महाभारतम्-05-उद्योगपर्व-018
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इन्द्रेण पुनर्देवलोकमेत्य त्रैलोक्यराज्यपालनम् ।। 1 ।। शल्येन इन्द्रवत्तान्तकथनपूर्वकं युधिष्ठिरादीनाश्वास्य पुनर्दुर्योधनसमीपगमनम् ।। 2 ।।
शल्य उवाच। | 5-18-1x |
ततः शक्रः स्तूयमानो गन्धर्वाप्सरसां गणैः। | 5-18-1a 5-18-1b |
पावकः सुमहातेजा महर्षिश्च बृहस्पतिः। | 5-18-2a 5-18-2b |
सर्वैर्देवैः परिवृतः शक्रो वृत्रनिषूदनः । | 5-18-3a 5-18-3b |
स समेत्य महेन्द्राण्या देवराजः शतक्रतुः। | 5-18-4a 5-18-4b |
ततः स भगवांस्तत्र अङ्गिराः समदृश्यत। | 5-18-5a 5-18-5b |
ततस्तु भगवानिन्द्रः संहृष्टः समपद्यत। | 5-18-6a 5-18-6b |
अथर्वाङ्गिरसं नाम वेदेऽस्मिन्वै भविष्यति। | 5-18-7a 5-18-7b |
एवं संपूज्य भगवानथर्वाङ्गिरसं तदा। | 5-18-8a 5-18-8b |
संपूज्य सर्वांस्त्रिदशानृषींश्चापि तपोधनान्। | 5-18-9a 5-18-9b |
एवं दुःखमनुप्राप्तमिन्द्रेण सह भार्यया। | 5-18-10a 5-18-10b |
नात्र मन्युस्त्वया कार्यो यत्क्लिष्टोऽसि महावने। | 5-18-11a 5-18-11b |
एवं त्वमपि राजेन्द्र राज्यं प्राप्स्यसि भारत। | 5-18-12a 5-18-12b |
दुराचारश्च नहुषो ब्रह्वद्विट् पापचेतनः। | 5-18-13a 5-18-13b |
एवं तव दुरात्मानः शत्रवः शत्रुसूदन । | 5-18-14a 5-18-14b |
ततः सागरपर्यन्तां भोक्ष्यसे मेदिनीमिमाम्। | 5-18-15a 5-18-15b |
उपाख्यानमिदं शक्रविजयं वेदसंमितम् । | 5-18-16a 5-18-16b |
तस्मात्संश्रावयामि त्वां विजयं जयतां वर। | 5-18-17a 5-18-17b |
क्षत्रियाणामभावोयं युधिष्ठिर महात्मनाम्। | 5-18-18a 5-18-18b 5-18-18c |
आख्यानमिन्द्रविजयं य इदं नियतः पठेत्। | 5-18-19a 5-18-19b |
न चारिजं भयं तस्य नापुत्रो वा भवेन्नरः। | 5-18-20a 5-18-20b 5-18-20c |
वैशंपायन उवाच। | 5-18-21x |
एवमाश्वासितो राजा शल्येन भरतर्षभ । | 5-18-21a 5-18-21b |
श्रुत्वा तु शल्यवचनं कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः। | 5-18-22a 5-18-22b |
भवान्कर्णस्य सारथ्यं करिष्यति न संशयः। | 5-18-23a 5-18-23b |
शल्य उवाच। | 5-18-24x |
एवमेतत्करिष्यामि यथा मां संप्रभाषसे। | 5-18-24a 5-18-24b |
वैशंपायन उवाच। | 5-18-25x |
ततस्त्वामन्त्र्य कौन्तेयाञ्छल्यो मद्राधिपस्तदा। | 5-18-25a 5-18-25b |
।। इति श्रीमन्महाभारते उद्योगपर्वणि |
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