महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-201

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नारयणास्त्रेणावेष्टिते भीमे कृष्णार्जुनाश्यां हस्ततः शस्त्रापकर्षणपूर्वकं रथादवरोपिते सत्यस्त्रस्य प्रशमनम्।। 1 ।। ततः सङ्कुलयुद्धम्।। 2 ।।

सञ्जय उवाय। 5-201-1x
भीमसेनं समाकीर्णं दृष्ट्वाऽस्त्रेण धनञ्जयः।
तेजसः प्रतिघातार्थं वारुणेन समावृणोत्।।
5-201-1a
5-201-1b
नालक्षयत तत्कश्चिद्वारुणास्त्रेण संवृतम्।
अर्जुनस्य लघुत्वाच्च संवृतत्वाच्च तेजसः।।
5-201-2a
5-201-2b
साश्वसूतरथो भीमो द्रोणपुत्रास्त्रसंवृतः।
अग्नावग्निरिव न्यस्तो ज्वालामाली सुदुर्दृशः।।
5-201-3a
5-201-3b
यथा रात्रिक्षये राजञ्ज्योतीष्यस्तगिरिं प्रति।
समापेतुस्तथा बाणा भीमसेनरथं प्रति।।
5-201-4a
5-201-4b
स हि भीमो रथश्चास्य हयाः सूतश्च मारिष।
संवृता द्रोणपुत्रेण पावकान्तर्गताऽभवन्।।
5-201-5a
5-201-5b
यथा जग्ध्वा जगत्कृत्स्नं समये सचराचरम्।
गच्छेद्वह्निर्विभोरास्यं तथाऽस्त्रं भीममावृणोत्।।
5-201-6a
5-201-6b
सूर्यमग्निः प्रविष्टः स्याद्यथा चाग्निं दिवाकरः।
तथा प्रविष्टं तत्तेजो न आज्ञायत पाण्डवः।।
5-201-7a
5-201-7b
`तदस्त्रं भीमहुङ्कारादपयाति पुनःपुनः।
पुनः पुनस्तमायाति हुंकारात्तं विमुञ्चति।
ततो देवाः सगन्धर्वा भीमं दृष्ट्वा सुविस्मिताः'।।
5-201-8a
5-201-8b
5-201-8c
विकीर्णमस्त्रं तद्दृष्ट्वा तथा भीमरथं प्रति।
उदीर्यमाणं द्रौणिं च निष्प्रतिद्वन्द्वमाहवे।।
5-201-9a
5-201-9b
सर्वसैन्यं च पाण्डूनां न्यस्तशस्त्रमचेतनम्।
युधिष्ठिरपुरोगांश्च विमुखांस्तान्महारथनान्।।
5-201-10a
5-201-10b
अर्जुनो वासुदेवश्च त्वरमाणौ महाद्युती।
अवप्लुत्य रथाद्वीरौ भीममाद्रवतां ततः।।
5-201-11a
5-201-11b
ततस्तद्द्रोणपुत्रस्य तेजोऽस्त्रबलसम्भवम्।
विगाह्य तौ सुबलिनौ माययाऽविशतां तथा।।
5-201-12a
5-201-12b
न्यस्तशस्त्रौ ततस्तौ तु नादहत्सोऽस्त्रजोऽनलः।
वारुणास्त्रप्रयोगाच्च वीर्यवत्त्वाच्च कृष्णयोः।।
5-201-13a
5-201-13b
ततश्चकृषतुर्भीमं सर्वशस्त्रायुधानि च।
नारायणास्त्रशान्त्यर्थं नरनारायणौ बलात्।।
5-201-14a
5-201-14b
आकृष्यमाणः कौन्तेयो नदत्येव महारवम्।
वर्धते चैव तद्वोरं द्रौणेरस्त्रं सुदुर्जयम्।।
5-201-15a
