महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-083
दिखावट
← द्रोणपर्व-082 | महाभारतम् सप्तमपर्व महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-083 वेदव्यासः |
द्रोणपर्व-084 → |
|
जयद्रथवधस्य दुष्करत्वाशङ्किनो युधिष्ठिरस्य कृष्णेन समाश्वासनम्।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 5-83-1x |
सुखेन रजनी व्युष्टा कच्चित्ते मधुसूदन। कच्चिज्ज्ञानानि सर्वाणि प्रसन्नानि तवाच्युत।। | 5-83-1a 5-83-1b |
सञ्जाय उवाच। | 5-83-2x |
वासुदेवोऽपि तद्युक्तं प्रत्युवाच युधिष्ठिरम्। दर्शनादेव ते सौम्य न किञ्चिदशुभं मम।। | 5-83-2a 5-83-2b |
सञ्जय उवाच। | 5-83-3x |
ततश्च प्रकृतीः क्षत्ता न्यवेदयदुपस्थिताः। अनुज्ञातश्च राज्ञा स प्रावेशयत तं जनम्।। | 5-83-3a 5-83-3b |
विराटं भीमसेनं च धृष्टद्युम्नं च सात्यकिम्। चेदिपं धृष्टकेतुं च द्रुपदं च महारथम्।। | 5-83-4a 5-83-4b |
शिखण्डिनं यमौ चैव चेकितानं सकेकयम्। युयुप्सुं चैव कौरव्यं पाञ्चाल्यं चोत्तमौजसम्।। | 5-83-5a 5-83-5b |
युधामन्यु सुबाहुं च द्रौपदेयांश्च सर्वशः। एतांश्च सुहृदश्चान्यान्दर्शयामास पाण्डवम्।। | 5-83-6a 5-83-6b |
अनुज्ञाताश्च पार्थेन स्वासीना आसनेषु ते। सर्वेष्वथ परार्ध्येषु यथार्हं वन्द्य पाण्डवम्।। | 5-83-7a 5-83-7b |
एकस्मिन्नासने वीरावुपविष्टौ महाबलौ। कृष्णश्च युयुधानश्च वेद्यामिव हुताशनौ।। | 5-83-8a 5-83-8b |
ततो युधिष्ठिरस्तेषां शृण्वतां मधुसूदनम्। अब्रवीत्पुण्डरीकाक्षमाभाष्य मधुरं वचः।। | 5-83-9a 5-83-9b |
एकं त्वां वयमाश्रित्य सहस्राक्षमिवामराः। प्रार्थयामो जयं युद्धे शाश्वतानि सुखानि च।। | 5-83-10a 5-83-10b |
त्वं हि राज्यविनाशं च द्विषद्भिश्च निराक्रियाम्। क्लेशांश्च विविधान्कृष्ण सर्वांस्तानपि वेत्थ नः।। | 5-83-11a 5-83-11b |
त्वयि सर्वेश सर्वेषामस्माकं भक्तवत्सल। सुखमायत्तमत्यर्थं यात्रा च मधुसूदन।। | 5-83-12a 5-83-12b |
स तथा कुरु वार्ष्णेय यथा त्वयि मनो मम। अर्जुनस्य यथा सत्या प्रतिज्ञा स्याच्चिकीर्षिता।। | 5-83-13a 5-83-13b |
स भवांस्तारयत्वस्माद्दुःखामर्षमहार्णवात्। परां तितीर्षतामद्य प्लुवो नो भव माधव।। | 5-83-14a 5-83-14b |
नहि तत्कुरुते योधः कार्तवीर्यसमोऽपि यः। युधि यत्कुरुषे कृष्ण सारथ्यं त्वं समास्थितः।। | 5-83-15a 5-83-15b |
यथैव सर्वास्वापत्सु पासि वृष्णीञ्जनार्दन। तथैवास्मान्महाबाहो वृजिनात्त्रातुमर्हसि।। | 5-83-16a 5-83-16b |
त्वमगाधेऽप्लवे मग्नान्पाण्डवान्कुरुसागरे। समुद्धर प्लुवो भूत्वा शङ्खचक्रगदाधर।। | 5-83-17a 5-83-17b |
नमस्ते देवदेवेश सनातन विशातन। विष्णो जिष्णो हरे कृष्ण वैकुण्ठ पुरुषोत्तम।। | 5-83-18a 5-83-18b |
नारदस्त्वां समाचख्यौ पुराणमृषिसत्तमम्। वरदं शार्ङ्गिणं श्रेष्ठं तत्सत्यं कुरु माधव।। | 5-83-19a 5-83-19b |
इत्युक्तः पुण्डरीकाक्षो धर्मराजेन संसदि। तोयमेघस्वनो वाग्मी प्रत्युवाच युधिष्ठिरम्।। | 5-83-20a 5-83-20b |
वासुदेव उवाच। | 5-83-21x |
सामरेष्वपि लोकेषु सर्वेषु न तथाविधः। शरासनधरः कश्चिद्यथा पार्थो धनञ्जयः।। | 5-83-21a 5-83-21b |
वीर्यवानस्त्रसम्पन्नः पराक्रान्तो महाबलः। युद्धशौण्डः सदामर्षी तेजसा परमो नृणाम्।। | 5-83-22a 5-83-22b |
स युवा वृषभस्कन्धो दीर्घबाहुर्महाबलः। सिंहर्षभगतिः श्रीमान्द्विषतस्ते हनिष्यति।। | 5-83-23a 5-83-23b |
अहं च तत्करिष्यामि तथा कुन्तीसुतोऽर्जुनः। धार्तराष्ट्रस्य सैन्यानि धक्ष्यत्यग्निरिवेन्धनम्।। | 5-83-24a 5-83-24b |
अद्य तं पापकर्माणं क्षुद्रं सौभद्रघातिनम्। अपुनर्दर्शनं मार्गमिषुभिः क्षेप्स्यतेऽर्जुनः।। | 5-83-25a 5-83-25b |
तस्याद्य गृध्राः श्येनाश्च चण्डगोमायवस्तथा। भक्षयिष्यन्ति मांसानि ये चान्ये पुरुषादकाः।। | 5-83-26a 5-83-26b |
यद्यस्य देवा गोप्तारः सेन्द्राः सर्वे तथाऽप्यसौ। राजधानीं यमस्याद्य हतः प्राप्स्यति दुर्मतिः।। | 5-83-27a 5-83-27b |
निहत्य सैन्धवं जिष्णुरद्य त्वामुपयास्यति। विशोको विज्वरो राजन्भव शान्ति पुरस्कृतः।। | 5-83-28a 5-83-28b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि प्रतिज्ञापर्वणि त्र्यशीतितमोऽध्यायः।। 83 ।। |
5-83-11 निराक्रियामपसारणम्।। 5-83-12 यात्रा स्थितिः।। 5-83-16 वृजिनात् व्यसनात्।। 5-83-18 सनातन अनादिनिधन। विशा तन संहर्तः। कृष्ण संसारकर्षक। पुरुषोत्तम परमात्मन् ।। 5-83-22 युद्धशौण्डः युद्धप्रवीणः।। 5-83-83 त्र्यशीतितमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-082 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-084 |