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महाभारतम्-05-उद्योगपर्व-071

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महाभारतम्-05-उद्योगपर्व-071
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युधिष्ठिरेण श्रीकृष्णंप्रति सन्ध्यर्थं हास्तिनपुरगामनप्रार्थनासूचकवचनोपन्यासः ।। 1 ।। श्रीकृष्णेन तत्र स्वस्य गमनकथनम् ।। 2 ।।



` जनमेजय उवच।

5-71-1x

प्रयाते सञ्जये साधौ कौरवान्प्रति वै तदा।
किं चक्रुः पाण्डवास्तत्र मम पूर्वपितामहाः ।।

5-71-1a
5-71-1b

एतत्सर्वं द्विजश्रेष्ठ विस्तरं मम सत्तम।
कथयस्व प्रयत्नेन श्रोतुमिच्छामि पण्डित ।।

5-71-2a
5-71-2b

वैशंपायन उवाच।

5-71-3x

सञ्जये प्रतियाते तु धर्मराजो युधिष्ठिरः।
अर्जुनं भीमसेनं च माद्रीपुत्रौ च भारत ।।

5-71-3a
5-71-3b

विराटं द्रुपदं चैव केकयानां महारथान्।
अब्रुवीदुपसङ्गम्य शङ्खचक्रगदाधरम् ।
अभियाचामहे गत्वा प्रयातुं कुरुसंसदम् ।।

5-71-4a
5-71-4b
5-71-4c

यथा भीष्मेण द्रोणेन बाह्लीकेन च धीमता।
अन्यैश्च कुरुभिः सार्धं न युध्येमहि संयुगे ।।

5-71-5a
5-71-5b

एष नः प्रथमः कल्प एतन्निश्रेय उत्तमम् ।
एवमुक्ताः सुमनसस्तेऽभिजग्मुर्जनार्दनम् ।।

5-71-6a
5-71-6b

पाण्डवैः सह राजानो मरुत्वन्त इवामराः।
तदा च दुःसहाः सर्वे सदस्यास्ते नरर्षभाः ।।

5-71-7a
5-71-7b

जनार्दनं समासाद्य कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ।
अब्रवीत्परवीरध्नं दाशार्हं पाण्डुनन्दनः ।।'

5-71-8a
5-71-8b

अयं स कालः संप्राप्तो मित्राणां मित्रवत्सल ।
न च त्वदन्यं पश्यामि यो न आपत्सु तारयेत् ।।

5-71-9a
5-71-9b

त्वां हि माधवमाश्रित्य निर्भया मोघदर्पितम् ।
धार्तराष्ट्रं सहामात्यं स्वयं समनुयुङ्क्ष्महे ।।

5-71-10a
5-71-10b

यथा हि सर्वास्वापत्सु पासि वृष्णीनरिन्दम्।
तथा ते पाण्डवा रक्ष्याः पाह्यस्मान्महतो भयात् ।।

5-71-11a
5-71-11b

श्रीभगवानुवाच।

5-71-12x

अयमस्मि महाबाहो ब्रूहि यत्ते विवक्षितम् ।
करिष्यामि हि तत्सर्वं यत्त्वं वक्ष्यसि भारत ।।

5-71-12a
5-71-12b

युधिष्ठिर उवाच।

5-71-13x

श्रुतं ते धृतराष्ट्रस्य सपुत्रस्य चिकीर्षितम्।
एतद्धि सकलं कृष्ण सञ्जयो मां यदब्रवीत् ।।

5-71-13a
5-71-13b

` मृदुपूर्वं साममिश्रं सममुग्रं च माधव ।
न कतृं न्यायमास्थाय गर्हिताश्च ततो वयम् ।।'

5-71-14a
5-71-14b

तन्मतं धृतराष्ट्रस्य सोऽस्यात्मा विवृतान्तरः।
यथोक्तं दूत आचष्टे वध्यः स्यादन्यथा ब्रुवन् ।।

5-71-15a
5-71-15b

अप्रदानेन राज्यस्य शान्तिमस्मासु मार्गति।
लुब्धः पापेन मनसा चरन्नसममात्मनः ।।

5-71-16a
5-71-16b

यत्तद्द्वादशवर्षाणि वनेषु ह्युषिता वयम्।
छद्मना शरदं चैकां धृतराष्ट्रस्य शासनात् ।।

5-71-17a
5-71-17b

स्थाता नः समये तस्मिन्धृतराष्ट्र इति प्रभो।
नाहास्म समयं कृष्ण तद्धि नो ब्राह्मणा विदुः ।।