5-201-15b
तमब्रवीद्वासुदेवः किमिदं पाण्डुनन्दन।
वार्यमाणोऽपि कौन्तेय यद्युद्वान्न निवर्तसे।।
5-201-16a
5-201-16b
यदि युद्वेन जेयाः स्युरिमे कौरवनन्दनाः।
वयमप्यत्र युध्येम तथा चेमे नरर्षभाः।।
5-201-17a
5-201-17b
रथेभ्यस्त्ववतीर्णाः स्म सर्व एव हि तावकाः।
तस्मात्त्वमपि कौन्तेय रथात्तूर्णमपाक्रम।।
5-201-18a
5-201-18b
एवमुक्त्वा तु तं कृष्णो रथाद्भूमिमवर्तयत्।
निःश्वसन्तं यथा नागं क्रोधसंरक्तलोचनम्।।
5-201-19a
5-201-19b
यदाऽपकृष्टः स रथान्न्यासितश्चायुधं भुवि।
ततो नारायणास्त्रं तत्प्रशान्तं शत्रुतापनम्।।
5-201-20a
5-201-20b
सञ्जय उवाच। 5-201-21x
तस्मिन्प्रशान्ते विधिना तेन तेजसि दुःसहे।
बभूवुर्विमलाः सर्वा दिशः प्रदिश एव च।।
5-201-21a
5-201-21b
प्रववुश्च शिवा वाताः प्रशान्ता मृगपक्षिणः।
वाहनानि च हृष्टानि प्रशान्तेऽस्त्रे सुदुर्जये।।
5-201-22a
5-201-22b
व्यपोढे च ततो घोरे तस्मिंस्तेजसि भारत।
बभौ भीमो निशापाये धीमान्सूर्य इवोदितः।।
5-201-23a
5-201-23b
हतशेषं बलं तत्तु पाण्डवानामतिष्ठत।
अस्त्रव्युपरमाद्वृष्टं तव पुत्रजिघांसया।।
5-201-24a
5-201-24b
व्यवस्थिते बले तस्मिन्नेस्त्रे प्रतिहते तथा।
दुर्योधनो महाराज द्रोणपुत्रमथाब्रवीत्।।
5-201-25a
5-201-25b
अश्वत्थामन्पुनः शीघ्रमस्त्रमेतत्प्रयोजय।
अवस्थिता हि पाञ्चालाः पुनरेते जयैषिणः।।
5-201-26a
5-201-26b
अश्वत्थामा तथोक्तस्तु तव पुत्रेण मारिष।
सुदीनमभिनिः श्वस्य राजानमिदमब्रवीत्।।
5-201-27a
5-201-27b
नैतदावर्तते राजन्नस्त्रं द्विर्नोपपद्यते।
आवृतं हि निवर्तेत प्रयोक्तारं न संशयः।।
5-201-28a
5-201-28b
एष चास्त्रप्रतीघातं वासुदेवः प्रयुक्तवान्।
`अस्य तु ह्येष वै दाता मानुषेषु न विद्यते।।
5-201-29a
5-201-29b
परावरज्ञो लोकानां न तदस्ति न वेत्ति यत्।
तदेतदस्त्रं प्रशमं यातं कृष्णस्य मन्त्रितैः'।।
5-201-30a
5-201-30b
द्विविधो विहितः सङ्ख्ये वधः शस्त्रोर्जनाधिप।
पराजयो वा मृत्युर्वा श्रेयान्मृत्युर्न निर्जयः।।
5-201-31a
5-201-31b
विजिताश्चारयो ह्योते शस्त्रोत्सर्गान्मृतोपमाः।। 5-201-32a
दुर्योधन उवाच। 5-201-33x
आचार्यपुत्र यद्येतद्द्विरस्त्रं न प्रयुज्यते।
अन्यैर्गुरुघ्ना वध्यन्तामस्त्रैरस्त्रविदां वर।।
5-201-33a
5-201-33b
