महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-066
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नारदेन सृञ्जयम्प्रति गयगुणानुवर्णनम्।। 1 ।।
नारद उवाच। | 5-66-1x |
गयं चाधूर्तरजसं मृतं सृञ्जय शुश्रुम। ये वै वर्षशत राजा हुतशिष्टाशनोऽभवत्।। | 5-66-1a 5-66-1b |
तस्मै ह्यग्निर्वरं प्रादात्ततो वव्रे वरं गयः। तपसा ब्रह्मचर्येण व्रतेन नियमेन च।। | 5-66-2a 5-66-2b |
गुरूणां च प्रसादेन वेदानिच्छामि वेदितुम्। स्वधर्मेणाविहिंस्यान्यान्धनमिच्छामि चाक्षयम्।। | 5-66-3a 5-66-3b |
विप्रेषु ददतश्चैव श्रद्धा भवतु नित्यशः। कन्यासु च सवर्णासु सुप्रजस्त्वं च मे भवेत्।। | 5-66-4a 5-66-4b |
अन्नमोजो महो मह्यं धर्मे मे रमतां मनः। अविघ्नं चास्तु मे नित्यं धर्मकार्येषु पावक।। | 5-66-5a 5-66-5b |
तथा भिष्यतीत्युक्त्वा तत्रैवान्तरधीयत। गयो ह्यवाप्य तत्सर्वं धर्मेणाराधयञ्जगत्।। | 5-66-6a 5-66-6b |
स दर्शपूर्णमासाभ्यां कालेष्वाग्रयणेन च। चातुर्मास्यैश्च विविधैर्यज्ञैश्चावाप्तदक्षिणैः।। | 5-66-7a 5-66-7b |
अयजच्छ्रद्धया राजा परिसंवत्सराञ्शतम्। गवां शतसहस्राणि शतमश्वशतानि च।। | 5-66-8a 5-66-8b |
शतं निष्कसहस्राणि गवां चाप्ययुतानि षट्। उत्थायोत्थाय सम्प्रादात्परिसंवत्सराञ्शतम्।। | 5-66-9a 5-66-9b |
नक्षत्रेषु च सर्वेषु ददन्नक्षत्रदक्षिणाः। ईजे च विविधैर्यज्ञैर्यथा सोमोऽङ्गिरा यथा।। | 5-66-10a 5-66-10b |
सौवर्णां पृथिवीं कृत्वा य इमां प्रमिशर्कराम्। विप्रेभ्यः प्राददद्राजा सोऽश्वमेधे महामखे।। | 5-66-11a 5-66-11b |
जाम्बूनदमया यूपाः सर्वे रत्नपरिच्छदाः। गयस्यासन्समृद्धास्तु सर्वभूतमनोहराः।। | 5-66-12a 5-66-12b |
सर्वकामसमृद्धं च प्रादादन्नं गयस्तदा। ब्राह्ममेभ्यः प्रहृष्टेभ्यः सर्वभूतेभ्य एव च।। | 5-66-13a 5-66-13b |
ससमुद्रवनद्वीपनदीनदवनेषु च। नगरेषु च राष्ट्रेषु दिवि व्योम्नि च येऽवसन्।। | 5-66-14a 5-66-14b |
भूतग्रामाश्च विविधाः सन्तृप्ता यज्ञसम्पदा। गयस्य सदृशो यज्ञो नास्त्यन्य इति तेऽब्रुवन्।। | 5-66-15a 5-66-15b |
षट्त्रिंशद्योजनायामा त्रिंशद्योजनमायता। पश्चात्पुरश्चतुर्विंशद्वेदी ह्यासीद्धिरण्मयी।। | 5-66-16a 5-66-16b |
गयस्य यजमानस्य मुक्तावज्रमणिस्तृता। प्रादात्स ब्राह्मणेभ्योऽथ वासांस्याभरणानि च।। | 5-66-17a 5-66-17b |
यथोक्ता दक्षिणाश्चान्या विप्रेभ्यो भूरिदक्षिणः। यत्र भोजनशिष्टस्य पर्वताः पञ्चविंशतिः।। | 5-66-18a 5-66-18b |
कुल्याश्च क्षीरवाहिन्यो रसानां चापभवंस्तदा। वस्त्राभरणगन्धानां शारयश्च पृथग्विधाः।। | 5-66-19a 5-66-19b |
यस्य प्रभावाच्च गयस्त्रिषु लोकेषु विश्रुतः। वटश्चाक्षय्यकरणः पुण्यं ब्रह्मसरश्च तत्।। | 5-66-20a 5-66-20b |
स चेन्ममार स़ञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया। पुत्रात्पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः। अयज्वानमदक्षिण्यमभि श्वैत्येत्युदाहरत्।। | 5-66-21a 5-66-21b 5-66-21c |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि षोडशराजकीये षट्षष्टितमोऽध्यायः।। 66 ।। |
5-66-1 गयं चामूर्तरयसं इति घ. झ.पाठः।। 5-66-4 पात्रेषु ददतः सामे श्रद्धा भवतु इति क.ङ.ड.पाठः।। 5-66-7 पौर्णमासाभ्य इति घ. पाठः।। 5-66-10 नक्षत्रविहिता दक्षिणाः।। 5-66-20 यस्य प्रसादाद्रायत्री त्रिषु लोकेषु विश्रुता इति क.पाठः।। 5-66-66 षट्षष्टितमोऽध्यायः।।
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