5-71-18a
5-71-18b

गृद्धो राजा धृतराष्ट्रः स्वधर्मं नानुपश्यति ।
वश्यत्वात्पुत्रगृद्धित्वान्मन्दस्यान्वेति शासनं ।।

5-71-19a
5-71-19b

सुयोधनमते तिष्ठन्राजाऽस्मासु जनार्दन।
मिथ्याचरति लुब्धः संश्चरन्हि प्रियमात्मनः ।।

5-71-20a
5-71-20b

इतो दुःखतरं किं नु यदहं मातरं ततः।
संविधातुं न शक्नोमि मित्राणां वा जनार्दन ।।

5-71-21a
5-71-21b

काशिभिश्चेदिपाञ्चालैर्मत्स्यैश्च मधुसूदन।
भवता चैव नाथेन पञ्च ग्रामा वृता मया ।।

5-71-22a
5-71-22b

अविस्थलं वृकस्थलं माकन्दी वारणावतम्।
अवसानं च गोविन्द कंचिदेवात्र पञ्चम् ।।

5-71-23a
5-71-23b

पञ्च नस्तात दीयन्तां ग्रामा वा नगराणि वा।
वसेम सहिता येषु मा च नो भरता नशन् ।।

5-71-24a
5-71-24b

न च तानपि दुष्टात्मा धार्तराष्ट्रोऽनुमन्यते।
स्वाम्यमात्मनि मत्वाऽसावतो दुःखतरं नु किं ।।

5-71-25a
5-71-25b

कुले जातस्य वृद्धस्य परवित्तेषु गृद्ध्यतः।
लोभः प्रज्ञानमाहन्ति प्रज्ञा हन्ति हता ह्रियं ।।

5-71-26a
5-71-26b

ह्रीर्हता बाधते धर्मं धर्मो हन्ति हतः श्रियम् ।
श्रीर्हता पुरुषं हन्ति पुरुषस्याधं वधः ।।

5-71-27a
5-71-27b

अधनाद्धि निवर्तन्ते ज्ञातयः सुहृदो द्विजाः।
अपुष्पादफलाद्वृक्षाद्यथा कृष्ण पतत्रिणः ।।

5-71-28a
5-71-28b

एतच्च मरणं तात उन्मत्तपतितादिव।
ज्ञातयो विनिवर्तन्ते प्रेतसत्वादिवासवः ।।

5-71-29a
5-71-29b

नातः पापीयसीं कांचिदवस्थां शम्बरोऽब्रवीत् ।
यत्र नैवाऽद्य न प्रातर्भोजनं प्रतिदृश्यते ।।

5-71-30a
5-71-30b

धनमाहुः परं धर्मं धने सर्वं प्रतिष्ठितम्।
जीवन्ति धनिनो लोके मृता ये त्वधना नराः ।।

5-71-31a
5-71-31b

ये धनादपकर्षन्ति नरं स्वबलमास्थिताः।
ते धर्ममर्थं कामं च प्रमथ्नन्ति नरं च तम् ।।

5-71-32a
5-71-32b

एतामवस्थां प्राप्यैके मरणं वव्रिरे जनाः।
ग्रामायैके वनायैके नाशायैके प्रवव्रजुः ।।

5-71-33a
5-71-33b

उन्मादमेके पुष्यन्ति यान्त्यन्ये द्विषतां वशम्।
दास्यमेके च गच्छन्ति परेषामर्थहेतुना ।।

5-71-34a
5-71-34b

आपदेवास्य मरणात्पुरुषस्य गरीयसी।
श्रियो विनाशस्तद्ध्यस्य निमित्तं धर्मकामयोः ।।

5-71-35a
5-71-35b

यदस्य धर्म्यं मरणं शाश्वतं लोकवर्त्मवत्।
समन्तात्सर्वभूतानां न तदत्येति कश्चन ।।

5-71-36a
5-71-36b

न तथा बाध्यते कृष्ण प्रकृत्या निर्धनो जनः।
यथा भद्रां श्रियं प्राप्य तया हीनः सुखैधितः ।।

5-71-37a
5-71-37b

स तदाऽऽत्मापराधेन संप्राप्तो व्यसनं महत्।
सेन्द्रान्गर्हयते देवान्नात्मानं च कथंचन ।।

5-71-38a
5-71-38b

न चास्य सर्वशास्राणि प्रभवन्ति निबर्हणे ।
सोऽभिक्रुध्याति भृत्यानां सुहृदश्चाभ्यसूयति ।।