त्वयि शस्त्राणि दिव्यानि त्र्यम्बके चामितौजसि।
`घ्नतैतान्सुमहावीर्य शात्रवान्युद्वकोविदः'।
इच्छतो न हि ते मुच्येत्सङ्क्रुद्धो हि पुरन्दरः।।
5-201-34a
5-201-34b
5-201-34c
धृतराष्ट्र उवाच। 5-201-35x
तस्मिन्नस्त्रे प्रतिहते द्रोणे चोपधिना हते।
तथा दुर्योधनेनोक्तो द्रौणिः किमकरोत्पुनः।।
5-201-35a
5-201-35b
दृष्ट्वा पार्थांश्च सङ्ग्रामे युद्धाय समुपस्थितान्।
नारायणास्त्रनिर्मुक्तांश्चरतः पृतनामुखे।।
5-201-36a
5-201-36b
सञ्जय उवाच। 5-201-37x
जानन्पितुः स निधनं सिंहलाङ्गूलकेतनः।
सक्रोधो भयमुत्सृज्य सोऽभिदुद्राव पार्षतम्।।
5-201-37a
5-201-37b
अभिद्रुत्य च विंशत्या क्षुद्रकाणां नरर्षभ।
पञ्चभिश्चातिवेगेन विव्याध पुरुषर्षभः।।
5-201-38a
5-201-38b
धृष्टद्युम्नस्ततो राजञ्ज्वलन्तमिव पावकम्।
द्रोणपुत्रं त्रिषष्ट्या तु राजन्विव्याध पत्रिणाम्।।
5-201-39a
5-201-39b
सारथिं चास्य विंशत्या स्वर्णपुङ्खैः शिलाशितैः।
हयांश्च चतुरोऽविध्यच्चतुर्भिर्निशितैः शरैः।।
5-201-40a
5-201-40b
विद्व्वा विद्वाऽनदद्द्रौणिं कम्पयन्निव मेदिनीम्।
आददे सर्वलोकस्य प्राणानिव महारणे।।
5-201-41a
5-201-41b
पार्षतस्तु बली राजन्कृतास्त्रः कृतनिश्चयः।
द्रौणिमेवाभिदुद्राव मृत्युं कृत्वा निवर्तनम्।।
5-201-42a
5-201-42b
ततो बाणमयं वर्षं द्रोणपुत्रस्य मूर्धनि।
अवासृजदमेयात्मा पाञ्चाल्यो रथिनांवरः।।
5-201-43a
5-201-43b
तं द्रौणिः समरे क्रुद्धं छादयामास पत्रिभिः।
विव्याध चैनं दशभिः पितुर्वधमनुस्मरन्।।
5-201-44a
5-201-44b
द्वाभ्यां च सुविसृष्टाभ्यां क्षुराभ्यां ध्वजकार्मुके।
छित्त्वा पाञ्चालराजस्य द्रौणिरन्यैः समार्दयत्।।
5-201-45a
5-201-45b
व्यश्वसूतरथं चैनं द्रौणिश्चक्रे महाहावे।
तस्य चानुचरान्सर्वान्क्रुद्धः प्राद्रावयच्छरैः।।
5-201-46a
5-201-46b
ततः प्रदुद्रुवे सैन्यं पाञ्चालानां विशाम्पते।
सम्भ्रान्तरूपमार्तं च न परस्परमैक्षत।।
5-201-47a
5-201-47b
दृष्ट्वा तु विमुखान्योधान्धृष्टद्युम्नं च पीडितम्।
शैनेयोऽचोदयत्तूर्णं रथं द्रौणिरथं प्रति।।
5-201-48a
5-201-48b
अष्टभिर्निशितैर्बाणैरश्वत्थामानमार्दयत्।
विंशत्या पुनराहत्य नानारूपैरमर्षणः।
विव्याध च तथा सूतं चतुर्भिश्चतुरो हयान्।।
5-201-49a
5-201-49b
5-201-49c
