महाभारतम्-05-उद्योगपर्व-154
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महाभारतस्य पर्वाणि |
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गुरुवधभयात् कर्तव्यमौढ्यमुपगतेन युधिष्ठिरेण कर्तव्यनिर्धारणप्रार्थना ।। 1 ।।
कृष्णेन युद्धकरणनिर्धारणम् ।। 2 ।।
पुनर्युधिष्ठिरस्य शङ्कायां अर्जुनेन कुन्तीविदुरवचनानुस्मारणेन तत्परिहरणम् ।। 3 ।।
वैशंपायन उवाच। | 5-154-1x |
वासुदेवस्य तद्वाक्यमनुस्मृत्य युधिष्ठिरः। | 5-154-1a 5-154-1b |
अस्मिन्नभ्यागते काले किंच नः क्षममच्युत । | 5-154-2a 5-154-2b |
दुर्योधनस्य कर्णस्य शकुनेः सौबलस्य च । | 5-154-3a 5-154-3b |
विदुरस्यापि तद्वाक्यं श्रुतं भीष्मस्य चोभयोः । | 5-154-4a 5-154-4b |
सर्वमेतदतिक्रम्य विचार्य च पुनः पुनः । | 5-154-5a 5-154-5b |
श्रुत्वैतद्धर्मराजस्य धर्मार्थसहितं वचः। | 5-154-6a 5-154-6b |
उक्तवानस्मि यद्वाक्यं धर्मार्थसहितं हितम्। | 5-154-7a 5-154-7b |
न च भीष्मस्य दुर्मेधाः शृणोति विदुरस्य वा। | 5-154-8a 5-154-8b |
नैष कामयते धर्मं नैष कामयते यशः । | 5-154-9a 5-154-9b |
बन्धमाज्ञापयामास मम चापि सुयोधनः । | 5-154-10a 5-154-10b |
न च भीष्मो न च द्रोणो युक्तं तत्राहतुर्वचः। | 5-154-11a 5-154-11b |
शकुनिः सौबलश्चैव कर्णदुःशासनावपि । | 5-154-12a 5-154-12b |
किंच तेन मयोक्तेन यान्यभाषत कौरवः । | 5-154-13a 5-154-13b |
पार्थिवेषु न सर्वेषु य इमे तव सैनिकाः। | 5-154-14a 5-154-14b |
न चापि वयमत्यर्थं परित्यागेन कर्हिचित्। | 5-154-15a 5-154-15b |
वैशंपायन उवाच। | 5-154-16x |
तच्छ्रुत्वा पार्थिवाः सर्वे वासुदेवस्य भाषितम्। | 5-154-16a 5-154-16b |
युधिष्ठिरस्त्वभिप्रायमभिलक्ष्य महीक्षिताम् । | 5-154-17a 5-154-17b |
ततः किलकिलाभूतमनीकं पाण्डवस्य ह। | 5-154-18a 5-154-18b |
अवध्यानां वधं पश्यन्धर्मराजो युधिष्ठिरः। | 5-154-19a 5-154-19b |
यदर्थं वनवासश्च प्राप्तं दुःखं च यन्मया। | 5-154-20a 5-154-20b |
यस्मिन्यत्नः कृतोऽस्माभिः स नो हीनः प्रयत्नतः। | 5-154-21a 5-154-21b |
कथं ह्यवध्यैः सङ्ग्रामः कार्यः सह भविष्यति। | 5-154-22a 5-154-22b |
वैशंपायन उवाच। | 5-154-23x |
तच्छ्रुत्वा धर्मराजस्य सव्यसाची परन्तपः। | 5-154-23a 5-154-23b |
उक्तवान्देवकीपुत्रः कुन्त्याश्च विदुरस्य च । | 5-154-24a 5-154-24b |
न च तौ वक्ष्यतोऽधर्ममिति मे नैष्ठिकी मतिः। | 5-154-25a 5-154-25b |
तच्छ्रुत्वा वासुदेवोऽपि सव्यसाचिवचस्तदा । | 5-154-26a 5-154-26b |
ततस्ते धृतसंकल्पा युद्धाय सह सैनिकाः। | 5-154-27a 5-154-27b |
।। इति श्रीमन्महाभारते |
5-154-13 युक्तं सम्यक् ।। 5-154-14 न कल्याणं अकल्याणं पापं अकल्याणं च त्वदीयेष्वविद्यमानं सर्वं तस्मिन् दुर्योधने प्रतिष्ठितम् ।। 5-154-15 परित्यागेन राज्यस्योपेक्षया शमं नेच्छामः ।। 5-154-17 योगं युद्धोद्योगम् ।। 5-154-20 यदर्थं यन्निवृत्त्यर्थम् । अनर्थः कुलक्षयः। प्रयत्नतो बलात् ।। 5-154-25 अयुध्यतस्तव निवर्तितुमपि न युक्तम् ।।
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