5-71-39a
5-71-39b

तत्तदा मन्युरेवैति स भूयः संप्रमुह्यति।
स मोहवशमापन्नः क्रूरं कर्म निषेवते ।।

5-71-40a
5-71-40b

पापकर्मतया चैव सङ्करं तेन पुष्यति।
सङ्करो नरकायैव सा काष्ठा पापकर्मणाम् ।।

5-71-41a
5-71-41b

न चेत्प्रबुध्यते कृष्ण नरकायैव गच्छति।
तस्य प्रबोधः प्रज्ञैव प्रज्ञाचक्षुस्तरिष्यति ।।

5-71-42a
5-71-42b

प्रज्ञालाभे हि पुरुषः शास्त्राण्येवान्ववेक्षते ।
शास्त्रनिष्ठः पुनर्धर्मं तस्य ह्रीरङ्गमुत्तमम् ।।

5-71-43a
5-71-43b

ह्रीमान्हि पापं प्रद्वेष्टि तस्य श्रीरभिवर्धते।
श्रीमान्स यावद्भवति तावद्भवति पूरुषः ।।

5-71-44a
5-71-44b

धर्मनित्यः प्रशान्तात्मा कार्ययोगवहः सदा।
नाधर्मे कुरुते बुद्धिं न च पापे प्रवर्तते ।।

5-71-45a
5-71-45b

अह्रीको वा विमूढो वा नैव स्त्री न पुनः पुमान्।
नास्याधिकारो धर्मेऽस्ति यथा शूद्रस्तथैव सः ।।

5-71-46a
5-71-46b

ह्रीमानवति देवांश्च पितॄनात्मानमेव च।
तेनामृतत्वं व्रजति सा काष्ठा पुण्यकर्मणाम् ।।

5-71-47a
5-71-47b

तदिदं मयि ते दृष्टं प्रत्यक्षं मधुसूदन।
यथा राज्यात्परिभ्रष्टो वसामि वसतीरिमाः ।।

5-71-48a
5-71-48b

ते वयं न श्रियं हातुमलं न्यायेन केनचित्।
अत्र नो यतमानानां वधश्चेदपि साधु तत् ।।

5-71-49a
5-71-49b

तत्र नः प्रथमः कल्पो यद्वयं ते च माधव।
प्रशान्ताः समभूताश्च श्रियं तामश्रुवीमहि ।।

5-71-50a
5-71-50b

तत्रैषा परमा काष्ठा रौद्रकर्मक्षयोदया।
यद्वयं कौरवान्हत्वा तानि राष्ट्राण्यवाप्नुमः ।।

5-71-51a
5-71-51b

ये पुनः स्युरसंबद्धा अनार्याः कृष्ण शत्रवः।
तेषामप्यवधः कार्यः किंपुनर्ये स्युरीदृशाः ।।

5-71-52a
5-71-52b

ज्ञातयश्चैव भूयिष्ठाः सहाया गुरवश्च नः।
तेषां वधोऽतिपापीयान्किं नु युद्धेऽस्ति शोभनम् ।।

5-71-53a
5-71-53b

पापः क्षत्रियधर्मोऽयं वयं च क्षत्रबन्धवः।
स नः स्वधर्मोऽधर्मो वा वृत्तिरन्या विगर्हिता ।।

5-71-54a
5-71-54b

शूद्रः करोति शुश्रूषां वैश्मा वै पण्यजीविकाः ।
वयं वधेन जीवामः कपालं ब्राह्मणैर्वृतम् ।।

5-71-55a
5-71-55b

क्षत्रियः क्षत्रियं हन्ति मत्स्यो मत्स्येन जीवति।
श्वा श्वानं हन्ति दाशार्ह पश्य धर्मो यथागतः ।।

5-71-56a
5-71-56b

युद्धे कृष्ण कलिर्नित्यं प्राणाः सीदन्ति संयुगे।
बलं तु नीतिमाधाय युध्ये जयपराजयौ ।।

5-71-57a
5-71-57b

नात्मच्छन्देन भूतानां जीवितं मरणं तथा।
नाप्यकाले सुखं प्राप्यं दुःखं वाऽपि यदूत्तम ।।

5-71-58a
5-71-58b

एको ह्यपि बहून्हन्ति घ्नन्त्येकं बहवोऽप्युत।
शूरं कापुरुषो हन्ति अयशस्वी यशस्विनम् ।।