[धनुर्ध्वजं* ; संयत्तश्चिच्छेद कृतहस्तवत्।
स साश्वं व्यधमच्चापि रथं हेमपरिष्कृतम्।
हृदि विव्याध समरे त्रिंशता सायकैर्भृशम्।।
5-201-50a
5-201-50b
5-201-50c
एवं स पीडितो राजन्नश्वत्थामा महाबालः।
शरजालैः परिवृतः कर्तव्यं नान्वपद्यत।।
5-201-51a
5-201-51b
एवं गते गुरोः पुत्रे तव पुत्रो महारथः।
कृपकर्णादिभिः सार्धं शरैः सात्वतमावृणोत्।।
5-201-52a
5-201-52b
दुर्योधनस्तु विंशत्या कृपः शारद्वतस्त्रिभिः।
कृतवर्माऽथ दशभिः कर्णः पञ्चाशता शरैः।।
5-201-53a
5-201-53b
दुःशासनः शतेनैव वृषसेनश्च सप्तभिः।
सात्यकिं विव्यधुस्तूर्णं समन्तान्निशितैः शरैः।।
5-201-54a
5-201-54b
ततः स सात्यकी राजन्सर्वानेव महारथान्।
विरथान्विमुखांश्चैव क्षणेनैवाकरोन्नृप।।
5-201-55a
5-201-55b
अश्वत्थामा तु सम्प्राप्य चेतनां भरतर्षभ।
चिन्तयामास दुःखार्तो निःश्वसंश्च पुनःपुनः।।
5-201-56a
5-201-56b
अथो रथान्तरं द्रौणिः समारुह्य परन्तपः।
सात्यकिं वारयामास किरञ्शरशतान्बहून्।।
5-201-57a
5-201-57b
तमापतन्तं सम्प्रेक्ष्य भारद्वाजसुतं रणे।
विरथं विमुखं चैव पुनश्चक्रे महारथः।।
5-201-58a
5-201-58b
ततस्ते पाण्डवा राजन्दृष्ट्वा सात्यकिविक्रमम्।
शङ्खशब्दान्भृशं चक्रुः सिंहनादांश्च नेदिरे।।
5-201-59a
5-201-59b
एवं तं विरथं कृत्वा सात्यकिः सत्यविक्रमः।
जघान वृषसेनस्य त्रिसाहस्रान्महारथान्।।
5-201-60a
5-201-60b
अयुतं दन्तिनां सार्धं कृपस्य निजघान सः।
पञ्चायुतानि चाश्वानां शकुनेर्निजघान ह।।
5-201-61a
5-201-61b
ततो द्रौणिर्महाराज रथमारुह्य वीर्यवान्।
सात्यकिं प्रति सङ्क्रुद्धः प्रययौ तद्वधेप्सया।
5-201-62a
5-201-62b
पुनस्तमागतं दृष्ट्वा शनेयो निशितैः शरैः।
अदारयत्क्रुरतरैः पुनःपुनररिन्दम।।]
5-201-63a
5-201-63b
सोऽतिविद्धो महेष्वासो नानालिङ्गैरमर्षणः।
युयुधानेन वै द्रौणिः प्रहसन्वाक्यमब्रवीत्।।
5-201-64a
5-201-64b
शैनेयाब्युपपत्तिं ते जानाम्याचार्यघातिनि।
न चैनं त्रास्यसि मया ग्रस्तमात्मानमेव च।।
5-201-65a
5-201-65b
शपेत्मनाऽहं शैनेय सत्येन तपसा तथा।
अहत्वा सर्वपाञ्चालान्यदि शान्तिमहं लभे।।
5-201-66a
5-201-66b
यद्बलं पाण्डवेयानां वृष्णीनामपि यद्बलम्।
क्रियतां सर्वमेवेह निहनिष्यामि सोमकान्।।
5-201-67a
5-201-67b
