महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-198
दिखावट
← द्रोणपर्व-197 | महाभारतम् सप्तमपर्व महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-198 वेदव्यासः |
द्रोणपर्व-199 → |
|
साधिक्षेपमश्वत्थामतो युधिष्ठिरं भीषयन्तं पार्थंप्रति भीमेन सामर्षमात्मबलवर्णनादिपूर्वकं स्वेनाश्वत्थामादिविजयप्रतिज्ञानम्।। 1 ।। धृष्टद्युम्नेनाप्यर्जुनं प्रति सक्रोधं क्षात्रधर्मादिकथनपूर्वकं स्वकृतद्ग्रोणवधस्य धार्मिकत्वकथनम्।। 2 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-198-1x |
अर्जुनस्य वचः श्रुत्वा नोचुस्तत्र महारथाः। अप्रियं वा प्रियं वाऽपि महाराज धनञ्जयम्।। | 5-198-1a 5-198-1b |
ततः क्रुद्धो महाबाहुर्भीमसेनोऽभ्यभाषत। कुत्सयन्निव कौन्तेयमर्जुनं भरतर्षभ।। | 5-198-2a 5-198-2b |
मुनिर्यथाऽरण्यगतो भाषते धर्मसंहितम्। न्यस्तदण्डो यथा पार्थं ब्राह्मणः संशितव्रतः।। | 5-198-3a 5-198-3b |
क्षतत्राता क्षताज्जीवन्क्षन्ता स्त्रीष्वपि साधुषु। क्षत्रियः क्षितिमाप्नोति क्षिप्रं धर्मं यशः श्रियः।। | 5-198-4a 5-198-4b |
स भवान्क्षत्रियगुणैर्युक्तः सर्वैः कुलोद्वहः। अविपश्चिद्यथा वाचं व्याहरन्नाद्य शोभसे।। | 5-198-5a 5-198-5b |
पराक्रमस्ते कौन्तेय शक्रस्येव शचीपतेः। न चातिवर्तसे धर्मं वेलामिव महोदधिः।। | 5-198-6a 5-198-6b |
न पूजयेत्त्वां कोन्वद्य यत्त्रयोदशवार्षिकम्। अमर्षं पृष्ठतः कृत्वा धर्ममेवाभिकाङ्क्षसे।। | 5-198-7a 5-198-7b |
दिष्ट्या तात मनस्तेऽद्य स्वधर्ममनुवर्तते। आनृशंस्ये च ते दिष्ट्या बुद्धिः सततमच्युत।। | 5-198-8a 5-198-8b |
यत्तु धर्मप्रवृत्तस्य हृतं राज्यमधर्मतः। द्रौपदी च परामृष्टा सभामानीय शत्रुभिः।। | 5-198-9a 5-198-9b |
वनं प्रव्राजिताश्चास्म वल्कलाजिनवाससः। अनर्हमाणास्तं भावं त्रयोदश समाः परैः।। | 5-198-10a 5-198-10b |
`बहूनि क्षाम्य शत्रूणां सत्यधर्मरता वयम्। तथा तन्मर्षयित्वा तु यथा ते उत्पथे स्थिताः'।। | 5-198-11a 5-198-11b |
एतान्यमर्षस्थानानि मर्षितानि त्वयाऽघन। क्षत्रधर्मप्रसक्तेन सर्वमेतदनुष्ठितम्।। | 5-198-12a 5-198-12b |
तमधर्ममपाकृष्टं स्मृत्वाऽद्य सहितस्त्वया। सानुबन्धान्हनिष्यामि क्षुद्रान्राज्यहरानहम्।। | 5-198-13a 5-198-13b |
त्वया हि कथितं पूर्वं युद्धायाभ्यागता वयम्। घटामहे यथाशक्ति त्वं तु नोऽद्य जुगुप्ससे।। | 5-198-14a 5-198-14b |
स्वधर्मं नेच्छसे ज्ञातुं वृथा वचनमेव ते। भयार्दितानामस्माकं वाचा मर्माणि कृन्तसि।। | 5-198-15a 5-198-15b |
