महाभारतम्-05-उद्योगपर्व-112
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महाभारतस्य पर्वाणि |
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गरुडवेगमसहमानेन गालवेन गुरुदक्षिणानर्पणेनैव स्वप्राणविमोक्षणशङ्कया परिशोचनम् ।। 1 ।।
गरुडेन गालवंप्रति प्रागेवाभिमतानिवेदनेन अकौशलाभिलपनपूर्वकं ऋषभाचले विश्रम्य पुनर्निवर्तनकीर्तनम् ।। 2 ।।
गालव उवाच। | 5-112-1x |
गरुत्मन्भुजगेन्द्रारे सुपर्ण विनतात्मज । | 5-112-1a 5-112-1b |
पूर्वमेतां दिशं गच्छ या पूर्वं परिकीर्तिता । | 5-112-2a 5-112-2b |
अत्र सत्यं च धर्मश्च त्वया सम्यक्प्रकीर्तितः। | 5-112-3a 5-112-3b 5-112-3c |
नारद उवाच। | 5-112-4x |
तमाह विनतासूनुरारोहस्वेति वै द्विजम्। | 5-112-4a 5-112-4b |
गालव उवाच। | 5-112-5x |
क्रममाणस्य ते रूपं दृश्यते पन्नगाशन। | 5-112-5a 5-112-5b |
पक्षवातप्रणुन्नानां वृक्षाणामनुगामिनाम् । | 5-112-6a 5-112-6b |
ससागरवनामुर्वी सशैलवनकाननाम् । | 5-112-7a 5-112-7b |
समीननागनक्रं च खमिवारोप्यते जलम्। | 5-112-8a 5-112-8b |
तुल्यरूपाननान्मत्स्यांस्तथा तिमितिमिङ्गिलान् । | 5-112-9a 5-112-9b |
महार्णवस्य च रवैः श्रोत्रे मे बधिरे कृते। | 5-112-10a 5-112-10b |
शनैः स तु भवात्यातु ब्रह्मवध्यामनुस्मरन् । | 5-112-11a 5-112-11b |
तम एव तु पश्यामि शरीरं ते न लक्षये । | 5-112-12a 5-112-12b |
शरीरं तु न पश्यामि तव चैवात्मनश्च ह। | 5-112-13a 5-112-13b |
स मे निर्वाप्य सहसा चक्षुषी शाम्यते पुनः। | 5-112-14a 5-112-14b |
न मे प्रयोजनं किंचिद्गमने पन्नगाशन । | 5-112-15a 5-112-15b |
गुरवे संश्रुतानीह शतान्यष्टौ हि वाजिनाम् । | 5-112-16a 5-112-16b |
तेषां चैवापवर्गाय मार्गं पश्यामि नाण्डज। | 5-112-17a 5-112-17b |
नैव मेऽस्ति धनं किंचिन्न धनेनान्वितः सुहृत् । | 5-112-18a 5-112-18b |
नारद उवाच। | 5-112-19x |
एवं बहु च दीनं च ब्रुवाणं गालवं तदा। | 5-112-19a 5-112-19b |
नातिप्रज्ञोऽसि विप्रर्षे योत्मानं त्युक्तुमिच्छसि । | 5-112-20a 5-112-20b |
किमहं पूर्वमेवेह भवता नाभिचोदितः। | 5-112-21a 5-112-21b |
तदेष ऋषभो नाम पर्वतः सागरान्तिके। | 5-112-22a 5-112-22b |
।। इति श्रीमन्महाभारते उद्योगपर्वणि |
5-112-12 मणी वेति इवार्थे वशब्दः ।। 5-112-14 निर्वाप्य मन्दीकृत्य ।। 5-112-15 संनिवर्त निवर्तस्व ।। 5-112-20 योत्मानं संधिरार्षः। कृत्रिमः स्वेच्छासंपाद्यः । कालो मृत्युः ।।
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