एवमुक्त्वाऽर्करम्याभं सुतीक्ष्णं तं शरोत्तमम्।
व्यसृजत्सात्वते द्रौणिर्वज्रं वृत्रे यथा हरिः।।
5-201-68a
5-201-68b
स तं निर्भिद्य तेनास्तः सायकः शरावरम्।
विवेश वसुधां भित्त्वा श्वसन्बिलमिवोरगः।।
5-201-69a
5-201-69b
स भिन्नकवचः शूरस्तोत्रार्दित इव द्विपः।
विमुच्य सशरं चापं भूरिव्रणपरिस्रवः।।
5-201-70a
5-201-70b
सीदन्रुधिरसिक्तश्च रथोपस्थ उपाविशत्।
सूतेनापहृतस्तूर्णं द्रोणपुत्राद्रथान्तरम्।।
5-201-71a
5-201-71b
अथान्येन सुपुङ्खेन शरेणानतपर्वणा।
आजघान भ्रवोर्मध्ये धृष्टद्युम्नं परन्तपः।।
5-201-72a
5-201-72b
स पूर्वमतिविद्धश्च भृशं पस्चाच्च पीडितः।
ससदाथ च पाञ्चाल्यो व्यपाश्रयत च ध्वजम्।।
5-201-73a
5-201-73b
तं नागमिव सिंहेन दृष्ट्वा राजञ्शरार्दितम्।
जवेनाभ्यद्रवञ्छूराः पञ्च पाण्‍डवतो रथाः।।
5-201-74a
5-201-74b
किरीटी भीमसेनश्च वृद्वक्षत्रश्च पौरवः।
युवराजश्च चेदीनां मालवश्च सुदर्शनः।।
5-201-75a
5-201-75b
एते हाहाकृताः सर्वे प्रगृहीतशरासनाः।
वीरं द्रौणायनिं वीराः सर्वतः पर्यवारयन्।।
5-201-76a
5-201-76b
ते विंशतिपदे यत्ता गुरुपुत्रममर्षणम्।
पञ्चभिः पञ्चभिर्बाणैरभ्यघ्नन्सर्वतः समम्।।
5-201-77a
5-201-77b
आशीविषाभैर्विंशत्या पञ्चभिस्तु शितैः शरैः।
चिच्छेद युगपद्द्रौणिः पञ्चविंशतिसायकान्।।
5-201-78a
5-201-78b
सप्तभिस्तु शितैर्बाणैः पौरवं द्रौणिरार्दयत्।
मालवं त्रिभिरेकेन पार्थं ष़ड्भिर्वृकोदरम्।
5-201-79a
5-201-79b
ततस्ते विव्यधुः सर्वे द्रौणिं राजन्महारथाः।
युगपच्च पृथक्चैव रुक्मपुङ्खैः शिलाशितैः।।
5-201-80a
5-201-80b
युवराजश्च विंशत्या द्रौणिं विव्याध पत्रिभिः।
पार्थश्च पुनरष्टाभिस्तथा सर्वे त्रिभिस्त्रिभिः।।
5-201-81a
5-201-81b
ततोऽर्जुनं षड्भिरथाजघान
द्रौणायनिर्दशभिर्वासुदेवम्।
भीमं दशार्धैर्युवारजं चतुर्भि-
र्द्वाभ्यां द्वाभ्यां मालवं पौरवं च।।
5-201-82a
5-201-82b
5-201-82c
5-201-83b
सूतं विद्व्वाः भीमसेनस्य षड्भि--
र्द्वाभ्यां विद्व्वा कार्मुकं च ध्वजं च।
पुनः पार्थं शरवर्षेण विद्व्वा
द्रौणिर्घोरं सिंहनादं ननाद।।
5-201-83a
5-201-83b
5-201-83c
5-201-83d
तस्यास्यतस्तान्निशितान्पीतधारा--
न्द्रौणेः शरान्पृष्ठतश्चाग्रतश्च।
धरा वियद्द्यौः प्रदिशो दिशश्च
