महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-009
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द्रोणमरणश्राविणो धृतराष्ट्रस्य तद्गुणानुवर्णनपूर्वकं शोचनम्।। 1 ।।
धृतराष्ट्र उवाच। | 5-9-1x |
किं कुर्वाणं रणे द्रोणं जघ्रुः पाण्डवसृञ्जयाः। तथा निपुणमस्त्रेषु सर्वशस्त्रभृतामपि।। | 5-9-1a 5-9-1b |
रथः पर्यपतद्वाऽस्य धनुर्वाऽशीर्यतास्यतः। प्रमत्तो वाऽभवद्दोणो यथा मृत्युमुपेयिवान्।। | 5-9-2a 5-1-2b |
कथं नु पार्षतस्तात शत्रुभिर्दुष्प्रधर्षणम्। किरन्तमिषुसङ्घातान्रुक्मपुङ्खाननेकशः।। | 5-9-3a 5-9-3b |
क्षिप्रहस्तं द्विजश्रेष्ठं कृतिनं चित्रयोधिनम्। दूरेषुपातिनं दान्तमस्त्रयुद्धेषु पारगम्।। | 5-9-4a 5-9-4b |
पाञ्चालपुत्रो न्यवधीद्दिव्यास्त्रधरमच्युतम्। कुर्वाणं दारुणं कर्म रणे यत्तं महारथम्।। | 5-9-5a 5-9-5b |
व्यक्तं हि दैवं बलवत्पौरुषादिति मे मतिः। यद्द्रोणो निहतः शूरः पार्षतेन महात्मना।। | 5-9-6a 5-9-6b |
अस्त्रं चतुर्विधं वीरे यस्मिन्नासीत्प्रतिष्ठितम्। तमिष्वस्त्रधराचार्यं द्रोणं शंससि मे हतम्।। | 5-9-7a 5-9-7b |
श्रुत्वा हतं रुक्मरथं वैयाघ्रपरिवारणम्। जातरूपपरिष्कारं नाद्य शोकमपानुदे।। | 5-9-8a 5-9-8b |
न नूनं परदुःखेन म्रियते कोऽपि सञ्जय। यत्र द्रोणमहं श्रुत्वा हतं जीवामि मन्दधीः। दैवमेव परं मन्ये नन्वनर्थं हि पौरुषम्।। | 5-9-9a 5-9-9b 5-9-9c |
अश्मसारमयं नूर्न हृदयं सुदृढं मम। यच्छ्रुत्वा निहतं द्रोणं शतधा न विदीर्यते।। | 5-9-10a 5-9-10b |
ब्राह्मे दैवे तथेष्वस्त्रे यमुपासन्गुणार्थिनः। ब्राह्मणा राजपुत्राश्च स कथं मृत्युना हृतः।। | 5-9-11a 5-9-11b |
शोषणं सागरस्येव मेरोरिव विसर्पणम्। पतनं भास्करस्येव न मृष्ये द्रोणपातनम्।। | 5-9-12a 5-9-12b |
दुष्टानां प्रतिषेद्धासीद्धार्मिकाणां च रक्षिता। योऽहासीत्कृपणस्यार्थे प्राणानपि परन्तपः।। | 5-9-13a 5-9-13b |
मन्दानां मम पुत्राणां जयाशा यस्य विक्रमे। बृहस्पत्युशनस्तुल्यो बुद्ध्या स निहतः कथम्।। | 5-9-14a 5-9-14b |
`गुणानां सर्वयोधानां स्थितिरासीन्महाद्युतिः। यं मृत्युर्वशगस्तिष्ठेत्स कथं मृत्युना हतः'।। | 5-9-15a 5-9-15b |
ते च शोणा बृहन्तोऽश्वाश्छन्ना जालैर्हिरण्मयैः। रथे वातजवा युक्ताः सर्वशस्त्रातिगा रणे।। | 5-9-16a 5-9-16b |
बलिनो हेषिणो दान्ताः सैन्धवाः साधुवाहिनः। दृढाः सङ्ग्राममध्येषु कच्चिदासन्न विह्वलाः।। | 5-9-17a 5-9-17b |
