40a 5-194-40b |
पाण्डवाः केकया मात्स्याः पाञ्चालाश्च विशेषतः। सङ्ख्ये द्रोणरथं प्राप्य व्यनशन्कालचोदिताः।। | 5-194-41a 5-194-41b |
सहस्रं नरसिंहानां द्विसाहस्रं च दन्तिनाम्। द्रोणो ब्रह्मास्त्रयोगेन प्रेषयामास मृत्यवे।। | 5-194-42a 5-194-42b |
आकर्णपलितश्यामो वयसाऽशीतिपञ्चकः। रणे पर्यचरद्द्रोणो वृद्धः षोडशवर्षवत्।। | 5-194-43a 5-194-43b |
क्लिश्यमानेषु सैन्येषु वध्यमानेषु राजसु। अमर्षवशमापन्नाः पाञ्चाला विमुखाऽभवन्।। | 5-194-44a 5-194-44b |
तेषु किञ्चित्प्रभग्नेषु विमुखेषु सपत्नजित्। दिव्यमस्त्रं विकुर्वाणो बभूवार्क इवोदितः।। | 5-194-45a 5-194-45b |
स मध्यं प्राप्य पाण्डूनां शररश्मिः प्रतापवान्। मध्यं गत इवादित्यो दुष्प्रेक्ष्यस्ते पिताऽभवत्।। | 5-194-46a 5-194-46b |
ते दह्यमाना द्रोणेन सूर्येणेव विराजता। दग्धवीर्या निरुत्साहा बभूवुर्गतचेतसाः।। | 5-194-47a 5-194-47b |
तान्दृष्ट्वा पीडितान्बाणैर्द्रोणेन मधुसूदनः। जयैषी पाण्डुपुत्राणामिदं वचनमब्रवीत्।। | 5-194-48a 5-194-48b |
नैष जातु नरैः शक्यो जेतुं शस्त्रभृतां वरः। अपि वृत्रहणा सङ्ख्ये रथयूथपयूथपः।। | 5-194-49a 5-194-49b |
ते यूयं धर्ममुत्सृज्य जयं रक्षत पाण्डवाः। यथा वः संयुगे सर्वान्न हन्याद्रुक्मवाहनः।। | 5-194-50a 5-194-50b |
अश्वत्थाम्नि हते नैष युध्येदिति मतिर्मम। हतं तं संयुगे कश्चिदाख्यात्वस्मै मृषा नरः।। | 5-194-51a 5-194-51b |
एतन्नारोचयद्वाक्यं कुन्तीपुत्रो धनञ्जयः। अरोचयंस्तु सर्वेऽन्ये कृच्छ्रेण तु युधिष्ठिरः।। | 5-194-52a 5-194-52b |
भीमसेनस्तु सव्रीडमब्रवीत्पितरं तव। अश्वत्थामा हत इति तं नाबुध्यत ते पिता।। | 5-194-53a 5-194-53b |
स शङ्कमानस्तन्मिथ्या धर्मराजमपृच्छत। हतं वाऽप्यहतं वाऽऽजौ त्वां पिता पुत्रवत्सलः।। | 5-194-54a 5-194-54b |
तमतथ्यभये मग्नो जये सक्तो युधिष्ठिरः। अश्वत्थामानमायोधे हतं दृष्ट्वा महागजम्।। | 5-194-55a 5-194-55b |
भीमेन गिरिवर्ष्माणं मालवस्येन्द्रवर्मणः। उपसृत्य तदा द्रोणमुच्चैरिदमुवाच ह।। | 5-194-56a 5-194-56b |
यस्यार्थे शस्त्रमादत्से यमवेक्ष्य च जीवसि। पुत्रस्ते दयितो नित्यं सोश्वत्थामा निपातितः।। | 5-194-57a 5-194-57b |
शेते विनिहतो भूमौ वने सिंहशिशुर्यथा।। | 5-194-58a |
जानन्नप्यनृतस्याथ दोषान्स द्विजसत्तमम्। अव्यक्तमब्रवीद्राजा हतः कुञ्जर इत्युत।। | 5-194-59a 5-194-59b |
स त्वां निहतमाक्रन्दे श्रुत्वा सन्तापतापितः। नियम्य दिव्यान्यस्त्राणि नायुध्यत यथा पुरा।। | 5-194-60a 5-194-60b |
तं दृष्ट्वा परमोद्विग्नं शोकातुरमचेतसम्। पाञ्चालराजस्य सुतः क्रुरकर्मा समाद्रवत्।। | 5-194-61a 5-194-61b |
तं दृष्ट्वा परमोद्विग्नं शोकातुरमचेतसम्। दिव्यान्यस्त्राण्यथोत्सृज्य रणे प्रायमुपाविशत्।। | 5-194-62a 5-194-62b |
ततोऽस्य केशान्सव्येन गृहीत्वा पाणिना तदा। पार्षतः क्रोशमानानां वीराणामच्छिनच्छिरः।। | 5-194-63a 5-194-63b |
न हन्तव्यो न हन्तव्य इति ते सर्वतोऽब्रुवन्। तथैव चार्जुनो वाहादवरुह्यैनमाद्रवत्।। | 5-194-64a 5-194-64b |
उद्यम्य त्वरितो बाहुं ब्रुवाणश्च पुनःपुनः। जीवन्तमानयाचार्यं मावधीरिति धर्मवित्।। | 5-194-65a 5-194-65b |
तथा निवार्यमाणेन कौरवैरर्जुनेन च। हत एव नृशंसेन पिता तव नरर्षभ।। | 5-194-66a 5-194-66b |
सैनिकाश्च ततः सर्वे प्राद्रवन्त भयार्दिताः। वयं चापि निरुत्साहा हते पितरि तेऽनघ।। | 5-194-67a 5-194-67b |
सञ्जय उवाच। | 5-194-68x |
तच्छ्रुत्वा द्रोणपुत्रस्तु निधनं पितुराहवे। क्रोधमाहारयत्तीव्रं दण्डाहत इवोरगः।। | 5-194-68a 5-194-68b |
ततः क्रुद्धो रणे द्रौणिर्भृशं जज्वाल मारिष। यथेन्धनं महत्प्राप्य प्राज्वलद्धव्यवाहनः।। | 5-194-69a 5-194-69b |
तलं तलेन निष्पिष्य दन्तैर्दन्तानुपास्पृशत्। निःश्वसन्नुरगो यद्वल्लोहिताक्षोऽभवत्तदा।। | 5-194-70a 5-194-70b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि नारायणास्त्रमोक्षपर्वणि पञ्चदशदिवसयुद्धे चतुर्नवत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 194 ।। |
द्रोणपर्व-193 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-195 |