5-71-59a
5-71-59b

जयो नैवोभयोर्दृष्टो नोभयोश्च पराजयः।
तथैवापचयो दृष्टो व्यपयाने क्षयव्ययौ ।।

5-71-60a
5-71-60b

सर्वथा वृजिनं युद्धं को ध्नन्न प्रतिहन्यते।
हतस्य च हृषीकेश समौ जयपराजयौ ।।

5-71-61a
5-71-61b

पराजयश्च मरणान्मन्ये नैव विशिष्यते।
यस्य स्याद्विजयः कृष्ण तस्यप्यपचयो ध्रुवम् ।।

5-71-62a
5-71-62b

अन्ततो दयितं ध्नन्ति केचिदप्यपरे जनाः ।
तस्याङ्गबलहीनस्य पुत्रान्भ्रातॄनपश्यतः ।।

5-71-63a
5-71-63b

निर्वेदो जीविते कृष्ण सर्वतश्चोपजायते।
ये ह्येव धीरा ह्रीमन्त आर्याः करुणवेदिनः ।।

5-71-64a
5-71-64b

त एव युद्धे हन्यन्ते यवीयान्मुच्यते जनः।
हत्वाऽप्यनुशयो नित्यं परानपि जनार्दन ।।

5-71-65a
5-71-65b

अनुबद्धश्च पापोऽत्र शेषश्चाप्यवशिष्यते।
शेषो हि बलमासाद्य न शेषमनुशेषयेत् ।।

5-71-66a
5-71-66b

सर्वोच्छेदे च यतते वैरस्यान्तविधित्सया।
जयो वैरं प्रसृजति दुःखमास्ते पराजितः ।।

5-71-67a
5-71-67b

सुखं प्रशान्तः स्वपिति हित्वा जयपराजयौ ।
जातवैरश्च पुरुषो दुःखं स्वपिति नित्यदा ।।

5-71-68a
5-71-68b

अनिर्वृत्तेन मनसा ससर्प इव वेश्मनि।
उत्सादयति यः सर्वं यशसा स विमुच्यते ।।

5-71-69a
5-71-69b

अकीर्तिं सर्वभूतेषु शाश्वतीं स नियच्छति।
न हि वैराणि शाम्यन्ति दीर्घकालधृतान्यपि ।।

5-71-70a
5-71-70b

आख्यातारश्च विद्यन्ते पुमांश्चेद्विद्यते कुले।
न चापि वैरं वैरेण केशव व्युपशाम्यति ।।

5-71-71a
5-71-71b

हविषाऽग्निर्यथा कृष्ण भूय एवाभिवर्धते।
अतोऽन्यथा नास्ति शान्तिर्नित्यमन्तरमन्ततः ।।

5-71-72a
5-71-72b

अन्तरं लिप्समानानामयं दोषो निरन्तरः ।
पौरुषे यो हि बलवानाधिर्हृदयबाधनः।
तस्य त्यागेन वा शान्तिर्मरणेनापि वा भवेत् ।।

5-71-73a
5-71-73b
5-71-73c

अथवा मूलघातेन द्विषतां मधुसूदन ।
फलनिर्वृत्तिरिद्धा स्यात्तन्नृशंसतरं भवेत् ।।

5-71-74a
5-71-74b

या तु त्यागेन शान्तिः स्यात्तदृते वध एव सः।
संशयाच्च समुच्छेदाद्द्विषतामात्मनस्तथा ।।

5-71-75a
5-71-75b

न च त्यक्तुं तदिच्छामो न चेच्छामः कुलक्षयम्।
अत्र या प्रणिपातेन शान्तिः सैव गरीयसी ।।

5-71-76a
5-71-76b

सर्वथा यतमानानामयुद्धमभिकाङ्क्षताम्।
सान्त्वे प्रतिहते युद्धं प्रसिद्धं नापराक्रमः ।।

5-71-77a
5-71-77b

प्रतिघातेन सान्त्वस्य दारुणं संप्रवर्तते।
तच्छुनामिव संपाते पण्डितैरुपलक्षितम्।।

5-71-78a
5-71-78b

लाङ्गूलचालनं क्ष्वेडा प्रतिवाचो विवर्तनम् ।
दन्तदर्शनमारावस्ततो युद्धं प्रवर्तते ।।

5-71-79a
5-71-79b

तत्र यो बलवान्कृष्ण जित्वा सोत्ति तदामिषम्।
एवमेव मनुष्येषु विशेषो नास्ति कश्चन ।।