च्छन्ना बाणैरभवन्धोररूपैः।।
5-201-84a
5-201-84b
5-201-84c
5-201-84d
आसन्नस्य स्वरथं तीव्रतेजाः
सुदर्शनस्येन्द्रकेतुप्रकाशौ।
भुजौ शिरश्चेन्द्रसमानवीर्य--
स्त्रिभिः शरैर्युगपत्सञ्चकर्त।।
5-201-85a
5-201-85b
5-201-85c
5-201-85d
स पौरवं रथशक्त्या निहत्य
च्छित्त्वा रथं तिलशश्चास्य बाणैः।
छित्त्वा च बाहू वरचन्दनाक्तौ
भल्लेन कायाच्छिर उच्चकर्त।।
5-201-86a
5-201-86b
5-201-86c
5-201-86b
युवानमिन्दीवरदामवर्णं
चेदिप्रभुं युवराजं प्रसह्य।
बाणैस्त्वरावाञ्ज्वलिताग्निकल्पै--
र्विद्व्वा प्रादान्मृत्येव साश्वसूतम्।।
5-201-87a
5-201-87b
5-201-87c
5-201-87d
[*मालवं पौरवं चैव युवराजं च चेदिपम्।
दृष्ट्वा समक्षं निहतं द्रोणपुत्रोण पाण्डवः।
भीमसेनो महाबाहुः क्रोधमाहारयत्परम्।।
5-201-88a
5-201-88b
5-201-88c
ततः शरशतैस्तीक्ष्णैः सङ्क्रुद्धाशीविषोपमैः।
छादयामास समरे द्रोणपुत्रं परन्तपः।।
5-201-89a
5-201-89b
ततो द्रौणिर्महातेजाः शरवर्षं निहत्य तम्।
विव्याध निशितैर्बाणैर्भीमसेनममर्षणः।।
5-201-90a
5-201-90b
ततो भीमो महाबाहुद्रौणेर्युधि महाबलः।
क्षुरप्रेण धनुश्छित्त्वा द्रौणिं विव्याध पत्रिणा।।
5-201-91a
5-201-91b
तदपास्य धनुश्छिन्नं द्रोणपुत्रो महामनाः।
अन्यत्कार्मुकमादाय भीमं विव्याध पत्रिभिः।।
5-201-92a
5-201-92b
तौ द्रौणिभीमौ समरे पराक्रान्तौ महाबलौ।
अवर्षतां शरवर्षं वृष्टिमन्ताविवाम्बुदौ।।
5-201-93a
5-201-93b
भीमनामाङ्किता बाणाः स्वर्णपुङ्खाः शिलाशिताः।
द्रौणिं सञ्छादयामासुर्घनौघा इव भास्करम्।।
5-201-94a
5-201-94b
तथैव द्रौणिनिर्मुक्तैर्भीमः सन्नतपर्वभिः।
अवाकीर्यत स क्षिप्रं शरैः शतसहस्रशः।।
5-201-95a
5-201-95b
स च्छाद्यमानः समरे द्रौणिना रणशालिना।
न विव्यथे महाराज तदद्भुतमिवाभवत्।।
5-201-96a
5-201-96b
ततो भीमो महाबाहुः कार्तस्वरविभूषितान्।
नाराचान्दश सम्प्रैषीद्यमदण्डनिभाञ्छितान्।।
5-201-97a
5-201-97b
ते जत्रुदेशमासाद्य द्रोणपुत्रस्य मारिष।
निर्भिद्य विविशुस्तूर्णं वल्मीकमिव पन्नगाः।।
5-201-98a
5-201-98b
सोऽतिविद्धो भृशं द्रौणिः पाण्डवेन महात्मना।
ध्वजयष्टिं समासाद्य न्यमीलयत लोचने।।
5-201-99a
5-201-99b
स मुहूर्तात्पुनः संज्ञां लब्ध्वा द्रौणिर्नराधिप।
क्रोधं परममातस्थौ समरे रुधिरोक्षितः।।