करिणां बृंहतां युद्धे शङ्खदुन्दुभिनिःस्वनैः। ज्याक्षेपशरवर्षाणां शस्त्राणां च सहिष्णवः।। | 5-9-18a 5-9-18b |
आशंसन्तः पराञ्जेतुं जितश्वासा जितव्यथाः। हयाः पराजिताः शीघ्रा भारद्वाजरथोद्वहाः।। | 5-9-19a 5-9-19b |
ते स्म रुक्मरथे युक्ता नरवीरसमास्थिताः। कथं नाभ्यतरंस्तात पाण्डवानामनीकिनीम्।। | 5-9-20a 5-9-20b |
जातरूपपरिष्करामास्थाय रथमुत्तमम्। भारद्वाजः किमकरोद्युधि सत्यपराक्रमः।। | 5-9-21a 5-9-21b |
विद्यां यस्योपजीवन्ति सर्वलोकधनुर्धराः। स सत्यसन्धो बलवान्द्रोणः किमकरोद्युधि।। | 5-9-22a 5-9-22b |
दिवि शक्रमिव श्रेष्ठं महामात्रं धनुर्भृताम्। के नु तं रौद्रकर्माणं युद्धे प्रत्युद्ययू रथाः।। | 5-9-23a 5-9-23b |
ननु रुक्मरथं दृष्ट्वा प्राद्रवन्ति स्म पाण्डवाः। दिव्यमस्त्रं विकुर्वाणं रणे तस्मिन्महाबलम्।। | 5-9-24a 5-9-24b |
उताहो सर्वसैन्येन धर्मराजः सहानुजः। पाञ्चालप्रग्रहो द्रोणं सर्वतः समवारयत्।। | 5-9-25a 5-9-25b |
नूनमावारयत्पार्थो रथिनोऽन्यानजिह्मगैः। ततो द्रोणं समहरत्पार्षतः पापकर्मकृत्।। | 5-9-26a 5-9-26b |
नह्यहं परिपश्यामि वधे कञ्चन शुष्मिणः। धृष्टद्युम्नादृते रौद्रात्पाल्यमानात्किरीटिना।। | 5-9-27a 5-9-27b |
`उताहो सर्वसैन्येन धर्मराजः सहानुजः। उत्सृज्य सर्वसैन्यानि द्रोणं तमभिदुद्रुवे'।। | 5-9-28a 5-9-28b |
तैर्वृतः सर्वतः क्षुद्रैः पाञ्चालापशदैस्ततः। केकयैश्चेदिकारूशैर्मत्स्यैरन्यैश्च भूमिपैः।। | 5-9-29a 5-9-29b |
व्याकुलीकृतमाचार्यं पिपीलैरुरगं यथा। कर्मण्यसुकरे सक्तं जघानेति मतिर्मम।। | 5-9-30a 5-9-30b |
योऽधीत्य चतुरो वेदान्साङ्गानाख्यानपञ्चमान्। ब्राह्मणानां प्रतिष्ठासीत्स्रोतसामिव सागरः।। | 5-9-31a 5-9-31b |
क्षत्रं च ब्रह्म चैवेह योऽभ्यतिष्ठत्परन्तपः। `दृप्तानां प्रतिषेद्धा च चक्षुरासीदचक्षुषाम्।। | 5-9-32a 5-9-32b |
अमर्षी चावलिप्तेषु धार्मिकेषु च धार्मिकः'। स कथं ब्राह्मणो वृद्धः शस्त्रेण वधमाप्तवान्।। | 5-9-33a 5-9-33b |
अमर्षिणा मर्षितवान्क्लिश्यमानान्सदा मया। अनर्हमाणान्कौन्तेयान्कर्मणस्तस्य तत्फलम्।। | 5-9-34a 5-9-34b |
यस्य कर्मानुजीवन्ति लोके सर्वधनुर्भृतः। स सत्यसन्धः सुकृती श्रीकामैर्निहतः कथम्।। | 5-9-35a 5-9-35b |
दिवि शक्र इव श्रेष्ठो महासत्वो महाबलः। स कथं निहतः पार्थैः क्षुद्रमत्स्यैर्यथा तिमिः।। | 5-9-36a 5-9-36b |
क्षिप्रहस्तश्च बलवान्दृढघन्वारिमर्दनः। न यस्य विजयाकाङ्क्षी विषयं प्राप्य जीवति।। | 5-9-37a 5-9-37b |