5-71-80a
5-71-80b

सर्वथा त्वेतदुचितं दुर्बलेषु बलीयसाम्।
अनादरो विरोधश्च प्रणिपाती हि दुर्बलः ।।

5-71-81a
5-71-81b

पिता राजा च वृद्धश्च सर्वथा मानमर्हति।
तस्मान्मान्यश्च पूज्यश्च धृतराष्ट्रो जनार्दन ।।

5-71-82a
5-71-82b

पुत्रस्नेहश्च बलवान्धृतराष्ट्रस्य माधव ।
स पुत्रवशमापन्नः प्रणिपातं प्रहास्यति ।।

5-71-83a
5-71-83b

तत्र किं मन्यसे कृष्ण प्राप्तकालमनन्तरम् ।
कथमर्थाच्च धर्माच्च न हीयेमहि माधव ।।

5-71-84a
5-71-84b

ईदृशेऽत्यर्थकृच्छ्रेऽस्मिन्कमन्यं मधुसूदन।
उपसंप्रष्टुमर्हामि त्वामृते पुरुषोत्तम ।।

5-71-85a
5-71-85b

प्रियश्च प्रियकामश्च गतिज्ञः सर्वकर्मणाम्।
को हि कृष्णास्ति नस्त्वादृक्सर्वनिश्चयवित्सुहृत् ।।

5-71-86a
5-71-86b

वैशंपायन उवाच।

5-71-87x

एवमुक्तः प्रत्युवाच धर्मराजं जनार्दनः ।
उभयोरेव वामर्थे यास्यामि कुरुसंसदम्।।

5-71-87a
5-71-87b

शमं तत्र लभेयं चेद्युष्मदर्थमहापयन् ।
पुण्यं मे सुमहद्राजंश्चरितं स्यान्महाफलम् ।।

5-71-88a
5-71-88b

मोचयेयं मृत्युपाशात्संरब्धान्कुरुसृञ्जयान्।
पाण्डवान्धार्तराष्ट्रांश्च सर्वां च पृथिवीमिमाम् ।।

5-71-89a
5-71-89b

युधिष्ठिर उवाच।

5-71-90x

न ममैतन्मतं कृष्ण यत्त्वं यायाः कुरून्प्रति ।
सुयोधनः सूक्तमपि न करिष्यति ते वचः ।।

5-71-90a
5-71-90b

समेतं पार्थिवं क्षत्रं दुर्योधनवशानुगम्।
तेषां मध्यावतरणं तव कृष्ण न रोचये ।।

5-71-91a
5-71-91b

न हि नः प्रीणयेद्द्रव्यं न देवत्वं कुतः सुखम्।
न च सर्वामरैश्वर्यं तव द्रोहेण माधव ।।

5-71-92a
5-71-92b

श्रीभगवानुवाच।

5-71-93x

जानाम्येतां महाराज धार्तराष्ट्रस्य पापताम्।
अवाच्यास्तु भविष्यामः सर्वलोके महीक्षितां ।।

5-71-93a
5-71-93b

न चापि मम पर्याप्ताः सहिताः सर्वपार्थिवाः ।
क्रुद्धस्य संयुगे स्थातुं सिंहस्येवेतरे मृगाः ।

5-71-94a
5-71-94b

अथ चेत्ते प्रवर्तेरन्मयि किंचिदसांप्रतम्।
निर्दहेयं कुरून्सर्वानिति मे धीयते मतिः ।।

5-71-95a
5-71-95b

न जातु गमनं पार्थ भवेत्तत्र निरर्थकम् ।
अर्थप्राप्तिः कदाचित्स्यादन्ततो वाप्यवाच्यता

5-71-96a
5-71-96b

` एवमुक्तः प्रत्युवाच धर्मराजो जनार्दनम् ।
भातॄणां समवेतानां सकाशे पुरुषोत्तमम् ' ।।

5-71-97a
5-71-97b

युधिष्ठिर उवाच।

5-71-98x

यत्तुभ्यं रोचते कृष्ण स्वस्ति प्राप्नुहि कौरवान्।
कृतार्थं स्वस्तिमन्तं त्वां द्रक्ष्यामि पुनरागतम् ।।

5-71-98a
5-71-98b

विष्वक्सेन कुरून्गत्वा भरताञ्शमयन्प्रभो।
यथा सर्वे सुमनसः सह स्याम सुचेतसः ।।

5-71-99a
5-71-99b

भ्राता चासि सखा चासि बीभत्सोर्मम च प्रियः।
सौहृदेनाविशङ्ख्योऽसि स्वस्ति प्राप्नुहि भूतये ।।