5-201-100a
5-201-100b
दृढं सोऽभिहतस्तेन पाण्डवेन महात्मना।
वेगं चक्रे महाबाहुर्भीमसेनरथं प्रति।।
5-201-101a
5-201-101b
तत आकर्णपूर्णानां शराणां तिग्मतेजसाम्।
शतमाशीविषाभानां प्रेषयामास भारत।।
5-201-102a
5-201-102b
भीमोऽपि समरश्लाघी तस्य वीर्यमचिन्तयत्।
तूर्णं प्रासृजदुग्राणि शरवर्षाणि पाण्डवः।।
5-201-103a
5-201-103b
ततो द्रौणिर्महाराज च्छित्त्वाऽस्य विशिखैर्धनुः।
आजघानोरसि क्रुद्धः पाण्डवं निशितैः शरैः।।
5-201-104a
5-201-104b
ततोऽन्यद्धनुरादाय भीमसेनो ह्यमर्षणः।
विव्याध निशितैर्बाणैर्द्रौणिं पञ्चभिराहवे।।
5-201-105a
5-201-105b
जीमूताविव घर्मान्ते तौ शरौघप्रवर्षिणौ।
अन्योन्यक्रोधताम्राक्षौ छादयामासतुर्युधि।।
5-201-106a
5-201-106b
तलशब्दैस्ततो घोरैस्त्रासयन्तौ परस्परम्।
अयुध्येतां सुसंरब्धौ कृतप्रतिकृतैषिणौ।।
5-201-107a
5-201-107b
ततो विष्फार्य सुमहच्चापं रुक्मविभूषितम्।
भीमं प्रैक्षत स द्रौणिः शरानस्यन्तमन्तिकात्।
शरद्यहर्मध्यगतो द्रीप्तार्चिरिव भास्करः।।
5-201-108a
5-201-108b
5-201-108c
आददनास्य विशिखान्सन्दधानस्य चाशुगान्।
विकर्षतो मुञ्चतश्च नान्तरं ददृशुर्जनाः।।
5-201-109a
5-201-109b
अलातचक्रप्रतिमं तस्य मण्डलमायुधम्।
द्रौणेरासीन्महाराज बाणान्विसृजतस्तदा।।
5-201-110a
5-201-110b
धनुश्च्युताः शरास्तस्य शतशोऽथ सहस्रशः।
आकाशे प्रत्यदृश्यन्त शलभानामिवायतीः।।
5-201-111a
5-201-111b
ते तु द्रौणिविनिर्मुक्ताः शरा हेमविभूषिताः।
अजस्रमन्वकीर्यन्त घोरा भीमरथं प्रति।।
5-201-112a
5-201-112b
तत्राद्भुतकमपश्याम भीमसेनस्य विक्रमम्।
बलं वीर्यं प्रभावं च व्यवसायं च भारत।।
5-201-113a
5-201-113b
तां स मेघादिवोद्भूतां बाणवृष्टिं समन्ततः।
जलवृष्टिं महाघोरां तपान्त इव चिन्तयन्।।
5-201-114a
5-201-114b
द्रोणपुत्रवधप्रेप्सुर्भीमो भीमपराक्रमः।
अमुञ्चच्छरवर्षाणि प्रावृषीव बलाहकः।।
5-201-115a
5-201-115b
तद्रुक्मपृष्टं भीमस्य धनुर्घारं महारणे।
विकृष्यमाणं विबभौ शक्रचापमिवापरम्।।
5-201-116a
5-201-116b
तस्माच्छराः प्रादुरासञ्छतशोऽथ सहस्रशः।
सञ्छादयन्तः समरे द्रौणिमाहवशोभिनम्।।
5-201-117a
5-201-117b
तयोर्विसृजतोरेवं शरजालानि मारिष।
वायुरप्यन्तरा राजन्नाशक्नोत्प्रतिसर्पितुम्।।