वपन्व्रणे क्षारमिव क्षतानां शत्रुकर्शन। विदीर्यते मे हृदयं त्वया वाक्शल्यपीडितम्।। | 5-198-16a 5-198-16b |
अधर्ममेन विपुलं धार्मिकः सन्न बुध्यसे। यत्त्वमात्मानमस्मांश्च प्रशंस्यान्न प्रशंससि।। | 5-198-17a 5-198-17b |
वासुदेवे स्थिते चापि द्रोणपुत्रं प्रशंससि। यः कलां षोडशीं पूर्णां धनञ्जय न तेऽर्हति।। | 5-198-18a 5-198-18b |
स्वयमेवात्मनो दोषान्ब्रुवाणः किं न लज्जसे।। | 5-198-19a |
`मम नागायुतं पार्थ बलं बाह्वोर्विधीयते'। दारयेयं महीं क्रोधाद्विकिरेयं च पर्वतान्।। | 5-198-20a 5-198-20b |
आविध्यैतां गदां गुर्वी भीमां काञ्चनमालिनीम्। गिरिप्रकाशान्क्षितिजान्भञ्जेयमनिलो यथा।। | 5-198-21a 5-198-21b |
द्रावयेयं शरैश्चापि सेन्द्रान्देवान्समागतान्। सराक्षसगणान्पार्थ सासुरोरगमानवान्।। | 5-198-22a 5-198-22b |
स त्वमेवंविधं जानन्भ्रातरं मां नरर्षभ। द्रोणपुत्राद्भयं कर्तुं नार्हस्यमितविक्रम।। | 5-198-23a 5-198-23b |
अथवा तिष्ठ बीभत्सो सह सर्वैः सहोदरैः। अहमेनं गदापाणिर्जेष्याम्येको महाहवे।। | 5-198-24a 5-198-24b |
ततः पाञ्चालराजस्य पुत्रः पार्थमथाब्रवीत्। सङ्क्रुद्धमिव नर्दन्तं हिरण्यकशिपुर्हरिम्।। | 5-198-25a 5-198-25b |
धृष्टद्युम्न उवाच। | 5-198-26x |
बीभत्सो विप्रकर्माणि विहितानि मनीषिभिः। याजनाध्यापने दानं यथा यज्ञप्रतिग्रहौ।। | 5-198-26a 5-198-26b |
षष्ठमध्ययनं नाम तेषां कस्मिन्प्रतिष्ठितः। हतो द्रोणो मया ह्येवं किं मां पार्थ विगर्हसे।। | 5-198-27a 5-198-27b |
अपक्रान्तः स्वधर्माच्च क्षात्रधर्मं व्यपाश्रितः। अधर्मेण हतस्तस्मादस्त्रेण क्षुद्रकर्मकृत्।। | 5-198-28a 5-198-28b |
तथा मायां प्रयुञ्जानमसह्यं ब्राह्मणब्रुवम्। प्रतिमायी निहन्याद्यो न युक्तं पार्थ तत्र किम्।। | 5-198-29a 5-198-29b |
तस्मिंस्तथा मया शस्ते यदि द्रौणायनी रुषा। कुरुते भैरवं नादं तत्र किं मम हीयते।। | 5-198-30a 5-198-30b |
न चाद्भुतमिदं मन्ये यद्द्रौणिश्चात्र गर्जति। घातयिष्यति कौरव्यान्परित्रातुमशक्नुवन्।। | 5-198-31a 5-198-31b |
यच्च मां धार्मिको भूत्वा ब्रवीषि गुरुघातिनम्। तदर्थमहमुत्पन्नः पाञ्चाल्यस्य सुतोऽनलात्।। | 5-198-32a 5-198-32b |
यस्य कार्यमकार्यं वा युध्यतः स्यात्समं रणे। तं कथं ब्राह्मणं ब्रूयाः क्षत्रियं वा धनञ्जय।। | 5-198-33a 5-198-33b |
यो ह्यनस्त्रविदो हन्याद्ब्रह्मास्त्रैः क्रोधमूर्च्छितः। सर्वोपायैर्न स कथं वध्यः पुरुषसत्तम।। | 5-198-34a 5-198-34b |