5-71-100a
5-71-100b

अस्मान्वेत्थ परान्वेत्थ वेत्थार्थान्वेत्थ भाषितुम्।
यद्यदस्मद्धितं कृष्ण तत्तद्वाच्यः सुयोधनः ।।

5-71-101a
5-71-101b

यद्यद्धर्मेण संयुक्तमुपपद्येद्धितं वचः।
तत्तत्केशव भाषेथाः सान्त्वं वा यदि वेतरत् ।।

5-71-102a
5-71-102b

।। इति श्रीमन्महाभारते उद्योगपर्वणि
भगवद्यानपर्वणि एकसप्ततितमोऽध्यायः ।।

5-71-10 अनुयुह्क्ष्महे प्रार्थयामहे ।। 5-71-15 विवृतान्तरः प्रकाशित्तभावः ।। 5-71-17 छद्मनः अज्ञातचर्यया ।। 5-71-18 स्थातास्थास्यति । नः अस्माकम्। तस्मिन् चतुर्दशे दर्षे स्वं राज्यं गृह्णीतेत्यस्मिन्। न अहास्म न त्यक्तवन्तो वयम्।। 5-71-21 मातरं संविधातुं सम्यक् पोषयितुम्। मित्राणां कर्मणिषष्ठी ।। 5-71-23 अवसीयते संस्थीयतेऽस्मिन्नित्यवसानम् यावज्जीवकं वासस्थानम् ।। 5-71-24 नः अस्माकं कृते भरताः भरतवंश्या भीष्मादयः मानशन् मानश्यन्तु ।। 5-71-28 द्विजाः अर्थिनः ।। 5-71-29 प्रेतसत्वात् प्रगतबुद्धेर्मृतादित्यर्थः ।। 5-71-31 धर्मं धर्मकारणम्। सर्वं यज्ञदानादि ।। 5-71-35 आपत्पदार्थमाह श्रियो विनाश इति। तद्धि श्रीर्हि ।। 5-71-40 तत्तदा सर्वदेत्यर्थः ।। 5-71-48 इदं ह्रीमन्तं । ते त्वया ।। 5-71-55 कपालं भिक्षापात्रम् ।। 5-71-57 नीतिमेव बलं कृत्वा युध्ये योत्स्ये। जयपराजयौ तु आत्मच्छन्देन स्वेच्छया न भवतः। तथा तद्वत् भूतानां जीवितं मरणं च स्वेच्छया न स्तः ।। 5-71-58 नीतिमेव बलं कृत्वा युध्ये योत्स्ये। जयपराजयौ तु आत्मच्छन्देन स्वेच्छया न भवतः। तथा तद्वत् भूतानां जीवितं मरणं च स्वेच्छया न स्तः ।। 5-71-65 अनुशयः पश्चात्तापः ।। 5-71-66 शेषः शत्रोः । शेषं स्वस्य ।। 5-71-69 अनिर्वृत्तेन अस्वस्थेन ।। 5-71-72 अत इति। यतः अन्तरं छिद्रं नित्यं अपरिहार्थं अतो हेतोः अन्ततोऽन्यथा स्वस्य शत्रोर्वा नाशं विना शान्तिर्नास्ति ।। 5-71-73 अयं दोषः नाशाख्यः ।। 5-71-74 इद्धा प्रदीप्ता ।। 5-71-75 त्यागेन राज्यस्येतिः शेषः। तदृते राज्यं विना। द्विषतां संशयात् किं शत्रवश्छिद्रे भ्रष्टश्छिद्रे प्रहरिष्यन्ति उत उपेक्षां करिष्यन्तीत्येवंरूपात् । आत्मनः भ्रष्टश्रीकस्य सद्यः समुच्छेदात् नाशसंभवात्। अतो राज्यत्यागो न युक्त इति भावः ।। 5-71-78 दारुणं युद्धम् तच्छुनामिव निन्द्यमित्यर्थः ।। 5-71-79 क्ष्वेडा ध्विकौटिल्यम्। विवर्तनं भूमौ लुष्ठनम्। दन्तदर्शनं मुखस्य व्यादानेन ।। 5-71-83 प्रहास्यति न स्वीकरिष्यति ।। 5-71-99 तथा वदेति शेषः ।।

उद्योगपर्व-070 पुटाग्रे अल्लिखितम्। उद्योगपर्व-072