5-201-118a
5-201-118b
तथा द्रौणिर्महाराज शरान्हेमविभूषितान्।
तैलधौतान्प्रसन्नाग्रान्प्राहिणोद्वधकाङ्क्षया।।
5-201-119a
5-201-119b
तानन्तरिक्षे विशिखैस्त्रिधैकैकमशातयत्
विशेषयन्द्रोणसुतं तिष्ठतिष्ठेति चाब्रवीत्।।
5-201-120a
5-201-120b
पुनश्च शरवर्षाणि घोराण्युग्राणि पाण्डवः।
व्यसृजद्बलवानक्रुद्धो द्रोणपुत्रवधेप्सया।।
5-201-121a
5-201-121b
ततोऽस्त्रमायया तूर्णं शरवृष्टिं निवार्य ताम्।
धनुश्चिच्छेद भीमस्य द्रोणपुत्रो महास्त्रवित्।
शरैश्चैनं सुबहुभिः क्रुद्धः सङ्ख्ये पराभिनत्।।
5-201-122a
5-201-122b
5-201-122c
स छिन्नधन्वा बलवान्रथशक्तिं सुदारुणाम्।।
वेगेनाविध्य चिक्षेप द्रोणपुत्ररथं प्रति।।
5-201-123a
5-201-123b
तामापतन्तीं सहसा महोल्काभां शितैः शरैः।
चिच्छेद समरे द्रौणिर्दर्शयन्पाणिलाघवम्।।
5-201-124a
5-201-124b
एतस्मिन्नन्तरे भीमो दृढमादाय कार्मुकम्।
द्रौणिं विव्याध विशिखैः स्मयमानो वृकोदरः।।
5-201-125a
5-201-125b
ततो द्रौणिर्महाराज भीमसेनस्य सारथिम्।
ललाटे दारयामास शरेणानतपर्वणा।।
5-201-126a
5-201-126b
सोऽतिविद्धो बलवता द्रोणपुत्रेण सारथिः।
व्यामोहमगमद्राजन्रश्मीनुत्सृज्य वाजिनां।।
5-201-127a
5-201-127b
ततोऽश्वाः प्राद्रवंस्तूर्णं मोहिते रथसारथौ।
भीमसेनस्य राजेनद्र् पश्यतां सर्वधन्विनाम्।।
5-201-128a
5-201-128b
तं दृष्ट्वा प्रद्रुतैरश्वैरपकृष्टं रणाजिरात्।
दध्मौ प्रमुदितः शङ्खं बृहन्तमपराजितः।।
5-201-129a
5-201-129b
ततः सर्वे च पाञ्चाला भीमसेनश्च पाण्‍डवः।
धृष्टद्युम्नरथं त्यक्त्वा भीताः सम्प्राद्रवन्दिशः।।
5-201-130a
5-201-130b
तान्प्रभग्नांस्ततो द्रौणिः पृष्ठतो विकिरञ्शरान्।
अभ्यवर्तत वेगेन कालयन्पाण्डुवाहिनीम्।।
5-201-131a
5-201-131b
ते वध्यमानाः समरे द्रोणपुत्रेण पार्थिवाः।
द्रोणपुत्रभयाद्राजन्दिशः सर्वाश्च भेजिरे।।
5-201-132a
5-201-132b
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वण नारायणास्त्रमोक्षपर्वणि
पञ्चदशदिवसयुद्धे एकाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 201 ।।

[सम्पाद्यताम्]

5-201-* एतदादि 14 श्लोकाः झ. पुस्त एव दृश्यन्ते। 5-201-* एतदादि 42 श्लोकाः झ. पाठ एव सन्ति।

द्रोणपर्व-200 पुटाग्रे अल्लिखितम्। द्रोणपर्व-202