विशेषात्पितृहन्ता मे न स वध्यः कथं मया। योऽयं पापः सुदुर्मेधा बान्धवान्युधि जघ्निवान्। तस्य विप्रब्रुववधे कथं पापं भवेन्मम'।। | 5-198-35a 5-198-35b 5-198-35c |
विधर्मिणं धर्मविद्भिः प्रोक्तं तेषां विषोपमम्। जानन्धर्मार्थतत्त्वज्ञ किं मामर्जुन गर्हसे।। | 5-198-36a 5-198-36b |
नृशंसः स मयाऽऽक्रम्य रथ एव निपातितः। तन्मामनिन्द्यं बीभत्सो किमर्थं नाभिनन्दसे।। | 5-198-37a 5-198-37b |
कालानलसमं पार्थ ज्वलार्कविषोपमम्। भीमं द्रोणशिरश्छिन्नं न प्रशंससि मे कथम्।। | 5-198-38a 5-198-38b |
योऽसौ ममैव नान्यस्य बान्धवान्युधि जघ्निवान्। छित्त्वाऽपि तस्य मूर्धानं नैवास्मि विगतज्वरेः।। | 5-198-39a 5-198-39b |
तच्च मे कृन्तते मर्म यन्न तस्य शिरो मया। निषादविषये क्षिप्तं जयद्रथशिरो यथा।। | 5-198-40a 5-198-40b |
अथावधश्च शत्रूणामधर्मः श्रूयतेऽर्जुन। क्षत्रियस्य हि धर्मोऽयं हन्याद्धन्येत वा पुनः।। | 5-198-41a 5-198-41b |
स शत्रुर्निहतः सङ्ख्ये मया धर्मेण पाण्डव। यथा त्वया हतः शूरो भगदत्तः पितुः सखा।। | 5-198-42a 5-198-42b |
पितामहं रणे हत्वा मन्यसे धर्ममात्मनः। मया शत्रौ हते कस्मात्पापे धर्मं न मन्यसे।। | 5-198-43a 5-198-43b |
सम्बन्धावनतं पार्थ न मां त्वं वक्तुमर्हसि। स्वगात्रकृतसोपानं निषण्णमिव दन्तिनम्।। | 5-198-44a 5-198-44b |
क्षमामि ते सर्वमेव वाग्व्यतिक्रममर्जुन। द्रौपद्या द्रौपदेयानां कृते नान्येन हेतुना।। | 5-198-45a 5-198-45b |
कुलक्रमागतं वैरं ममाचार्येण विश्रुतम्। तथा जानात्ययं लोको न यूयं पाण्डुनन्दनाः।। | 5-198-46a 5-198-46b |
नानृती पाण्डवो ज्येष्ठो नाहं वाऽधार्मिकोऽर्जुन। `न क्षत्रिय इति प्राहुर्यो न हन्ति रणाजिरे।। | 5-198-47a 5-198-47b |
पितरं वा गुरुं वाऽपि जिघांसु पुत्रशिष्ययोः। जिह्मेन वाऽप्यजिह्मेन हन्यादेवाविचारयन्।। | 5-198-48a 5-198-48b |
इत्युक्तं ब्रह्मणा पूर्वं क्षत्रियाणां द्विषद्वधे। तस्माच्छिष्येण निहतः शत्रुर्मे ब्राह्मणब्रुवः।। | 5-198-49a 5-198-49b |
यः क्षत्रियसुतो हन्यात्पितरं वा गुरुं च वा। अनिष्टं क्षत्रियो हन्यात्स वै क्षत्रिय उच्यते'। शिष्यद्रोही हतः पापो युध्यस्व विजयस्तव।। | 5-198-50a 5-198-50b 5-198-50c |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि नारायणास्त्रमोक्षपर्वणि अष्टनवत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 198 ।। |
5-198-25 हिरण्यकशिपुं हरिरिति क.ख.पाठः।। 5-198-198 अष्टनवत्यधिकशततमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-197 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-199 |