महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-044
दिखावट
← द्रोणपर्व-043 | महाभारतम् सप्तमपर्व महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-044 वेदव्यासः |
द्रोणपर्व-045 → |
|
अभिमन्युपराक्रमवर्णनम्।। 1 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-44-1x |
सैन्धवेन निरुद्धेषु जयगृद्धिषु पाण्डुषु। सुघोरमभवद्युद्धं त्वदीयानां परैः सह।। | 5-44-1a 5-44-1b |
प्रविश्याथार्जुनिः सेनां सत्यसन्धो दुरासदः। व्यक्षोभयत तेजस्वी मकरः सागरं यथा।। | 5-44-2a 5-44-2b |
तं तथा शरवर्षेण छादयन्तमरिंदमम्। यथा प्रधानाः सौभद्रमभ्ययुः कुरुसत्तमाः।। | 5-44-3a 5-44-3b |
तेषां तस्य च सम्मर्दो दारुणः समपद्यत। सृजतां शरवर्षाणि प्रसक्तममितौजसाम्।। | 5-44-4a 5-44-4b |
रथव्रजेन संरुद्धस्तैरमित्रैस्तथाऽऽर्जुनिः। वृषसेनस्य यन्तारं हत्वा चिच्छेद कार्मुकम्।। | 5-44-5a 5-44-5b |
तं च विव्याध बलवांस्तस्य चाश्वानजिह्मगैः। वातायमानैस्तैरश्वैर्विसंज्ञोऽपहृतो रणात्।। | 5-44-6a 5-44-6b |
तेनान्तरेणाभिमन्योर्यन्तापासारयद्रथम्। रथव्रजास्ततो हृष्टाः साधुसाध्विति चुक्रुशुः।। | 5-44-7a 5-44-7b |
तं सिंहमिव सङ्क्रुद्धं प्रमथ्नन्तं शरैररीन्। आरादायान्तमभ्येत्य वसातीयोऽभ्ययाद्द्रुतम्।। | 5-44-8a 5-44-8b |
सोऽभिमन्युं शरैः षष्ट्या रुक्मपुङ्कैरवाकिरत्। अब्रवीच्च न मे जीवञ्जीवतो युधि मोक्ष्यसे।। | 5-44-9a 5-44-9b |
तमयस्मयवर्माणमिषुणा दूरपातिना। विव्याध हृदि सौभद्रः स पपात व्यसुः क्षितौ।। | 5-44-10a 5-44-10b |
वसातीयं हतं दृष्ट्वा क्रुद्धाः क्षत्रियपुङ्गवाः। परिवव्रुस्तदा राजंस्तव पौत्रं जिघांसवः।। | 5-44-11a 5-44-11b |
विष्फारयन्तश्चापानि नानारूपाण्यनेकशः। तद्युद्धमभवद्रौद्रं सौभद्रस्यारिभिः सह।। | 5-44-12a 5-44-12b |
तेषां शरान्सेष्वसनाञ्शरीराणि शिरांसि च। सकुण्डलानि स्रग्वीणि क्रुद्धश्चिच्छेद फाल्गुनिः।। | 5-44-13a 5-44-13b |
सखङ्गाः साङ्गुलित्राणाः सपट्टसपरश्वथाः। अदृश्यन्त भुजाश्छिन्ना हेमाभरणभूषिताः।। | 5-44-14a 5-44-14b |
स्रग्भिराभरणैर्वस्त्रैः पतितैर्विविधैर्ध्वजैः। वर्मभिश्चर्मभिर्हारैर्मुकुटैश्छत्रचामरैः।। | 5-44-15a 5-44-15b |
उपस्करैरधिष्ठानैरीषादण्डकबन्धुरैः। अक्षैर्विमथितैश्चक्रैर्भग्नैश्च बहुधा युगैः।। | 5-44-16a 5-44-16b |
अनुकर्षैः पताकाभिस्तथा सारथिवाजिभिः। रथैश्च भग्नैर्नागैश्च हतैः कीर्णाभवन्मही।। | 5-44-17a 5-44-17b |
निहतैः क्षत्रियैः शूरैर्नानाजनपदेश्वरैः। जयगृद्धैर्वृता भूमिर्दारुणा समपद्यत।। | 5-44-18a 5-44-18b |
दिशो विचरतस्तस्य सर्वाश्च प्रदिशस्तथा। रणेऽभिमन्योः क्रुद्धस्य रूपमन्तरधीयत।। | 5-44-19a 5-44-19b |
काञ्चनं यद्यदस्यासीद्वर्म चाभरणानि च। धनुषश्च शराणां च तदपश्याम केवलम्।। | 5-44-20a 5-44-20b |
तं तदा नाशकत्कश्चिच्चक्षुर्भ्यामभिवीक्षितुम्। आददानं शरैर्योधान्मध्ये सूर्यमिव स्थितम्।। | 5-44-21a 5-44-21b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि त्रयोदशदिवसयुद्धे चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः।। 44 ।। |
द्रोणपर्व-043 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-045 |