महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-108
दिखावट
← द्रोणपर्व-107 | महाभारतम् सप्तमपर्व महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-108 वेदव्यासः |
द्रोणपर्व-109 → |
|
द्रौपदेयैः शलवधः।। 1 ।। भीमसेनेनालम्बुसपराजयः।। 2 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-108-1x |
द्रौपदेयान्महेष्वासान्सौमदत्तिर्महायशाः। एकैकं पञ्चभिर्विद्व्वा पुनर्विव्याध सप्तभिः।। | 5-108-1a 5-108-1b |
ते पीडिता भृशं तेन रौद्रेण सहसा विभो। प्रमूढा नैव विविदुर्मृधे कृत्यं स्म किंचन।। | 5-108-2a 5-108-2b |
नाकुलिश्च शतानीकः सौमदत्तिं नरर्षभम्। द्वाभ्यां विद्व्वाऽनदद्वृष्टः शराभ्यां शत्रुकर्शनः।। | 5-108-3a 5-108-3b |
तथेतरे रणे यत्तास्त्रिभिस्त्रिभिरजिह्मगैः। विव्यधुः समरे तूर्णं सौमदत्तिममर्षणम्।। | 5-108-4a 5-108-4b |
स तान्प्रति महाराज पञ्च चिक्षेप सायकान्। एकैकं हृदि चाजघ्ने एकैकेन महायशाः।। | 5-108-5a 5-108-5b |
ततस्ते भ्रातरः पञ्च शरैर्विद्धा महात्मना। परिवार्य रणे वीरं विव्यधुः सायकैर्भृशम्।। | 5-108-6a 5-108-6b |
अर्जुनिस्तु हयांस्तस्य चतुर्भिर्निशितैः शरैः। प्रेषयामास सङ्क्रुद्धो यमस्य सदनं प्रति।। | 5-108-7a 5-108-7b |
भैमसेनिर्धनुश्छित्त्वा सौमदत्तेर्महात्मनः। ननाद बलवन्नादं विव्याध च शितैः शरैः।। | 5-108-8a 5-108-8b |
यौधिष्ठिरिर्ध्वजं तस्य च्छित्त्वा भूमावपातयत्। नाकुलिश्चाथ यन्तारं रथनीडादपाहरत्।। | 5-108-9a 5-108-9b |
साहदेविस्तु तं ज्ञात्वा भ्रातृभिर्विमुखीकृतम्। क्षुरप्रेण शिरो राजन्निचकर्त महात्मनः।। | 5-108-10a 5-108-10b |
तच्छिरो न्यपतद्भूतौ तपनीयविभूषितम्। अभासयद्रुणोद्देशं बालसूर्यसमप्रभम्।। | 5-108-11a 5-108-11b |
सौमदत्तेः शिरो दृष्ट्वा निपतत्तन्महात्मनः। वित्रस्तास्तावका राजन्प्रदुद्रुवुरनेकधा।। | 5-108-12a 5-108-12b |
अलम्बुसस्तु समरे भीमसेनं महाबलम्। योधयामस सङ्क्रुद्धो लक्ष्मणं रावणिर्यथा।। | 5-108-13a 5-108-13b |
सम्प्रयुद्धौ रमे दृष्ट्वा तावुभौ नरराक्षसौ। विस्मयः सर्वभूतानां भयं चासीत्सुदारुणम्।। | 5-108-14a 5-108-14b |
आर्श्यशृङ्गिं ततो भीमो नवभिर्निशितैः शरैः। विव्याध प्रहसन्राजन्राक्षसेन्द्रममर्षणम्।। | 5-108-15a 5-108-15b |
तद्रक्षः समरे विद्धं कृत्वा नादं भयावहम्। अभ्यद्रवत्ततो भीमं ये च तस्य पदानुगाः।। | 5-108-16a 5-108-16b |
स भीमं पञ्छभिर्विद्व्वा शरैः सन्नतपर्वभिः। भैमान्परिजघानाशु रथांस्त्रिशतमाहवे। पुनश्चतुःशतान्हत्वा भीमं विव्याध पत्रिणा।। | 5-108-17a 5-108-17b 5-108-17c |
सोऽतिविद्धस्तथा भीमो राक्षसेन महाबलः। निषसाद रथोपस्थे मूर्च्छयाऽभिपरिप्लुतः।। | 5-108-18a 5-108-18b |
प्रतिलभ्य ततः संज्ञां मारुतिः क्रोधमूर्च्छितः। विकृष्य कार्मुकं घोरं भारसाधनमुत्तमम्। अलम्बुसं शरैस्तीक्ष्णैरर्दयामास सर्वतः।। | 5-108-19a 5-108-19b 5-108-19c |
स विद्धो बहुभिर्बाणैर्नीलाञ्जनचयोपमः। शुशुभे सर्वतो राजन्प्रफुल्ल इव किंशुकः।। | 5-108-20a 5-108-20b |
स वध्यमानः समरे भीमचापच्युतैः शरैः। स्मरन्भ्रातृवधं चैव पाण्डवेन महात्मना। घोरं रूपमथो कृत्वा भीमसेनमभाषत।। | 5-108-21a 5-108-21b 5-108-21c |