यं द्वौ न जहतः शब्दौ जीवमानं कदाचन। ब्राह्मश्च वेदकामानां ज्याघोषश्च धनुष्मताम्।। | 5-9-38a 5-9-38b |
अदीनं पुरुषव्याघ्रं हीमन्तमपराजितम्। तमिष्वासवराचार्ये द्रोणं जघ्नुः कथं रथाः।। | 5-9-39a 5-9-39b |
`नाहं मन्ये हतं द्रोणं स हि लोकमयोत्स्यत। को हि शक्तो रणे जेतुमनाधृष्ययशोबलम्।। | 5-9-40a 5-9-40b |
ब्रह्मकल्पो भवेद्ब्राह्मे क्षात्रे नारायणोपमः। ब्रह्मक्षत्रे च यस्यास्तां वशे स्थाणोरिवाखिले।। | 5-9-41a 5-9-41b |
सर्वान्हि मामकान्वीरान्सहाश्वरथकुञ्जरान्। युधिष्ठिरस्य तपसा हतान्मन्यामहे कुरून्'।। | 5-9-42a 5-9-42b |
कथं सञ्जय दुर्धर्षमनाधृष्ययशोबलम्। पश्यतां पुरुषेन्द्राणां समरे पार्षतोऽवधीत्।। | 5-9-43a 5-9-43b |
के पुरस्तादयुध्यन्त रक्षन्तो द्रोणमन्तिकात्। के नु पश्चादवर्तन्त गच्छतो दुर्गमां गतिम्।। | 5-9-44a 5-9-44b |
केऽरक्षन्दक्षिणं चक्रं सव्यं के च महात्मनः। पुरस्तात्के च वीरस्य युध्यमानस्य संयुगे।। | 5-9-45a 5-9-45b |
के च तस्मिंस्तनूस्त्यक्त्वा प्रतीपं मृत्युमाव्रजन्। द्रोणस्य समरे वीराः केऽकुर्वन्त परां धृतिम्।। | 5-9-46a 5-9-46b |
कच्चिन्नैनं भयान्मन्दाः क्षत्रिया व्यजहन्रणे। रक्षितारस्ततः शून्ये कच्चित्तैर्न हतः परैः।। | 5-9-47a 5-9-47b |
न स पृष्ठमरेस्त्रासाद्रणे शौर्यात्प्रदर्शयेत्। परामप्यापदं प्राप्य स कथं निहतः परैः।। | 5-9-48a 5-9-48b |
एतदार्येण कर्तव्यं कृच्छ्रास्वापत्सु सञ्जय। पराक्रमेद्यथा शक्त्या तच्च तस्मिन्प्रतिष्ठितम्। `यो यथाशक्ति युद्ध्येत द्विषद्भिःस्वांश्च पालयन्।। | 5-9-49a 5-9-49b 5-9-49c |
कच्चिन्नैनं भयात्क्षुद्राः पार्थेभ्यः प्रददू रणे। गोप्तृभिस्तैः समुत्सृष्टः कच्चिन्नैष परैर्हतः।। | 5-9-50a 5-9-50b |
धृष्टद्युम्नं प्रपश्यामि निघ्नन्तमिव ब्राह्मणम्। वार्यमाणं रणे तात द्रौणिनाऽमिततेजसा'।। | 5-9-51a 5-9-51b |
मुह्यते मे मनस्तात कथा तावन्निवार्यताम्। भूयस्तु लब्धसंज्ञस्त्वां परिपृच्छामि सञ्जय।। | 5-9-52a 5-9-52b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणाभिषेकपर्वणि नवमोऽध्यायः।। 9 ।। |
5-9-2 अस्यतः शरानिति शेषः।। 5-9-17 बलिनस्तेजस्विनः।। 5-9-23 महामात्रं प्रधानम्।। 5-9-25 पाञ्चालम्प्रग्रहः पाञ्जालः प्रग्रहो बन्धरजुर्यस्य 5-9-27 शुष्मिणस्तेजस्विनः।। 5-9-21 अपशदोऽधमः।। 5-9-31 आख्यानं पुराणभारतादि।। 5-9-9 नवमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-008 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-010 |