तिष्ठेदानीं रणे पार्थ पश्य मेऽद्य पराक्रमम्।। बाको नाम सुदुर्बुद्धे राक्षसप्रवरो बली। | 5-108-22a 5-108-22b |
परोक्षं मम तद्वृत्तं यद्धाता मे हतस्त्वया।। | 5-108-23a |
सञ्जय उवाच। | 5-108-24x |
एवमुक्त्वा ततो भीममन्तर्धानं गतस्तदा। महता शरवर्षेण भृशं तं समवाकिरत्।। | 5-108-24a 5-108-24b |
भीमस्तु समरे राजन्नदृश्ये राक्षसे तदा। आकाशं पूरयामास शरैः सन्नतपर्वभिः।। | 5-108-25a 5-108-25b |
स वध्यमानो भीमेन निमेषाद्रथमास्थितः। जगाम धरणीं चैव क्षुद्रः खं सहसाऽगमत्।। | 5-108-26a 5-108-26b |
उच्चावचानि रूपाणि चकार सुबहूनि च। अणुर्बृहत्पुनः स्थूलो नादान्मुञ्चन्निवाम्बुदः।। | 5-108-27a 5-108-27b |
[निपेतुर्गगनाचत्चैव शरधाराः सहस्रशः। शक्तयः कणपाः प्रासाः शूलपट्टसतोमराः।। | 5-108-28a 5-108-28b |
शतघ्न्यः परिघाश्चैव भिण्डिपालाः परश्वथाः। शिलाः खङ्घा गुडाश्चैव ऋष्टीर्वज्राणि चैव ह।। | 5-108-29a 5-108-29b |
सा राक्षसविसृष्टा तु शस्त्रवृष्टिः सुदारुणा। जघान पाण्डुपुत्रस्य सैनिकान्रणमूर्धनि।।] | 5-108-30a 5-108-30b |
उच्चावचास्तथा वाचो व्याजहार समन्ततः। तेन पाण्डवसैन्यानां सूदिता युधि वारणाः।। | 5-108-31a 5-108-31b |
हयाश्च बहवो राजन्पत्तयश्च तथा पुनः। रथेभ्यो रथिनः पेतुस्तस्य नुन्नाः स्म सायकैः।। | 5-108-32a 5-108-32b |
शोणितोदां रथावर्तां हस्तिग्राहसमाकुलाम्। छत्रहंसां कर्दमिनीं बाहुपन्नगसङ्कुलाम्।। | 5-108-33a 5-108-33b |
नदीं प्रवर्तयामास रक्षोगणसमाकुलाम्। वहन्तीं बहुधा राजंश्चेदिपाञ्चालसृञ्जयान्।। | 5-108-34a 5-108-34b |
तं तथा समरे राजन्विचरन्तमभीतवत्। पाण्डवा भृशसंविग्नाः प्रापश्यंस्तस्य विक्रमम्।। | 5-108-35a 5-108-35b |
तावकानां तु सैन्यानां प्रहर्षः समजायत। वादित्रनिनदश्चोग्रः सुमहान्रोमहर्षणः।। | 5-108-36a 5-108-36b |
तं श्रुत्वा निनदं घोरं तव सैन्यस्य पाण्डवः। नामृष्यत यथा नागस्तलशब्दं समीरितम्।। | 5-108-37a 5-108-37b |
ततः क्रोधाभिताम्राक्षो निर्दहन्निव पावकः। सन्दधे त्वाष्ट्रमस्त्रं स स्वयं त्वष्टेव मारुतिः।। | 5-108-38a 5-108-38b |
ततः शरसहस्राणि प्रादुरासन्समन्ततः। तैः शरैस्तव सैन्यस्य विद्रवः सुमहानभूत्।। | 5-108-39a 5-108-39b |
तदस्त्रं प्रेरितं तेन भीमसेनेन संयुगे। राक्षसस्य महामायां हत्वा राक्षसमार्दयत्।। | 5-108-40a 5-108-40b |
स वध्यमानो बहुधा भीमसेनेन राक्षसः। सन्त्यज्य समरे भीमं द्रोणानीकमुपाद्रवत्।। | 5-108-41a 5-108-41b |
तस्मिंस्तु निर्जिते राजन्राक्षसेन्द्रे महात्मना। अनादयन्सिंहनादैः पाण्डवाः सर्वतो दिशम्।। | 5-108-42a 5-108-42b |
अपूजयन्मारुतिं च संहृष्टास्ते महाबलम्। प्रहादमिव दैतेया यथा शक्रं मरुद्गणाः।। | 5-108-43a 5-108-43b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे अष्टाधिकशततमोऽध्यायः।। 108 ।। |
5-108-12 सौमदत्तेः शलस्य।। 5-108-27 बृहत् बृहन्।। 5-108-28 कुण्डलितः पाठो ङ. झ.ञ. पुस्तकेषु दृश्यते।। 5-108-29 ऋष्टीः ऋष्टयः।। 5-108-108 अष्टाधिकशततमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-107 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-109 |